ग्राउंड रिपोर्ट: पंजाब में इस वर्ग के पास है सत्ता की चाभी! पहली बार इस समाज में नजर आ रहा 'अंडर करंट'
117 सीटों वाली पंजाब विधानसभा की 23 सीटें दोआब क्षेत्र से आती हैं। जहां पर रविदास समाज के ही 12 लाख से अधिक लोग हैं। दोआबा की 23 में से 15 सीटें पिछली बार कांग्रेस ने जीती थीं। राज्य में 34 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, जो चार-पांच कोणीय मुकाबले में काफी अहम हैं।
पंजाब के चुनावी इतिहास में इतना मुश्किल चुनाव शायद ही कभी हुआ है। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, संयुक्त समाज मोर्चा के साथ बसपा-अकाली और BJP गठबंधन समेत मैदान में पांच ध्रुव हैं। यही मतदाताओं का असमंजस है। लेकिन सत्ता की चाभी जिस वर्ग के पास इस बार नजर आ रही है वह दलित मतदाता हैं। जो वर्ग इस बार सबसे अधिक एकजुट नजर आ रहा है वह भी दलित समाज ही है। यह भी पहली बार है कि दलित समाज में एक अंडर करंट नजर आ रहा है।
पंजाब 32 फीसदी दलित आबादी के साथ देश में प्रतिशत के लिहाज से सर्वाधिक दलित जनसंख्या वाला प्रदेश है। दलित मतदाताओं की अहमियत प्रदेश में इससे समझी जा सकती है कि करीब 50 सीटें ऐसी हैं, जहां दलित मतदाता बेहद अहम हैं। प्रदेश में दलितों की करीब 80 लाख की आबादी किसी भी सियासी दल की किस्मत बदलने का दमखम रखती है। वैसे तो पूरे प्रदेश में दलित आबादी बिखरी है, लेकिन जालंधर, कपूरथला, होशियारपुर व नवांशहर समेत चार जिलों वाले दोआबा में यह तकरीबन 37 फीसदी के साथ प्रदेश में सर्वाधिक है। इसमें भी नवांशहर जिले की नवांशहर विधानसभा में 40 प्रतिशत व बंगा विस में यह 42 प्रतिशत है। जाहिर है कि 23 सीटों वाले दोआबा में दलित मतदाता निर्णायक हैं। वैसे तो दलित मतदाताओं ने कभी भी एकजुट होकर मतदान नहीं किया है। लेकिन इस बार दलितों में एक अंडर करंट है। इसकी वजह चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में प्रदेश को मिला पहला दलित मुख्यमंत्री है। यदि यह अंडर करंट मतदान तक कायम रहा तो बाजी पलटने वाला साबित हो सकता है। हालांकि, दलित मतदाता पूरी तरह खामोश है। काफी टटोलने के बाद ही मुश्किल से वह बोलता है।
नवांशहर में गन्ने का रस बेच रहे महाले पिंड के बिट्टू राम से बात करने पर पहले तो उसने कहा कि हमें राजनीति के बारे में कुछ पता नहीं है। बार-बार कुरेदने पर बिट्टू राम का कहना था कि हम तो बाप-दादा से कांग्रेस को वोट देते रहे हैं। हम भी उसी रास्ते पर जाएंगे। यह सवाल करने पर कि इसकी वजह कहीं चन्नी फैक्टर तो नहीं है। इस पर वह जवाब देने की जगह मुस्करा कर टाल देता है। बाजीगर बस्ती में रहने वाले बिट्टूराम का कहना था कि उसकी बस्ती में करीब डेढ़ सौ वोट हैं। सभी एक राय से ही मतदान करते हैं। नवांशहर की बंगा विस में आते शहीद भगत सिंह के गांव खटकड़ कलां में शहीदी स्मारक के सामने वर्षों से चाट की दुकान लगा रहे परमजीत सिंह का कहना था कि अभी असमंजस है। इस बार इतनी पार्टियां हैं कि यही नहीं समझ आ रहा है कि वोट किसे दें। अकाली दल के सवाल पर परमजीत कहते हैं कि अकालियों ने काफी राज किया है। अब उनका वक्त जा चुका है। किसानों की पार्टी को लेकर ज्यादा कोई चर्चा नहीं होने की बात वह कहते हैं। कांग्रेस के सवाल पर उनका कहना था कि चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से दलित भाईचारे में तकरीबन 80 फीसदी असर है। उन्होंने बताया कि खटकड़ कलां की तकरीबन पांच हजार की आबादी में दलितों की संख्या 1500 के आसपास होगी। कैप्टन अमरिंदर सिंह के सवाल पर भी वह नकारात्मक जवाब देते हैं।
जालंधर कैंट, जहां से कांग्रेस के परगट सिंह चुनाव लड़ रहे हैं, में जनरल स्टोर चला रहे जितेंदर सिंह का कहना था कि कोरोना काल में तीन महीने धंधा बंद रहा। उनका तकरीबन 10 लाख का नुकसान हुआ। अभी तक फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि किसको वोट देना है। यह पंजाब का अब तक सबसे मुश्किल चुनाव है। तमाम सीटें तीन, चार या पांच कोणीय मुकाबले में फंसी हैं। इस बीच जालंधर के पास स्थित दलित भाईचारे की सबसे बड़ी आस्था का केंद्र तकरीबन 70 साल पहले स्थापित डेरा सच्च खंड बल्लां की भूमिका बेहद अहम हो गई है। खासकर रविदासिया समाज में। इस डेरे के करीब 15 लाख से अधिक फालोअर हैं। 2009 में ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में तत्कालीन रविदासिया गुरु संत निरंजन दास और उनके नायब संत रामानंद दास पर जानलेवा हमले के बाद यह डेरा काफी चर्चा में आया था। इसमें संत रामानंद दास का निधन हो गया था, जिसके बाद पंजाब में काफी बवाल हुआ था। इस घटना के बाद यह पंथ सिखों से अलग हो गया था। डेरा सच्चखंड बल्लां में रोजाना दलित भाईचारे के हजारों लोग मत्था टेकने आते हैं। सत्संग में भाग लेते हैं। सामाजिक कार्यों में भी यह डेरा बड़ी भूमिका निभाता है। डेरा जाते वक्त ही सड़क के दोनों ओर लगी सोलर लाइटें इस बात का अहसास करा देती हैं कि हम किसी खास जगह जा रहे हैं। डेरे में गुरुवाणी की मधुर धुनों के बीच दलित भाईचारे के हजारों लोगों की मौजूदगी और उनके चेहरे पर सुकून के भाव देख यहां पर उनकी अगाध आस्था का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
डेरे के बाहर छोटी सी दुकान लगाए बैठे जगपाल सिंह और श्रीचंद वर्तमान सरकार को लेकर सवाल करते ही बोलने लगे कि यह दलित भाईचारे और दबे-कुचले लोगों की सरकार है। मुख्यमंत्री को काम करने का मौका ही नहीं मिला। फिर भी इन्होंने हमारे बिल माफ कर दिए। संकेत साफ था। यह सवाल पूछने पर कि अगली सरकार किसकी आएगी कहने लगे कि कोई भी आए हमें नौकरी और अच्छे स्कूल चाहिए। केजरीवाल के बारे में सवाल करने पर कहा कि हम उन्हें नहीं जानते। यहां बात बिल्कुल साफ समझ में आ जाती है कि दलित चेतना जबरदस्त है। संविधान निर्माता बाबा भीमराव अंबेदकर की तस्वीरें वहां बेंच रही राजरानी का कहना था कि हाथी तो जीतता है नहीं जो विकास करेगा उसे वोट दे देंगे। डेरे के बाहर ही मिले सूफी कव्वाल एसके सागर और मंजीत कुमार का कहना था कि पंजाब के दलित भाईचारे को पहला सीएम मिला है। तीन महीने में उन्होंने दिखा दिया है कि काम कैसे किया जाता है।
एक और तस्वीर साफ हुई जब दलित भाईचारे से आने वाले वहीं मिले होशियारपुर के गांव बट्टिया ब्राम्हणा के बख्शीराम ने कहा कि उनके गांव की करीब 500 की आबादी है। इसमें से तकरीबन साढ़े तीन सौ वोट पंजाब को मिले पहले दलित सीएम के पक्ष में जा सकते हैं। रिटायर्ड कर्मचारी बख्शीराम का कहना था कि बसपा का अकाली दल के साथ जाना अच्छा नहीं है। अकाली बहुत दबके मारते रहे हैं। अब यह नहीं चलेगा। अस्थायी सरकारी कर्मचारियों के पक्का करने के सवाल पर वह कहते हैं कि चन्नी ने तो 36000 कर्मचारियों को स्थायी करने के लिए लिख दिया था, लेकिन मोदी ने नहीं होने दिया। मोदी के कहने पर ही राज्यपाल ने रोड़े अटकाए।
अरविंद केजरीवाल के सवाल पर वह कहते हैं कि वह दावा करते हैं कि हमने दिल्ली में ये कर दिया। किसने दिल्ली में जाकर देखा है कि केजरीवाल ने वहां क्या किया। डेरे के बाहर ही दुकान लगाए पहली बार वोट देने जा रही नैंसी का कहना था कि महंगाई ने कमर तोड़ दी है। सिलेंडर, तेल सब कुछ महंगा है। पहले हमारी रसोई का खर्च महीने में छह हजार आता था, जो अब दस हजार हो गया है। जगमोहन और महेंदर का कहना था कि अकाली दल का इस बार काफी कम शोर है। किसानों की पार्टी को जो भी वोट मिलेंगे वह मालवा क्षेत्र के गांवों में ही मिलेंगे। शहरों में उनका कोई वोट नहीं है। दलितों की यह एकजुटता मतदान तक कायम रही तो पंजाब में बाजी पलटने वाली साबित होगी। यह दलितों की अहमियत ही है कि 16 फरवरी को रविदास जयंती के चलते पंजाब में मतदान की तारीख बढ़ाकर 20 फरवरी कर दी गई। इस पर पंजाब में सभी दल एकमत थे। करीब 80 लाख आबादी वाले दलित समाज की नाराजगी मोल लेने का खतरा कोई भी दल नहीं ले सकता था।
दलित समाज में भी रविदासिया और वाल्मीकि समाज की तादाद सबसे ज्यादा है। 117 सीटों वाली पंजाब विधानसभा की 23 सीटें दोआब क्षेत्र से आती हैं। जहां पर रविदास समाज के ही 12 लाख से अधिक लोग हैं। दोआबा की 23 में से 15 सीटें पिछली बार कांग्रेस ने जीती थीं। राज्य में 34 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, जो चार-पांच कोणीय मुकाबले में काफी अहम हैं। दलित वोटों में भागीदारी के लिए ही 25 साल बाद शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ एक बार फिर गठबंधन किया है। लेकिन बसपा को 2017 में 111 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद महज 1.5 प्रतिशत वोट ही मिला था। पार्टी का कोई भी उम्मीदवार दूसरे या तीसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच सका था।
दिलचस्प होंगे पंजाब की 34 आरक्षित सीटों के परिणाम
पंजाब में 34 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के प्रत्याशियों के लिए आरक्षित हैं, जिनके परिणामों पर इस बार सभी की नजर है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सबसे ज्यादा इसमें से 21 सीटें जीती थीं। आम आदमी पार्टी के हिस्से में 9, अकाली दल के तीन और भाजपा के हिस्से में एक सीट आई थी। ये सीटें हैं- पठानकोट की भोआ, गुरदासपुर की दीनानगर, गुरदासपुर की श्री हरगोबिंदपुर, अमृतसर की जंडियाला गुरु, अमृतसर वेस्ट, अटारी, बाबा बकाला, कपूरथला की फगवाड़ा, जालंधर की फिल्लौर, करतारपुर, जालंधर वेस्ट, आदमपुर, होशियारपुर की शाम चौरासी और चब्बेवाल, नवांशहर की बंगा, रोपड़ की चमकौर साहिब, फतेहगढ़ साहिब की बस्सी पठाना, लुधियाना की गिल, पायल, जगरांव, रायकोट, मोगा की निहाल सिंह वाला, फिरोजपुर की फिरोजपुर सीट, फाजिल्का की बल्लुआना, श्री मुक्तसर साहिब की मलोट, बठिंडा की भुच्चो मंडी और बठिंडा ग्रामीण, मानसा की बुडलाडा, संगरूर की दिड़बा, बरनाला की भदौड़ और महल कलां, पटियाला की नाभा व शुतराना।
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