द मिनिएचरिस्ट ऑफ जूनागढ़ः हालात से उपजा एक शोकगीत भी, उम्मीद के लिए प्रार्थना भी

यह फिल्म एक ऐसी खोई हुई कला के बारे में है जिसे मेरे ही पैतृक घर के किसी कोने में उसके जमींदोज होने से पहले शूट कर बचा लिया गया था।’ संस्कृतियों के बीच सेतु बनाने की हुसैन की कोशिशों की तर्ज पर यह हालात से उपजा एक शोकगीत भी है, उम्मीद के लिए प्रार्थना भी।

फोटोः सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

स्टीफन ज्विग के उपन्यास ‘डाई अनसिच्तबेयर सैमलंग’ पर आधारित कौशल ओजा की लघु फिल्म ‘द मिनिएचरिस्ट ऑफ जूनागढ़’ निजी अनुभवों और औपन्यासिकता का खूबसूरत सहमेल है। इसके पीछे मुंबई के बोरीवली में अपने ही घर को तिल-तिल ढहते देखने की टीस भी है। किताबी प्लॉट और भोगे हुए यथार्थ के संयोग से बनी विभाजन की यह कहानी एक जब्तशुदा घर का शोकगीत भी है। उम्मीद में उठा हाथ भी। ओजा याद करते हैं- ‘जिस घर में पला-बढ़ा, एक दिन उसे आवासीय परिसर के लिए जमींदोज कर दिया गया। मैं इसका कुछ शूट करना चाह रहा था, ताकि इसकी अंतिम तस्वीर को संजो सकूं।’ ओजा की यह फिल्म निज की उस टीस के समानातंर ज्विग को पढ़ते हुए अहसास का प्रतिफल है।

कहानी चित्रों के छोटे-छोटे फ्रेम (मिनीएचर) बनाने वाले उम्रदराज चित्रकार हुसैन नक्काश (नसीरुद्दीन शाह) की है जिसे भारत का अपना पैतृक घर बेचकर पत्नी (पद्मावती राव) और बेटी नूर (रसिका दुग्गल) के साथ कराची (पाकिस्तान) जाने को मजबूर होना पड़ा है। फिल्म उस संपूर्ण संस्कृति और जीवन शैली के बारे में भी है जो बड़ी नाजुकियत के साथ मौसिकी (संगीत) और मुसव्विर (चित्रकार) के धागों में गुंथी रही लेकिन आज संकट में है।

ओजा बताते हैं- ‘मैं चला तो कहीं और के लिए था लेकिन रास्ते में कुछ बदला और इस फिल्म के होने की जड़ में ‘मेरा घर’ ही नहीं रहा। जाने कब यह उन मूल्यों पर केन्द्रित हो गई जो अब नष्ट हो रहे हैं।’ हालांकि फिल्म 1947 में घूमती है और यही वह तत्व है जो इसकी अनुगूंज को व्यापक बनाकर समकालीन प्रासंगिकता दे देता है। फिल्म हमारे समय की बात करती है। ओजा कहते हैं- ‘कुछ भी सायास नहीं था लेकिन जाने कब उस पुराने बंगले को खोने का अहसास देश को होने वाले बड़े नुकसान का रूपक बन गया। सहिष्णुता किस तरह कम होती गई है और हम किस तरह ज्यादा से ज्यादा असहिष्णु और हठधर्मी होते जा रहे हैं…।’

अपने निर्देशकीय वक्तव्य में ओजा कहते हैं, घर ने यहां एक दार्शनिक जामा पहन लिया है- ‘यह महज उनका (हुसैन का) घर ही नहीं था जो छीना जा रहा था बल्कि उनकी संपूर्ण कला भी थी। भारतीय लघु चित्रों की वह कला जो इस्लामी और हिन्दू परंपराओं का संगम ही नहीं, इंसानी मूल्यों और आत्मा की सच्ची ऊंचाइयों का एक ऐसा वसीयतनामा भी है जहां मन, संस्कृति और धर्म एकाकार हो जाते हैं। यही कला है जिसके माध्यम से हुसैन अपने सताने वालों से संवाद करते हैं, अपने तरीके से हर उस लकीर को मिटा देते हैं जो भौगोलिक सीमाओं से बनी हो या कि धार्मिक।’


किशोरी लाल (राज अर्जुन) कट्टरपंथी ताकतों का प्रतीक है। जो अपने मुस्लिम तांगे वाले को ‘औरंगजेब की औलाद’ कहता है और गाहे-बगाहे पाकिस्तान भेजने की धमकी देता रहता है। यह वह इंसान है जो न सिर्फ हुसैन का घर खरीदता है बल्कि वह बेशकीमती धरोहरें भी हथियाना चाहता है जिसमें उसकी मिनीएचर पेंटिंग्स का छोटा-सा खजाना भी शामिल है। लेकिन हुसैन से बात करते-करते, कुछ बदलता है और उसमें शालीनता आ जाती है। हम उसे पिघलते हुए देखते हैं, यहां तक कि कई बार मानवता का ऐसा भाव भी दिखता है जो उसके संदर्भ में अविश्वसनीय है।

यह कहने पर कि आप अब भी सनक और मोहभंग के बीच उम्मीद देख रहे हैं? ओजा कहते हैं- ‘जब उम्मीद पर तुषारापात होने लगे, आपको आदर्श के साथ हो लेना चाहिए। आपको बेहतर समय के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रयास करना चाहिए और हर गुजरते दिन के साथ पोषित मूल्यों के पक्ष में खड़े हो जाना चाहिए। जब अंधेरा सामने हो, आप सिर्फ शातं और स्थिर तो नहीं रह सकते हैं न! यह फिल्म एक ऐसी खोई हुई कला के बारे में है जिसे मेरे ही पैतृक घर के किसी कोने में उसके जमींदोज होने से पहले शूट कर बचा लिया गया था।’ संस्कृतियों के बीच सेतु बनाने की हुसैन की कोशिशों की तर्ज पर यह हालात से उपजा एक शोकगीत भी है, उम्मीद के लिए प्रार्थना भी।

दमदार अभिनेताओं का चयन दर्शक को 1947 की विभीषिका के माहौल में पहुंचाने को पर्याप्त है। हैरानी तो यह है कि फिल्म के लिए कलाकारों का चयन ही सबसे आसान हो गया जब सभी सहजता से काम करने को राजी हो गए। ओजा बताते हैं- ‘नसीर को फिल्म का सरोकार, उसका लोकाचार पसंद आया लेकिन (हंसते हुए) यहां तक पहुंचने के लिए लिए मुझे उनके साथ बांद्रा से जहू तक का सफर तय करना पड़ा। शाह ने तो फिल्म में अपनी निजी पोशाक का इस्तेमाल भी किया है, मसलन- शेरवानी, टोपी और मोजड़ी (जूती) जो उन्होंने अपने एक नाटक के लिए कराची में खासतौर से बनवाई थी।’

ओजा का घर गुजरात में है। इस कारण मुंबई में जूनागढ़ को जीवंत करना मुश्किल नहीं था। वह बताते हैं- ‘मैं वेशभूषा, कैमरा और प्रोडक्शन डिजाइन के जरिये चालीस का दशक जीवंत करना चाहता था। कोरी ब्योरेबाजी मुझे पसंद नहीं। मैं अपने आप में बोलते फ्रेम की तलाश में रहता हूं। यही यहां किया है।’ ओजा के को-प्रोड्यूसर रंजन सिंह कहते हैं- ‘फिल्म निर्माण की प्रक्रिया का हर तत्व जिस तरह उनके काम में बड़ी बारीकी से समाहित हो जाता है, वह प्रभावित करने वाला है। मुझे उनके इस पहलू से प्यार है। फिल्म निर्माण की दुनिया में वह एक मजबूत आवाज हैं।’


भारतीय फिल्म और टेलिविजन संस्थान, पुणे से फिल्म निर्देशन में स्नातक ओजा ने ‘वैष्णव जन तो’ के साथ 2010 में एंट्री ली और पहली ही फिल्म के लिए शॉर्ट्स कटेगरी में सर्वश्रेष्ठ डेब्यू निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। दूसरी फिल्म ‘आफ़्टरग्लो’ को भी 2013 में सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उनकी फिल्में कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित और सम्मानित हुई हैं। ‘द मिनिएचरिस्ट ऑफ जूनागढ़’ लॉकडाउन के ठीक पहले शूट हुई और पोस्ट प्रोडक्शन महामारी के दौरान पूरा हुआ। पिछले साल कई समारोहों में शामिल हुई और अब 25 मई से शुरू हो रहे लघु फिल्मों के बड़े प्रदर्शन का हिस्सा बनेगी।

ओजा की पहली फीचर फिल्म जल्द ही आने वाली है जिसके प्रोड्यूसर रंजन सिंह होंगे। शूटिंग इस साल के उत्तरार्ध में शुरू होने की उम्मीद है। यह नब्बे के दशक में गोवा के लैटिन क्वॉर्टर कहे जाने वाले पंजिम के एक बच्चे के बड़े होने की कहानी है जो अपने आप में खासी मजाहिया है। सिंह कहते हैं- ‘लिटिल थोमस’ का यह बच्चा जिस तरह अपने मां-बाप को देखता है, वह कब एक थीम बन गया, पता ही नहीं चला।’ ओजा बताते हैं कि ‘फिल्म बताती है कि किस तरह एक बच्चे की मासूमियत एक परिवार को जोड़ने का जरिया बन जाती है।’ ओजा आश्वस्त हैं कि यह संघर्ष के बीच उम्मीद की एक और कहानी बनकर सामने आएगी।

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