नोटबंदी से पैदा हुए संकट के लिए प्रधानमंत्री मोदी जिम्मेदार: अरुण कुमार
अपनी किताब ‘ब्लैक मनी’ के लिए चर्चित रहे जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर अरुण कुमार भारत में काले धन की अर्थव्यवस्था की समझ रखने वालो में महत्वपूर्ण नाम माने जाते हैं। उनका विशेष साक्षात्कार।
आरबीआई की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि 99 प्रतिशत पुराने नोट बैंकों में वापस पहुंच गए हैं, जिसका अर्थ हुआ कि मोदी सरकार ने काले धन के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर झूठ फैलाया। इस संबंध में आप क्या कहेंगे?
आरबीआई द्वारा जारी वार्षिक रिपोर्ट बहुत महत्व नहीं रखती है, क्योंकि पूरे काले धन में नकद का हिस्सा केवल 1 प्रतिशत ही है। नोटबंदी का फैसला लेने वालों के साथ-साथ सबको यह पता था कि काले धन का 99 प्रतिशत हिस्सा वापस नहीं आने वाला है।
नोटबंदी का बुरी तरह विफल होना और बड़ी त्रासदी में तब्दील होना तय था। हमें यह समझना चाहिए कि काला धन होता क्या है। ज्यादातर लोग समझते हैं कि काला धन नकद में होता है, जबकि ऐसा नहीं है। काला धन नकद के अलावा चल-अचल संपत्तियों, सोने और जेवरों के रूप में भी होता है।
आरबीआई की यह रिपोर्ट सरकार के लिए शर्मिंदगी का सबब होने के साथ ही खुद आरबीआई के लिए भी शर्मसार होने की वजह है। शायद इसलिए सरकार अपने पैंतरे बदल रही है। अब वे कह रहे हैं कि नोटबंदी का लक्ष्य काले धन को वापस लाना नहीं था। सरकार का कहना है कि नोटबंदी का मकसद डिजिटल लेन-देन को बढ़ाना था। लेकिन सच्चाई यह है कि डिजिटल लेन-देन का नोटबंदी से कोई लेना देना नहीं है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली इतनी दृढ़ता से कैसे कह रहे हैं कि नोटबंदी का मुख्य लक्ष्य डिजिटल लेन-देन को बढ़ाना था?
डिजिटली लेन-देन के लिए आपके पास प्वाइंट मशीनें, हर जगह बिजली का कनेक्शन, इंटरनेट और अन्य जरूरी चीजें होनी चाहिए। इसके लिए एक विशाल बुनियादी ढांचे के साथ एक पूरी तरह सुरक्षित साइबर सुरक्षा प्रणाली की भी आवश्यकता होती है। बिना बुनियादी संरचना के डिजिटल लेन-देन कारगर नहीं हो सकता। इसमें वित्तीय जागरुकता एक और प्रमुख कारक है। डिजिटल लेन-देन के बारे में लोगों को जानना चाहिए और उन्हें इसकी जानकारी भी दी जानी चाहिए। मेरी समझ से इसका नोटबंदी से कोई लेना-देना नहीं है।
अमीरों ने अपनी काली कमाई बचा ली, जबकि गरीबों को सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ी। उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। गरीबों की नौकरी चली गई और जीवनयापन के अन्य साधन भी खत्म हो गए। गरीबों और असंगठित क्षेत्र पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
नोटबंदी लागू होने के 9 महीने बाद क्या आपको इसका कोई औचित्य समझ में आता है?
बुनियादी तौर पर यह एक राजनीतिक कदम था। मोदी का ख्याल था कि इससे वह एक रॉबिनहुड की तरह देखे जाएंगे, जो अमीरों से छीन कर गरीबों में बांटा करता है।
लेकिन जैसा सोचा गया था, वैसा हुआ नहीं। अमीरों ने अपनी काली कमाई बचा ली, जबकि गरीबों को सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ी। उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। गरीबों की नौकरी चली गई और जीवनयापन के अन्य साधन भी खत्म हो गए। गरीबों और असंगठित क्षेत्र पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
हमारे असंगठित क्षेत्र 93 प्रतिशत रोजगार और 45 प्रतिशत उत्पादन उपलब्ध कराते हैं। गरीब नकद आधारित असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, इसलिए उन पर सबसे बुरा असर पड़ा।
इसी वजह से नवंबर-दिसंबर के महीने में मनरेगा के तहत काम की लगभग 3-4 गुणा मांग बढ़ गई। कई लोगों को लगता है कि अगर सरकार ने मनरेगा का पैसा जारी कर दिया होता तो यह मांग और बढ़ जाती।
उस समय आए कई सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई कि असंगठित क्षेत्र को 70 से 80 प्रतिशत का नुकसान हुआ। इसका मतलब हुआ कि उनके उत्पादन और रोजगार में भारी गिरावट आई।
इसकी वजह से ही अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर गई। मंडियों में अपना सामान नहीं बेच पाने के कारण किसान बुरी तरह प्रभावित हुए। वे अपने कर्ज की अदायगी भी नहीं कर सके। नोटबंदी के दौरान किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई। एक वाक्य में कहा जाए तो नोटबंदी ने पूरे देश में किसानों के लिए संकट खड़ा कर दिया।
लेकिन मोदी सरकार ने दावा किया है कि नोटबंदी का विकास पर सबसे कम प्रभाव पड़ा। क्या आप सहमत हैं?
मेरे अपने आकलन के अनुसार पिछले वर्ष अर्थव्यवस्था की विकास दर सरकार के 6 प्रतिशत के दावे की बजाय गिरकर शून्य प्रतिशत के करीब पहुंच गई थी। पहले 7 महीनों में अक्टूबर तक विकास दर 7 प्रतिशत रहा, लेकिन उसके बाद यह नीचे गिर गया। अगर आप दोनों को मिला दें तो यह शून्य प्रतिशत के आसपास रहेगा।
आंकड़े बताते हैं कि निजी क्षेत्र में लाभ की दर में गिरावट आई है। आरबीआई के अनुसार क्षमता उपयोग में 70 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसकी वजह से निवेश में भी भारी कमी हुई है। क्षमता के उपयोग में जब गिरावट आती है तो निवेश धीमा हो जाता है। इस साल फिर से विकास दर पर इसका प्रभाव देखने को मिलेगा।
नोटबंदी के बाद मोदी सरकार ने सबसे बड़े कर सुधार के तौर पर जीएसटी को लागू किया। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
नोटबंदी के बाद जीएसटी ने विकास दर पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। नोटबंदी और जीएसटी पिछले एक साल में अर्थव्यवस्था में की गई सबसे बड़ी भूलें हैं। इनकी वजह से ही पूरी अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर रोक लग गई। 2016 के अक्टूबर में क्रेडिट ऑफटेक केवल 5 प्रतिशत था, जो कि पिछले 50 वर्षों के दौरान सबसे कम था। और फिर नवंबर-दिसंबर में यह और नीचे चला गया जो 60 वर्ष का सबसे निम्न स्तर था। इस वर्ष जुलाई में इसमें और गिरावट आ गई। इसका अर्थ हुआ कि निवेश में फिर से कमी आई है। इसलिए मेरी राय में जीएसटी हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी समस्या खड़ी करेगा।
क्या जीएसटी लागू करने का फैसला भी राजनीतिक फैसला था?
जीएसटी राजनीतिक फैसला नहीं था। इस पर तो पिछले दस सालों से विचार चल रहा था। ये पुराना मुद्दा था। इसकी शुरुआत एनडीए-1 के दौरान हो गई थी, जिसे बाद में यूपीए ने अपने दोनों कार्यकालों को दौरान आगे बढ़ाया।
लेकिन मुद्दे की बात ये है कि जीएसटी लागू होने के बाद भी असंगठित क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों या व्यापारियों के पास इतना पैसा नहीं है कि कंप्यूटर लगवाएं, इंटरनेट का बिल दें। इसलिए ये फैसला असंगठित क्षेत्र के लिए बुरा है।
इसके लिए खुद प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं। आपको याद होगा कि 8 नवंबर के अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि वह इसकी जिम्मेदारी लेते हैं। उन्होंने कहा था कि अगर कुछ गलत होता है तो वह जनता का दंड भुगतने के लिए तैयार हैं। हालांकि बाद में उन्होंने अपना तर्क बदल दिया और कहा कि दिसंबर के बाद समस्याएं कम हो जाएंगी, लेकिन समस्याएं बदस्तूर जारी रहीं।
नोटबंदी से मची तबाही के लिए कौन जिम्मेदार है, प्रधानमंत्री मोदी या वित्त मंत्री अरुण जेटली?
इसके लिए खुद प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं। आपको याद होगा कि 8 नवंबर के अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि वह इसकी जिम्मेदारी लेते हैं। उन्होंने कहा था कि अगर कुछ गलत होता है तो वह जनता का दंड भुगतने के लिए तैयार हैं। हालांकि बाद में उन्होंने अपना तर्क बदल दिया और कहा कि दिसंबर के बाद समस्याएं कम हो जाएंगी, लेकिन समस्याएं बदस्तूर जारी रहीं। इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री ने किसी से सलाह-मशविरा नहीं किया था। किसी भी देश के प्रधानमंत्री का ये रवैया उस देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। उनके इस रवैये के बाद आरबीआई की भूमिका पर, वित्त मंत्री की भूमिका पर, प्रधानमंत्री की भूमिका पर गहरे सवाल खड़े हो गए हैं।
नोटबंदी के संदर्भ में आप आरबीआई की भूमिका को कैसे देखते हैं?
नोटबंदी का फैसला इससे पहले भी एक बार 1978 में लागू किया गया था। उस वक्त आईजी पटेल रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। उन्होंने उसी वक्त कह दिया था कि नोटबंदी का फैसला देश के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ता है।
इससे कोई सीख नहीं ली गई। इस बार लागू करते समय किसी ने कोई सलाह नहीं ली। आरबीआई की सबसे बड़ी गलती ये रही कि उसने सरकार को नहीं बताया कि इसक अर्थव्यवस्था पर क्या नकारात्मक असर पड़ने वाला है। और इस असर को कम करने के लिए आरबीआई ने क्या तैयारी की है ये सरकार को नहीं बताया गया। बैंकों ने कोई तैयारी नहीं की थी।
नोट की छपाई नहीं हुई थी। एटीएम मशीनों को नए नोट के मुताबिक ढाला नहीं गया था। इस फैसले से संबंधित सारे अहम विभागों, मंत्रालयों से किसी तरह का कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया था। मेरा मानना है कि एक संस्थान के तौर पर आरबीआई की भूमिका को कमतर करने के लिए भी प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं।
ऐसा कहा जाता है कि नोटबंदी का फैसला कुछ बड़े घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया था। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि इसे काले धन को सफेद करने के लिए लागू किया गया था?
नोटबंदी से हर कोई प्रभावित हुआ। ऐसा माना जा रहा है कि लंबे वक्त में बड़े घरानों को और संगठित, निजी क्षेत्र को फायदा पहुंचेगा क्योंकि असंगठित क्षेत्र को जबरदस्त नुकसान हुआ। लेकिन पुख्ता तौर से ये नहीं कहा जा सकता कि इसके पीछे मंशा क्या थी। कुछ लोग कहते हैं कि पेटीएम जैसी ऑनलाइन पेमेंट कंपनियों ने नोटबंदी से खूब पैसा बनाया। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि किसी अमेरिकी कंपनी ने नोटबंदी और डिजिटाइजेशन के लिए दबाव बनाया।
नोटंबदी की मार से उबरने में हमारी अर्थव्यवस्था को कितना वक्त लगेगा?
ये इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी सरकार क्या कदम उठाती है। जहां तक निजी क्षेत्र का संबंध है इसमें निवेश कम हुआ। जीएसटी ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है। अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के लिए सरकार को भारी निवेश लाना होगा। इसके लिए बुनियादी ढांचे में भारी निवेश लाना होगा। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में खूब निवेश करना होगा जिससे रोजगार पैदा हों और अर्थव्यस्था फिर से मजबूत हो सके।
अर्थव्यस्था के मोर्चे पर मोदी सकार के प्रदर्शन को आप कैसे आंकते हैं?
देखिए, यूपीए-2 के दौरान देश नीति के संकट का शिकार था। उस दौरान भ्रष्टाचार की शिकायते आईं। कई सारे घोटाले सामने आ रहे थे। इसका असर चुनाव में देखने को मिला। लोगों ने एनडीए को पूर्ण बहुमत से सत्ता सौंपी। लेकिन हुआ क्या? हुआ ये कि नारे तो बहुत से मिले, लेकिन जमीन पर काम नहीं हुआ। स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया जैसे नारे सुनने में बहुत अच्छे हैं, लेकिन सवाल ये है कि आप इसे हासिल कैसे करेंगे। आपका रोडमैप क्या है? जब तक मांग नहीं बढ़ती, निवेश नहीं आता, मोदी सरकार के कार्यों का मूल्यांकन नकारात्मक रहेगा।
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Published: 01 Sep 2017, 5:39 PM