पूर्वाग्रह और कट्टरता के दानव को वश में कर सकता है सिनेमा, हिंदी फिल्मों का समृद्ध अतीत जगाता है उम्मीद
सामुदायिकता में भरोसा बनाए रखना सरलीकृत और कई बार पलायनवादी लग सकता है, खासतौर से ऐसे समय में जब लगातार बढ़ते राजनीतिक और धार्मिक ध्रुवीकरण ने एक शातिर और अपरिवर्तनीय दिखने वाला हिंसक मोड़ ले लिया हो।
इन दिनों दिनों मेरी हर सुबह 2013 में आई अभिषेक कपूर की फिल्म ‘काई पो चे’ में अमित त्रिवेदी-स्वानन्द किरकिरे के कंपोजीशन ‘सुलझा लेंगे रिश्तों का मांझा’ से होती है। उठती हूं तो यह दिमाग में चल रहा होता है। किरकिरे का यह गीत फिल्म में चित्रित 2000 के दशक के अहमदाबाद के तार-तार हुए सामाजिक तानेबाने की पार्श्वभूमि में बहुत सधा हुआ, समझदार, गंभीर और साथ-साथ आशावादी भी है। यह वही समय है जब गुजरात भूकम्प, गोधरा और सांप्रदायिक दंगों के दौर से गुजरा था।
सामुदायिकता में भरोसा बनाए रखना सरलीकृत और कई बार पलायनवादी लग सकता है, खासतौर से ऐसे समय में जब लगातार बढ़ते राजनीतिक और धार्मिक ध्रुवीकरण ने एक शातिर और अपरिवर्तनीय दिखने वाला हिंसक मोड़ ले लिया हो। ऐसे में हमारा ध्यान उन सामाजिक फिल्मों की ओर चला जाता है जो दशकों से हमारे समाज, हमारे सामाजिक ताने-बाने का प्रतिबिंब रही हैं। मुझे मुख्यधारा का वह सिनेमा याद आ रहा है जो न सिर्फ पास-पड़ोस, मोहल्ले, समुदायों की बातें करता था, इस ताने-बाने के अंदर की विविधता, वैचारिक मतभिन्नता ही नहीं, उसके अंदर की सामूहिकता और एकजुटता की बात भी करता था।
चेतन भगत के ‘थ्री मिसटेक्स ऑफ माई लाइफ’ पर आधारित ‘काई पो चे’ बताती है कि राजनीति और असहिष्णुता किस तरह मासूम लोगों के जीवन को प्रभावित करते हैं। ईशान भट्ट (सुशांत राजपूत), ओंकार शास्त्री (अमित साध) और गोविंद पटेल (राजकुमार राव) की दोस्ती के बहाने से कहानी बहुत संवेदना के साथ संदेश देती है। तीनों चमकदार युवक स्थानीय प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देने, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए अहमदाबाद में एक क्रिकेट अकादमी खोलने के इरादे से आते हैं। लेकिन पहले भूकम्प के दौरान राहत शिविरों में घुसी हिन्दू-मुस्लिम राजनीति जैसी बदनुमा सूरत दिखाती है, और इसकी परिणति बाद में जिस तरह गोधरा कांड और फिर दंगों के कहर के रूप में सामने आती है, इनका सपना बिखर कर रह जाता है। फिल्म इन घटनाओं की वीभत्सता में नहीं जाती बल्कि बताती है कि ऐसी घटनाओं से समाज पर, सामाजिक ताने-बाने पर कैसा असर पड़ता है।
कहते हैं, क्रिकेट की गोंद समाज को बांधती है। और यहां ईशान है जो खुद भले ही एक निराश क्रिकेटर है लेकिन अपनी निजी दुनिया, अपना अंतरंग, दोस्तों और परिवार को छोड़कर क्रिकेट के जरिये अपने आसपास की दुनिया के बिखराव को एक धागे में बुनना चाहता है। वह खुद को दांव पर लगाकर भी पर एक गरीब बच्चे अली हाशमी की जान बचाता है जो आगे चलकर देश का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज बनता है।
हिन्दी सिनेमा में सामुदायिक भावना का सबसे शुरुआती चित्रण व्ही शांताराम की फिल्म ‘पड़ोसी’ को माना जा सकता है। 1941 में आई यह क्लासिक सद्भाव-सौहार्द की मिसाल एक गांव की कहानी है। यह दो दोस्तों की कहानी है जिसमें हिन्दू चरित्र मुस्लिम अभिनेता मजहर खान और मुस्लिम चरित्र हिन्दू अभिनेता गजानन जागीरदार ने अभिनीत किया है। अभिनेताओं का यह चयन बहुत सोचा-समझा था जिसके जरिये शांताराम एक बड़ा संदेश देना चाहते थे।
गांव में उद्योगपति के रूप में एक बाहरी व्यक्ति का प्रवेश होता है, जो बांध बनाने के लिए गांव आया है और अपने स्वार्थ में बड़ी आसानी से अविश्वास और टकराव के बीज बो देता है। दोनों दोस्त भी उसके फरेब में आ जाते हैं और उन्हें इसकी कीमत अपनी जिंदगी से चुकानी पड़ती है। लेकिन क्या समय ने इस सब को एक खतरे, एक अलार्म के रूप में देखा? यह बड़ा सवाल है!
यश चोपड़ा की 1959 में आई फिल्म ‘धूल का फूल’ अपने गाने ‘तू हिन्दू बनेगा, न मुसलमान बनेगा…’ के जरिये धर्म से ऊपर मानवता का संदेश दे रही थी जहां एक मुस्लिम द्वारा पाले गए हिन्दू बच्चे के जरिये धर्मनिरपेक्षता और सामुदायिकता की भावना पर जोर था। आचार्य चतुरसेन के उपन्यास पर आधारित 1961 की फिल्म ‘धर्मपुत्र’ की कहानी भी एक मुस्लिम बच्चे की हिन्दुओं द्वारा परवरिश के जरिये संदेश देती है। यूसुफ नकवी की 1977 की फिल्म ‘शंकर हुसैन’ भी इसी सोच को आगे बढ़ाती है तथा सामाजिक ताने-बाने की मजबूती को और ज्यादा बारीकी से समझाने की कोशिश करती है जहां एक हिन्दू डॉक्टर खुद का बेटा होते हुए भी एक मुस्लिम बच्चे को अपनाता है लेकिन उसके धर्म पालन की राह में आड़े नहीं आता।
शिमित अमीन की ‘चक दे इंडिया’ (2007) भी पास-पड़ोस, समाज, और व्यापक स्तर पर देश की बात ही तो करती है जहां एक मुसलमान हॉकी खिलाड़ी और भारतीय हॉकी टीम के कप्तान कबीर खान (शाहरुख खान) के प्रति दुराग्रह की हद तक पूर्वाग्रह दिखता है और विश्व कप फाइनल में पाकिस्तान के खिलाफ भारत की पराजय का सारा ठीकरा उसके माथे फोड़ दिया जाता है। यह उनके (कबीर खान के) बहिष्कार और फिर से उसी समुदाय-समाज में अंतिम रूप से पुनर्वास के बारे में है। लेकिन धर्म से परे, यह फिल्म उस महिला टीम की एकजुटता के बारे में भी है जो आपसी मतभेदों से ऊपर उठकर क्षेत्रीय सद्भाव और शक्ति का शानदार रूपक बनकर उभरती हैं।
हालांकि, ज्यादातर हिन्दी फिल्मों के केन्द्र में छोटे शहरों का पारिवारिक माहौल है लेकिन आनंद एल रॉय की फिल्म ‘रांझणा’ (2013) वाराणसी, अलीगढ़ और जेएनयू के सामाजिक-धार्मिक ताने-बाने को उसके हर शेड्स के साथ बहुत कलात्मक और संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करती है। इसी तरह जोया अख्तर की ‘गली बॉय’ अपने हीरो मुराद (रणवीर सिंह) और उसके फर्श से अर्श तक उठने तक केन्द्रित रहती है लेकिन उसके साथ मुंबई का सामाजिक परिवेश भी गहरे आर्थिक-सामाजिक विभेद और असमानताओं के साथ फ्रेम में मौजूद है।
अनुभव सिन्हा की ‘मुल्क’ (2018) के मूल में भी धर्म ही है क्योंकि यह सांप्रदायिक और सांस्कृतिक मेलजोल को दर्शाती है। इसके केन्द्र में वाराणसी की बहुप्रचारित गंगा-जमुनी तहजीब है जहां हिन्दुओं की सुबह अजान की आवाज से होती है और फिर हम उन्हें पड़ोसी मुस्लिम दोस्त के घर में जाते देखते हैं जहां चुपके से कबाब भी उड़ाए जाते हैं। हालांकि एक और हिन्दू भी है जो उनके (मुसलमानों के) उत्सवों में शामिल तो होता है लेकिन उनके द्वारा खासतौर से बनाया गया शाकाहारी व्यंजन भी खाने से मना कर देता है। फिल्म में कुछ अन्य बहुसंख्यकवादी पूर्वाग्रह भी सामने आते हैं जिन्हें मुसलमानों में शिक्षा की कमी और जेहाद के जाल में फंसने जैसे मामलों से समझा जा सकता है। इस सौहार्द्र को अराजकता, संपत्ति के नुकसान, इंसान को खतरे में डालने में किसी भी हद तक जाने में बस थोड़ा सा वक्त लगता है।
इससे पहले राकेश ओमप्रकाश मेहरा की दिल्ली 6 (2009) ने भी ऐसी ही सामुदायिक तानेबाने की बात की थी लेकिन वहां अंदाज बिलकुल अलग था। इसने पुरानी दिल्ली को सामुदायिक भावना के सूक्ष्म जगत में बदल दिया। लेकिन ‘मुल्क’ की तरह समाज के भीतर की सड़ांध के बीज यहां भी मौजूद थे। क्या आज के माहौल में इन फिल्मों की याद आना स्वाभाविक नहीं है!
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