अर्थव्यवस्था की “चुनौतियों” के लिए सरकार को चाहिए ‘वियाग्रा’
देश की आर्थिक हालत खराब है। यह बात सरकार सार्वजनिक तौर पर मान चुकी है कि अर्थव्यवस्था इस समय “चुनौतियों” से जूझ रही है। इसे पटरी पर लाने के लिए “वियाग्रा” की जरूरत है।
सुस्त पड़ी तरक्की को रफ्तार देने के लिए सरकार आर्थिक प्रोत्साहन और बैंकों में पूंजी लगाने की तैयारी कर रही है। रॉयटर ने दो सरकारी अधिकारियों के हवाले से कहा है कि सरकार 50 हजार करोड़ के पैकेज की तैयारी में है।
लेकिन, आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने का क्या यह सही कदम है? इस कदम से वित्तीय घाटे की खाई चौड़ी होगी और यह लक्ष्य से करीब आधा फीसदी बढ़ जाएगा। 2017-18 के बजट में इस घाटे का लक्ष्य जीडीपी का 3.2 रखा था, जो इस कदम से 3.5 फीसदी तक पहुंच सकता है। दूसरा सवाल यह है कि इस पैकेज को खर्च कहां किया जाएगा? क्या सरकार कोई ऐसी योजना बना रही है जिससे रोजगार पैदा हों? सरकार ने संकेत दिए हैं कि सरकारी खर्च बढ़ाना होगा। लेकिन, क्या इससे वित्तीय अनुशासन नहीं गड़बड़ाएगा?
वित्त मंत्री मोदी सरकार के साढ़े तीन साल बाद भी रोना रो रहे हैं कि, “हमें तो ये सब विरासत में मिला है।” तो क्या सरकार को आर्थिक अनुशासन में रहना नहीं आता? अब वह फार्मूला अपनाने की तैयारी है जिसे आम बोलचाल में ‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया’ कहा जाता है। यह वही फार्मूला है जो 2013 में अमेरिका ने अपनाया था और जिसे आर्थिक जगत में “टेपर टैंटरमम” कहते हैं। भारत में इसका असर भुगतान संतुलन बिगड़ने के हालात पैदा कर देता है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि सरकार 2017-18 में घोषित खर्च से आगे की बात कर रही है और इससे राजकोषीय घाटा 3.2 फीसदी के लक्ष्य से बढ़कर 3.5 फीसदी तक पहुंच सकता है। राजकोषीय घाटा वह होता है जो सरकार को सभी संसाधनों से होने वाली आमदनी और खर्च का अंतर होता है।
रायटर की रिपोर्ट में जब इस वित्तीय घाटे की बात कही गयी तो सरकार के आला अधिकारियों का कहना था कि वित्तीय घाटे की संख्या कोई पवित्र वाक्य नहीं है जिसे बदला नहीं जा सकता। सही है, लेकिन इससे यह तो पता चल ही जाता है कि मौजूदा सरकार वित्तीय शासन में पूरी तरह नाकाम रही है।
दरअसल सरकार की यह घबराहट इसलिए है क्योंकि देश की तरक्की की रफ्तार तीन साल के सबसे निचले स्तर 5.7 फीसदी पर पहुंच गयी है और रोजगार के अवसर ठप पड़े हैं। अपने तमाम भाषणों में जिस एक “डी” यानी डेमोग्राफिक डिविडेंड का नरेंद्र मोदी बखान करते नहीं थकते थे, वही डिविडेंड उनके गले की फांस बन गया है क्योंकि रोजगार लायक जनसंख्या तो बहुत बड़ी है देश में, लेकिन उसे रोजगार देने में मोदी सरकार नाकाम रही है।
सरकार को यह समझने की जरूरत है कि 50 हजार करोड़ का यह राहत पैकेज अस्थाई हल तो शायद हो सकता है, लेकिन समस्या के स्थाई समाधान के लिए यह कदम आने वाले समय में गले की फांस बन सकता है। इसका कारण यह है कि नोटबंदी के बाद बहुत सारे छोटे और मझोले कारोबार बंद हो चुके हैं, और जो बचे थे उनमें से भी ज्यादातर जीएसटी की मार सह रहे हैं और धंधा चौपट हो गया है। इसका असर यह हुआ कि टैक्स की मद में सरकार को मिलने वाले पैसे में जबरदस्त कमी आयी है।
ब्लूमबर्ग क्विंट को दिए एक इंटरव्यू में जे पी मॉर्गन के इकॉनॉमी रिसर्च हेड जहांगीर अजीज ने चेताया है कि वित्तीय राहत पैकेज भारतीय अर्थव्यवस्था की आँख में आंसू लाने वाले ही साबित होते रहे हैं क्योंकि इससे वित्तीय घाटा तो बढ़ता ही है, महंगाई बेकाबू होती है और मुद्रा बाजार हिचकोले खाने लगता है। अजीज का कहना है कि 2013 में वैश्विक मंदी काबू से बाहर होने के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने यही कदम उठाया था और नतीजा यह हुआ था कि हम इसके जाल में फंस गए थे, जिससे उबरने में हमें बहुत वक्त लगा।
गिरती विकास दर को थामने और उसे फिर से पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे वित्त मंत्री जेटली ने माना है कि राजकोषीय अनुशासन को बनाए रखना एक चुनौती है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है
जिसे लेकर चिंतित हुआ जाए। वित्त मंत्री ने कहा, ' आप अर्थव्यवस्था में खर्च जारी रखने, बैंकों को समर्थन देते रहने के साथ-साथ राजकोषीय समझदारी के साथ संतुलन कैसे बनाते हैं?' जेटली ने कहा कि मुझे लगता है कि फिलहाल हम राजकोषीय समझदारी बनाए रखने की चुनौती का सामना कर रहे हैं।
ब्लूमबर्ग इंडिया इकनॉमिक फोरम में बोलते हुए जेटली ने कहा कि सरकार अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के उपायों पर विचार कर रही है। हालांकि उन्होंने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि सरकार अर्थव्यवस्था के लिए पैकेज का ऐलान करेगी या नहीं।
देश की आर्थिक स्थिति पर विशेषज्ञों की चौकस नजर है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन ने भी कहा है कि जिस पैकेज से सरकार अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहती है, उसमें आंशिक तौर पर पूंजीगत व्यय बढ़ाने की बात होनी चाहिए और निजी निवेश बढ़ने के रास्ते की रुकावटें दूर करने पर ध्यान देना चाहिए। एसोचैम द्वारा आयोजित 10वें अंतर्राष्ट्रीय स्वर्ण शिखर सम्मेलन से इतर रंगराजन ने संवाददाताओं से कहा, "मेरी राय में पैकेज का इस्तेमाल सरकार के पूंजीगत व्यय को आंशिक तौर पर बढ़ाने के लिए होना चाहिए, लेकिन जिस भी तरह से यह निजी निवेश को बढ़ावा दे, वही उपयुक्त तरीका होगा।" उन्होंने कहा कि विकास दर में गिरावट के साथ निवेश दर में गिरावट आई है। रंगराजन ने कहा, "ज्यादा गंभीर बात यह है कि निजी निवेश गिरा है।"
इस बीच कांग्रेस ने जीडीपी में तेजी के सरकार के पहले के दावे पर तंज कसते हुए कहा है कि दरअसल सरकार की वृद्धि का मतलब गैस, डीजल और पेट्रोल (जीडीपी) की कीमतों में बढ़ोत्तरी से था। और यह तो सब बढ़ ही रहा है। कांग्रेस ने कहा कि लेकिन सरकार को अब महसूस हुआ है कि अर्थव्यवस्था को वियाग्रा की जरूरत है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने कहा, "वे कहते थे कि हमारी जीडीपी बढ़ेगी। इस वृद्धि का असली अर्थ गैस, डीजल और पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि से है। यही जीडीपी है। उन्होंने कहा, "आम आदमी का बोझा कम करने के बजाए वे उसका बोझा और बढ़ाते जा रहे हैं। और उनके मंत्री भूखा नहीं है'।" सिब्बल ने कहा, "इस सरकार के घमंड और आचरण को तो देखिए।"
लेकिन वित्त मंत्री उलटा ही वार करते हैं। उनसे जब पूछा गया कि क्या देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति एक चुनौती है? जेटली ने कहा कि अर्थव्यवस्था का प्रबंधन कभी आसान नहीं है, क्योंकि हरेक दिन एक चुनौती है। उन्होंने कहा, "हरेक दिन एक चुनौती है। अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में कोई दिन आसान नहीं होता। लेकिन हमने एक सक्रिय लोकतंत्र में जीना सीखा है, क्योंकि जो आरामतलबी टिप्पणीकारों के पास है, वह हमारे पास नहीं है। हमें तय करना है कि किस मार्ग पर जाना है।"
सवाल यह है कि 56 इंच के सीने वाली सरकार अब क्यों बोल रही है कि अर्थव्यवस्था में चुनौतियां हैं? अभी तक यह खुद को विकास का चैंपियन कहते रहे हैं। लेकिन शायद अहंकार ने इन्हें आर्थिक अनुशासन सीखने समझने भी नहीं दिया है। वर्ना साढ़े तीन साल कम नहीं होते हालात को काबू करने के लिए।
हम सब बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं-
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत-जात के, सिल पर परत निशान ।।
यानी जिस प्रकार बार-बार रस्सी के आने जाने से कठोर पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं, उसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने पर मूर्ख व्यक्ति भी एक दिन कुशलता प्राप्त कर लेता है। लेकिन कुशलता तो तब आए जब यह सरकार मानने को तैयार हो कि आर्थिक हालात बेहतर करना इसके बस में नहीं है और इसे सिर्फ विकास के सपने दिखाना ही आता है।
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