मोदी सरकार में ‘आय असमानता’ आंकड़ों से कहीं ज्यादा, पीड़ितों का सब्र टूटा तो गजब हो जाएगा
मोदी सरकार में बताई जा रही आर्थिक विकास दर संदिग्ध है और सभी पैमाने बता रहे हैं कि इसे कृत्रिम तरीके से बढ़ा-चढ़कर दिखाया जा रहा है। पूंजीगत व्यय को अर्थव्यवस्था की गति की कुंजी माना जाता है और इस मामले में हालत बेहद निराशाजनक है।
विकास अनिवार्य रूप से विजेता और पराजित, दोनों तरह का वर्ग तैयार करता है और कम से कम शुरुआती दौर में समाज में आर्थिक विषमता तो पैदा करता ही है। भारत के संदर्भ में आज यह बात एकदम सही बैठती है। सरकारी आंकड़े जो भी बताते हों, वास्तविक आय असमानता उससे कई गुणा ज्यादा है। तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि असमानता को मापने वाला गिनी सूचकांक भारत में 0.65 है, जो दुनिया में सर्वाधिक है।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में आर्थिक प्रदर्शन बड़े निराशाजनक रहे। मोदी का कार्यकाल नौकरी सृजन के मोर्चे पर बुरी तरह विफल रहा है और सरकार मुद्रा ऋण के आंकड़ों, ईपीएफ का लाभ उठाने वालों की संख्या में भारी वृद्धि जैसे भारी-भरकम किंतु अतार्किक दलीलों की बदौलत अपनी नाकामी छिपाने की कोशिश कर रही है।
बड़ी सीधी सी बात है कि जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी अभी 13% है और यह लगातार गिर रही है। जबकि आज भी लगभग 60% आबादी के लिए खेती-किसानी ही जीविका का स्रोत है। भारत विश्व अर्थव्यवस्था की बड़ी ताकत बनने की दौड़ में है, लेकिन देश की बड़ी आबादी इसमें पीछे छूट गई है।
वास्तव में यह एक कड़वी सच्चाई है। साल 2012 से ही जीडीपी के अनुपात के रूप में बचत घटती जा रही है और मोदी सरकार अब तक इस रुख को बदलने में नाकामयाब रही है। इसका नतीजा है कि जीडीपी की तुलना में कर संग्रह और निवेश में भी गिरावट आ रही है। बताई जा रही आर्थिक विकास दर संदिग्ध है और सभी पैमाने बता रहे हैं कि इसे कृत्रिम तरीके से बढ़ा-चढ़कर दिखाया जा रहा है।
पूंजीगत व्यय को अर्थव्यवस्था की गति की कुंजी माना जाता है और इस मामले में हालत निराशाजनक है। बैंक से लिए ऋण पर चलने वाली परियोजनाओं में खासी कमी आ रही है और 2014 की तुलना में 2018 में ऐसी परियोजनाओं पर खर्च राशि आधी होकर 600 अरब रुपये से भी कम हो गई है। बाजार द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं की तो ऐसी की तैसी हो गई है।
इस वजह से विनिर्माण और जीडीपी का अनुपात 15 फीसदी रह गया है। कॉरपोरेट और जीडीपी का अनुपात 2.7 फीसदी के स्तर तक गिर गया है जो 15 वर्षों में न्यूनतम है। अगर ये सब पैमाने गिर रहे हों तो पर्याप्त संख्या में नौकरियां पैदा हो ही नहीं सकतीं। घटता ग्रामीण मजदूरी सूचकांक इस बात की तस्दीक भी कर रहा है।
अनाज की अपेक्षाकृत कम कीमत मांग में आई कमी को प्रतिबिंबित करती है और इस कारण किसानों की परेशानी और बढ़ गई है। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी बड़े अंतर से चुनाव जीत गए हैं। दो सौ से ज्यादा लोकसभा क्षेत्रों में बीजेपी ने डाले गए वोटों में 50 फीसदी से अधिक पाए। आखिर ये हो क्या रहा है?
1973 में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रख्यात अर्थशास्त्री अल्बर्ट ओ. हिर्चमैन का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था- ‘आर्थिक विकास के साथ उत्पन्न आर्थिक विषमता के प्रति बदलती सहिष्णुता’। इस पत्र में हिर्चमैन कहते हैं, ‘अर्थव्यवस्था के शुरुआती चरण में जब विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों के बीच आय असमानता के बढ़ने का रुख होता है, इस असमानता के प्रति समाज एक तरह से सहिष्णु होता है। सहिष्णु होने की वजह यह होती है कि उन्हें महसूस होता है कि यह असमानता एक न एक दिन खत्म हो जाएगी। लेकिन अगर यह असमानता कम होती नहीं दिखती है तो एक समय ऐसा आता है जब लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाती है।’
अपनी इस दलील को उन्होंने एक ड्राइवर का उदाहरण देकर समझाया। दो लेन की किसी सुरंग में अगर एक लेन की गाड़ियां बढ़ने लगती हैं तो दूसरे लेन में जाम में फंसे एक ड्राइवर में पहले तो उसकी लेन के जाम के भी खुल जाने की उम्मीद बंधती है और वह धैर्य से इंतजार करने लगता है। लेकिन अगर उसकी लेन लंबे समय तक नहीं खुलती तो उसका धैर्य जवाब दे जाता है और वह दूसरे लेन में घुसने की कोशिश करने लगता है और इस तरह थोड़ी ही देर में वहां अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है। भारत में हम आए दिन ऐसी स्थिति देखते हैं जब लोग लेन बदलने की कोशिश करते हैं और फिर लंबा जाम लग जाता है।
भारत के मामले में यह एकदम स्पष्ट है कि एक लेन में सबकुछ बढ़िया है। इतना बढ़िया कि ऑक्सफैम की रिपोर्ट खुलासा करती है कि पिछले पांच साल के दौरान महज 1 फीसदी लोगों के हिस्से 73 फीसदी विकास आया। इसका यह मतलब नहीं कि मुंबई और दिल्ली के नामचीन कारोबारी ही सारा लाभ उठा रहे हैं। सरकारी नौकरी वालों की संख्या 2.5 करोड़ के आसपास है और ये लोग उच्च आय वर्ग में शुमार हो गए हैं।
निजी और संगठित क्षेत्रों में ऐसे लोगों की संख्या करीब 1 करोड़ है। उच्च आयवर्ग की इस पूरी आबादी में 17.5-20 करोड़ (एक परिवार में सदस्यों की संख्या पांच मानें तो) से अधिक लोग नहीं आते। हम जिस खपत का बखान करते नहीं अघाते, वह इन्हीं लोगों तक सीमित है। और भारत के सामने इस आयवर्ग में आने वाले लोगों की संख्या को बढ़ाने की चुनौती है। वैसे, यह काम उतना आसान नहीं, क्योंकि हमारी श्रम शक्ति का पांचवां हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है और इनमें से ज्यादातर अशिक्षित और हुनर से वंचित हैं।
इन करोड़ों लोगों के लिए नौकरी के अवसर पैदा करने का व्यावाहिरक उपाय हाउसिंग और ग्रामीण बुनियादी ढांचा जैसे श्रम आधारित क्षेत्रों से ही आ सकता है। इसके लिए सरकार को पूंजी व्यय के स्तर को अप्रत्याशित तरीके से बढ़ाना होगा। यह मामला सीधे तौर पर बचत और जीडीपी अनुपात से जुड़ा है। मेरा सुझाव है कि प्रधानमंत्री कर संग्रह- जीडीपी, पूंजी व्यय-जीडीपी, निवेश-जीडीपी के अनुपातों को बढ़ाने और आय असमानता को घटाने पर ध्यान केंद्रित करें, तभी बात बनेगी।
आज हम पूर्वी यूपी, बिहार, ओडिशा और पूर्वोत्तर से दक्षिण भारत की ओर लोगों का पलायन देख रहे हैं, जहां जनसंख्या वृद्धि की दर नाटकीय रूप से धीमी हो गई है और उम्रदराज लोगों की बढ़ती आबादी की वजह से यह एक समस्या हो गई है। सोशल मीडिया पर चटकारे लेकर इस मुद्दे पर चर्चा होती है, लेकिन यह समझना चाहिए कि दक्षिण भारत में आ रहे इन लोगों को “घुसपैठिया” कहकर निकाला नहीं जा सकता।
इत्तेफाक से बांग्लादेश से भारत में हो रहे लोगों के पलायन पर उच्च जाति और हिंदुओं की त्योरियां चढ़ जाती हैं। जब हम आरएसएस, बीजेपी और उनके सहयोगी संगठनों को “घुसपैठियों” के खिलाफ रोष जताते सुनते-देखते हैं, तो वे वास्तव में मुसलमानों को निशाना बना रहे होते हैं। विडंबना तो यह है कि एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2025-30 के बीच बांग्लादेश में प्रति व्यक्ति आय भारत से अधिक हो जाएगी।
यह एक ऐसा विषय है जिसपर हमें विचार करना होगा, न कि रटंत तोते की तरह खुद को सबसे तेजी से बढ़ती “प्रमुख” अर्थव्यवस्था कहकर बैठ जाना होगा। भारत का नेतृत्व करना निश्चित रूप से दुनिया का सबसे टेढ़ा काम है। यह देखते हुए मामला और जटिल हो जाता है कि आपको शुरुआत कहां से करनी है। जो भी हो, नौकरी के अवसर पैदा करने के उपाय तो करने ही होंगे क्योंकि अगर सुरंग की लेन में फंसे ड्राइवर का धैर्य अगर दूसरी लाइन से एक के बाद एक आगे निकलती गाड़ियों को देखकर टूट गया, तो सचमुच मुश्किल हो जाएगी। यह देखने वाली बात होगी कि दूसरी लाइन के जाम को खोलने के लिए मोदी के पास कितना वक्त बचा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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