Amitabh-Jaya 50th Anniversary: अमिताभ-जया आधी सदी से संग-संग, ऐसे बनी फिल्म ‘गुड्डी’ से दोनों की जोड़ी
वे पहली बार ‘गुड्डी’ के सेट पर मिले थे जिसके लिए ह्रषिकेश मुखर्जी ने जया को सीधे फिल्म इंस्टिट्यूट के कैंपस से ही उठा लिया था। ह्रषि दा अपनी इस नई ‘खोज’ को अमित के साथ लाना चाह रहे थे जिसने ‘आंनद’ की अपनी शानदार भूमिका से उनका दिल जीत लिया था।
उस पत्रकार ने देखा कि किसी ने उनके अपार्टमेंट के दरवाजे के पास की दीवार पर ‘पैसेवाली’ लिख दिया था। उसे लगा, यह फ्लैट जरूर जया भादुड़ी का ही होगा। वह जुहू के एक छोर पर स्थित एक उपनगरीय आवासीय सोसाइटी बीच हाउस पार्क की दूसरी मंजिल पर खड़ा था। उस दिन उसने लंबे, उड़ते बालों वाली एक जिंदादिल लड़की का इंटरव्यू किया। उसने उसे बताया कि उसी इमारत में इंडस्ट्री के अन्य सहयोगी भी रहते हैं। रेखा जैसी सहकर्मी भी। वे सब मित्र थे। उन्होंने उन अभिनेताओं के बारे में बात की जिन्होंने उनपर छाप छोड़ी थी… उनकी सूची में एकमात्र नवागंतुक नाम अमिताभ बच्चन था, एक दुबला-पतला युवा अभिनेता। “क्या आवाज है!”, उसने कहा।
साल था 1971। इसके पहले कि उनकी हिन्दी फिल्में सिनेमाघरों में धूम मचातीं, जया भादुड़ी इस जादुई शहर की चर्चाओं में शुमार हो चुकी थीं। उन्होंने सत्यजीत रे की ‘महानगर’ (1963) में एक तेजतर्रार किशोरी के रूप में शुरुआत की और फिर सीधे पुणे फिल्म संस्थान (अब एफटीआईआई) चली गईं जहां स्तानिस्लावस्की की ‘पद्धति’ (मेथड) की ट्रेनिंग मिली। एक स्वर्ण पदक के साथ स्नातक पूरा किया और निकलते ही ह्रषिकेश मुखर्जी ने अपनी नई फिल्म ‘गुड्डी’ में ले लिया जिसमें बाद के दिनों में उसी दुबले-पतले लड़के के साथ उसकी जोड़ी बनी।
2014 में फिल्म फेयर को दिए एक इंटरव्यू में तनुजा ने अमिताभ बच्चन से पहली बार मिलने का अपना अनुभव साझा किया: “मैं पहली बार अमित से ताज के एक क्लब में मिली थी। वह सुंदर लग रहा था और अपनी तत्कालीन प्रेमिका मॉडल शीला जोंस के साथ नृत्य कर रहा था।’ मैंने उससे पूछा, ‘तुम फिल्मों में क्यों नहीं आ जाते?’ उसने जवाब दिया: ‘मैं यहां फिल्मों से जुड़ने ही आया हूं।” जया की तरह ही अमिताभ भी अपने संघर्ष के दौर में ही ठीक-ठीक चर्चा में आने लगे थे और इंडस्ट्री का जाना-पहचाना चेहरा थे। अपरंपरागत चेहरे-मोहरे और उनकी आवाज के लिए उन्हें खारिज किए जाने की कहानियां भी रही ही हैं। लेकिन तथ्य यह है कि 1971 की शुरुआत में ही वह ऐसे लोगों में शुमार किए जाने लगे थे जिन पर नजर रखी जानी चाहिए। वह मृणाल सेन (‘भुवन शोम’ - 1969) जैसे दिग्गज की फिल्म को अपनी आवाज दे रहे थे और हृषिकेश मुखर्जी की आनंद (1971) में डॉक्टर भास्कर बनर्जी की भूमिका उन्हें बड़ा हौसला दे रही थी। फिल्मी पत्रिकाएं उनके कारनामों और उनके प्रेम प्रसंगों का पीछा करने लगी थीं। उन दिनों अमिताभ एक मॉडल शीला जोंस के साथ डेट कर रहे थे। बताते हैं कि शीला 1972 में मिस इंडिया प्रतियोगिता में भाग ले चुकी थीं।
अमिताभ और जया दरअसल व्यक्तिगत रूप से मिलने से पहले ही एक दूसरे को ‘देख’ चुके थे। जया जब पुणे फिल्म संस्थान में पढ़ रही थीं, उन्होंने ख़्वाजा अहमद अब्बास के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल के हिस्से के तौर पर परिसर का भ्रमण किया था जिन्होंने अमिताभ को पहला ब्रेक दिया था। वह इस याद से ही खासी प्रभावित हुईं। अमिताभ का दावा है कि उन्होंने पहली बार जया को एक मैगजीन के कवर पेज पर देखा था। वह इस ‘बंगालन’ की बड़ी-बड़ी आंखों और लंबे बालों के साथ ही पारंपरिक भारतीय और आधुनिक शहरी संवेदना के संतुलन से उभरे आकर्षण में डूब से गए थे। अमिताभ स्वयं भी इन्हीं दो तत्वों की उपज थे। उनकी मां तेजी बच्चन अत्यंत उदार, पश्चिमी दृष्टिकोण वाली एक कान्वेंट-शिक्षित महिला थीं जबकि उनके पिता प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन ठेठ परंपरावादी। युवा अमिताभ बच्चन इस लड़की जया भादुड़ी के चेहरे पर इन दो दुनियाओं को एक साथ उभरते देख सकते थे।
वे पहली बार ‘गुड्डी’ के सेट पर मिले थे जिसके लिए ह्रषिकेश मुखर्जी ने जया को सीधे फिल्म इंस्टिट्यूट के कैंपस से ही उठा लिया था। ह्रषि दा अपनी इस नई ‘खोज’ को अमित के साथ लाना चाह रहे थे जिसने ‘आंनद’ की अपनी शानदार भूमिका से उनका दिल जीत लिया था। पहले ही दिन विपरीत कद-काठी के कारण उनमें एक अलग तरह की बांडिंग दिखी। वह 5 फुट डेढ़ इंच की और ये 6 फुट 3 इंच वाला। उन्होंने उन्हें ‘लंबू’ कहना शुरू कर दिया और इन्होंने उन्हें ‘गिटकू’। अंततः बच्चन की जगह कोलकाता से आयातित समित भांजा ने ले ली (ह्रषिकेश मुखर्जी एक नए नवेले चेहरे वाला अमिताभ चाहते थे जबकि वह ‘आनंद’ की सफलता के साथ तब तक सेलिब्रेटी बन चुके थे)। फिर भी जया और अमिताभ को दो फिल्मों में एक दूसरे के विपरीत कास्ट किया गया और दोनों एक साथ रिलीज (1972) भी हुईं, ‘बंसी बिरजू’ और ‘एक नजर’। साल खत्म होते-होते दोनों पिट गईं।
‘गुड्डी’ की कास्ट में बदलाव के बाद से ही हृषिकेश मुखर्जी अमित और जया को फिर से एक साथ कास्ट करने के लिए किसी मौके की तलाश में थे। ‘राग-रागिनी’ के साथ यह मौका हाथ आया जिसकी स्क्रिप्ट उन्होंने 1955 में अपने परिचित एक ऐसे ही युवा गायक जोड़े पर लिखी थी जिसमें दोनों गायक थे और जिनके प्यार पर उनकी इस पेशेवर गायकी ने ही ग्रहण लगा दिया था। ह्रषी दा लंबे समय से इसे बनाना चाह रहे थे लेकिन सही मौका शायद अब आया था। फिल्मफेयर के दिसंबर, 1972 अंक में प्रकाशित एक साक्षात्कार में अमिताभ कहते हैं: ‘वह राग-रागिनी के सेट के बाहर बैठकर बातें कर रहे थे। बीते कुछ घंटों में उन्होंने शॉट्स दिए थे, निर्देशक हृषिकेष मुखर्जी के साथ हंसी-मजाक किया था, बीती देर रात की शूटिंग की थकान के बाद थोड़ी देर के लिए झपकी ली थी, सह कलाकार जया भादुड़ी और लेखक-निर्देशक गुलज़ार के साथ लंच लिया था और रेडियो पर थोड़ी देर इंस्पेक्टर ईगल को सुना था।’ इंटरव्यू में अमिताभ यह भी बताते हैं कि ह्रषि दा ‘इस वक्त उन्हें ‘राग-रागिनी’ और एक अन्य फिल्म में राजेश खन्ना के साथ निर्देशित कर रहे हैं’। यह दूसरी फिल्म शायद ‘नमक हराम’ (1973) रही होगी।
‘राग-रागिनी’ के निर्माण के दौरान ही कोई समय ऐसा आया जब हृषिकेष मुखर्जी को अपना गुरु मान चुके अमित और जया ने फिल्म निर्माण का फैसला किया। इसी के साथ फिल्म का नाम बदलकर ‘अभिमान’ रखा गया। फिल्म को सपोर्ट देने के मकसद से ही दोनों ने एक कंपनी बनाई और इसे ‘अमिया प्रोडक्शंस’ नाम दिया। यह दोनों के अपने नाम के योग से निकला था। अब इसे प्रेम के प्रस्फुटन की निशानी नहीं तो और क्या कहेंगे? लेकिन प्यार, जैसा कि वे कहते हैं, एक बहुत ही अद्भुत चीज है। लगभग उसी समय, एक लोकप्रिय फिल्म पत्रिका ने अमिताभ बच्चन के साथ बातचीत कर उनकी प्रेम कहानी पर कुछ अलग ही तरह का एक लेख प्रकाशित किया जिसमें लिखा: ‘अमिताभ ने यह तो स्वीकार किया कि जया उनकी “नंबर वन लड़की” हैं लेकिन वह उसे अपनी “स्थायी लड़की” नहीं कहना चाहेंगे। कारण बहुत साफ है कि वह अब भी अन्य लड़कियों को डेट करते हैं (खासतौर से जब जया बाहर कहीं शूटिंग कर रही होती हैं)। शीला जोन्स भी इन्हीं में हैं! दूसरी ओर जया कभी भी अपने ‘लंबूजी’ के अलावा किसी के साथ बाहर नहीं जाती… जिस पर अमिताभ कहते हैं “वह जिसके साथ चाहें, बाहर जाने के लिए स्वतंत्र हैं… मैने तो उन्हें कभी किसी और से न मिलने के लिए नहीं कहा।”
फिर जंजीर (1973) आती है। इसने तो अब तक की सारी रिकॉर्ड बुक ही फिर से लिख डालीं। फिल्म ने अमिताभ बच्चन को एक झटके में शीर्ष पर पहुंचा दिया। पूरा देश चकाचौंध में था। वह अचानक सब की आंख का तारा बन चुके थे। अब तक फिल्म संस्थान से स्नातक और सत्यजीत रे की शागिर्द रही जया भादुड़ी लंबे समय से दोनों में बड़ी स्टार थीं। मध्यम वर्ग की सबसे चहेती यह स्टार जबरदस्त मांग में थी। यह वैसा ही था जैसे पूरी की पूरी ‘गर्ल नेक्स्ट डोर’ वाली छवि खुद उनकी ही ईजाद हो। लेकिन ‘जंजीर’ ने जिसमें उन्होंने भी काम किया था, बहुत कुछ क्या, पूरी गतिकी को ही बदलकर रख दिया। अब ताज अमिताभ के सर पर था। लोग उनके हाथों से खाना खा रहे थे। जया और अमिताभ ने तय किया कि फिल्म अच्छी चली तो लंदन घूमने जाएंगे। अब जब यह सब हो गया तो प्लान लागू करने का वक्त आ गया। लेकिन अमित के माता-पिता ने एक शर्त रख दी। वह जया के साथ लंदन जा सकते थे लेकिन शादी करने के बाद। शादी तो वैसे भी होनी ही थी लेकिन उन्हें बस इसे थोड़ा पहले कर लेना था। आखिरकार 3 जून, 1973 को ‘अमिया’ शादी के बंधन में बंध गए।
27 जुलाई, 1973 को ‘अभिमान’ रिलीज हुई और रातोंरात सुपर हिट हो गई। फिल्म जब शुरू हुई थी जया और अमिताभ दो ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने अपने गुरु, अपने मेंटॉर की फिल्म बनाने का फैसला किया था। जब आखिरी शॉट हुआ, तब तक वे शादीशुदा हो चुके थे। जया जो अब एक बच्चन थीं, अपनी भूमिकाओं के बारे में बहुत सचेत हो चुकी थीं। उनकी दो फिल्में आ रही थीं। राजिंदर सिंह बेदी की ‘फागुन’ और रघुनाथ झालानी की ‘अनामिका’ जिसमें उनके कॅरियर में सबसे बड़ी शिनाख्त बन जाने वाले गीतों में से एक ‘बाहों में चले आओ’ भी था। अमिताभ के पास आगे देखने के लिए हृषिकेश मुखर्जी और राजेश खन्ना के साथ एक और पारी (आनंद के बाद) ‘नमक हराम’ सामने थी। यह साल इस युवा जोड़े के लिए अत्यंत उम्मीदों भरा नजर आ रहा था।
शादी के एक साल बाद 1974 में वही पत्रकार जया से एक बार फिर मिलने गए जिनके साथ इस लेख की शुरुआत हुई थी। आगंतुक पर्ची भरते हुए उन्होंने लिखा: “श्रीमती जे बच्चन से मिलने के लिए। कारण: कुछ पूछना है! ” जया ने उन्हें अंदर बुलाया। उस वक्त वह घरेलू कामों के बीच अमिताभ के सचिव को किसी इलेक्ट्रिशियन को बुलाने के लिए कह रही थीं, ताकि कुछ तार ठीक किए जा सकें। उन्होंने कहा, अमिताभ शाकाहारी हो गए हैं। उन्हें यश चोपड़ा की ‘कभी-कभी’ के लिए कश्मीर जाना था और जया उनके साथ जा रही थीं। वे लोग बात कर ही रहे थे कि श्वेता बीच में आ गई और अपनी बचकानी बातें शुरू कर दीं। जीवन बदल चुका था। एक बिलकुल नई यात्रा शुरू हो चुकी थी। 1975 में इस अद्भुत जोड़े की राह में तीन अद्भुत लोकप्रिय फिल्में ‘मिली’, ‘चुपके-चुपके’ और ‘शोले’ आईं जिनमें दोनों ने साथ अभिनय किया। फिर 1981 में ‘सिलसिला’ आई जहां दोनों साथ थे। धीरे-धीरे ही सही, जया बच्चन बच्चों में व्यस्त हो गईं। अमिताभ बच्चन ने अपना राह खुद बनाई।
वर्षों बाद मार्च 1989 में जया के पिता, प्रख्यात पत्रकार तरुण कुमार भादुड़ी ने ‘द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में अपने भावी दामाद से पहली बार परिचय होने के बारे में लिखा: “मैं 1972 की शुरुआत में एक दिन अमिताभ बच्चन से मिला था जब वह जया को डेट कर रहे थे। लंबा, दुबला-पतला, रेशम का कुर्ता और लुंगी पहने जो उस समय तक परंपरागत पोशाक थी- वह अपनी पोंटियाक (या शायद कोई और कार रही हो?) के पास, जुहू बीच पर जया के फ्लैट से कुछ ही दूरी पर खड़े थे। मैं एक पार्टी से वापस आ रहा था और जैसे ही मैं अपनी कार से नीचे उतरा, वह लंबा आदमी (लंबूजी जैसा कि जया उसे बुलाती थीं) अचानक अंधेरे से अवतरित हुआ और मेरे पैर छू लिए। मैंने ऊपर अंधेरे में उभरती उस दूधिया आकृति की ओर देखा… क्या आप… लेखक हैं?, उसने पूछा! हां, मैंने जवाब दिया। उसने कहा, “वाह, कितनी सुंदर बात है।” और बस इतना ही! लेकिन रात के उस अंधेरे में मैंने जो गूंजती हुई आवाज सुनी थी, अब भी मेरा पीछा करती है।”
1983 में मनमोहन देसाई की ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान एक एक्शन सीन में अमिताभ, पुनीत इस्सर के एक मुक्के से कुछ इस तरह लड़खड़ाए कि मेज का कोना पेट में लगने से बुरी तरह चोटिल हो गए। परिवार को अमित के घायल होने की जानकारी मिली। जया के पिता आगे लिखते हैं: “हमने लखनऊ से बंबई के लिए उड़ान भरी। देश भर में लोग एक इंसान की सेहत के लिए दुआएं कर रहे थे। ऐसा पहले कभी नहीं देखा-सुना गया था। लेकिन यहां हो रहा था।” जया अपने पिता को ब्रीच कैंडी अस्पताल ले गईं जहां अमिताभ आईसीयू में लेटे हुए थे और मशीन पर ट्यूब ही ट्यूब दिख रही थीं। अमिताभ सिर्फ इतना ही कह सके, “बाबा, मै सो नहीं पा रहा हूं!” दुर्घटना के ठीक दो महीने बाद 24 सितंबर को, अमिताभ अपने पैरों पर वापस खड़े हो पाए थे। उन्होंने न सिर्फ अपने डॉक्टरों और परिवार बल्कि अपने प्रशंसकों का भी उनकी बेसाख्ता दुआओं के लिए आभार जताया था जिन्होंने मंदिर, मस्जिद, चर्च- कहीं भी उनके लिए दुआएं की थीं।
इसके बाद के वर्षों में बच्चन परिवार कई मुश्किलों, कई चुनौतियों का गवाह बना लेकिन ‘अमिया’ इस सबसे उबारने में सफल रही। पुराने समय में 50 सप्ताह चलने पर फिल्में स्वर्ण जयंती मनाती थीं। ‘लंबू’ और ‘गिटकू’ पिछले 50 वर्षों से साथ-साथ चल रहे हैं- यह उनकी अब तक की सबसे अच्छी, सबसे खूबसूरत स्वर्ण जयंती है।
इस लेख के लेखक अंबरीश रॉयचौधरी हैं, वह राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता लेखक, जीवनीकार और फिल्म इतिहासकार हैं।
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