बजट: नए तो छोड़िए, पिछले वादे ही पूरे करने का खाका नहीं है मोदी सरकार-2 के पास
मोदी सरकार के पास वित्तीय संकट से निपटने का खाका ही तैयार नहीं है। एक अनार है और पूरी अर्थव्यवस्था बीमार वाली स्थिति है। किसानों और खेती को लेकर भी दावे और वादों की लंबी फेहरिस्त है। लेकिन उसके बाद भी कृषि की हालत साल-दर-साल खराब होती जा रही है।
मोदी सरकार-2 का पहला पूर्ण बजट आने में अब कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन निराशाजनक आर्थिक खबरें थमने का नाम ही नहीं ले रही हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार कृषि, वानिकी, मत्स्यपालन, खनन, बिजली, गैस विनिर्माण, औद्योगिक उत्पादन आदि की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। इन सभी क्षेत्रों में आर्थिक वृद्धि दर में ढलान है। कॉरपोरेट जगत की बिक्री पिछले पांच सालों के निचले स्तर के दूसरे पायदान पर पहुंच गई है।
राष्ट्रीय सैंपल सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक, बेरोजगारी पिछले 45 सालों के चरम पर है। बढ़ते खराब कर्ज से बैंकों की उधार देने की क्षमता और इच्छा कम हुई है। गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों का संकट विस्फोट की दहलीज पर खड़ा है। भारतीय रिजर्व बैंक पर इस संकट को सुलझाने की मूल जिम्मेदारी है, पर उसने मानो इस संकट से हाथ ही खड़े कर दिए हैं। त्रासदी यह है कि मोदी सरकार के पास इस वित्तीय संकट से कैसे निपटा जाए, इसका खाका ही तैयार नहीं है।
देश में कृषि की स्थिति में कोई सुधार नहीं है। किसानों को सालाना छह हजार रुपये की नकद सहायता से बीजेपी को किसानों का वोट अवश्य मिला हो, पर कृषि विशेषज्ञ यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आय की समस्या से ग्रस्त कृषि संकट को सुलझाने में इससे तनिक भी सहायता मिलेगी। बुनियादी ढांचे की विलंब से चल रही अनेक परियोजनाओं में खरबों रुपये अटके पड़े हैं।
अर्थव्यवस्था के हर हितधारक (स्टेक होल्डर) को आगामी बजट में वित्त मंत्री से भारी अपेक्षाएं हैं। इनमें से कइयों ने वित्त मंत्री के साथ बजट पूर्व बैठकों में अपनी मांगों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त भी उन्हें थमा दी है। इन फेहरिस्त को देख कर लगता है कि एक अनार है और पूरी अर्थव्यवस्था ही बीमार है।
दरअसल अचानक मोदी सरकार के बनावटी बुनियादी आंकड़ों का गुब्बारा फटने से यह हाहाकार मचा है। वित्त मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने पिछली मोदी सरकार के विकास संबंधी दावों को इस आधार पर कटघरे में खड़ा कर दिया है कि आर्थिक विकास दर को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। असल में वह औसत रूप से ढाई फीसदी कम है। जब से सकल घरेलू उत्पाद की गणना पद्धति बदली गई है, तब से ही वह विवादों के घेरे में है, जिसके भयावह नतीजे अब सबके सामने हैं।
विकास का इंजन माना जाने वाला ऑटो सेक्टर वृद्धि दर की ऐतिहासिक गिरावट से जूझ रहा है। ट्रैक्टर और दो पहिया वाहनों की मांग में अपेक्षित उठान नहीं है। उपभोक्ता सामानों की मांग कमजोर बनी हुई है। नतीजा यह है कि बाजार सामानों से अटे पड़े हैं और क्रय शक्ति अभाव में खरीदार गायब हैं। बढ़ते स्टॉक के कारण अब कई कंपनियों ने उत्पादन में कटौती करने का निर्णय लिया है।
कैसे बढ़े उपभोग का स्तर
जीडीपी कुछ भी रही हो, लेकिन आज अर्थव्यवस्था के सभी सरकारी और गैर सरकारी हाकिम एक मत हैं किअर्थव्यवस्था में पसरी जड़ता को तोड़ने का एक ही नुस्खा है कि अर्थव्यवस्था में उपभोग का स्तर बढ़ाया जाना चाहिए। उपभोग स्तर बढ़ाने के लिए आम जनता की क्रय शक्ति बढ़ाना अनिवार्य शर्त है। इसको बढ़ाने के लिए दो ही सर्वमान्य उपाय हैं- मौद्रिक नीति और राजकोषीय यानी सरकार की आय-व्यय नीति।
पिछले एक साल में भारतीय रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति के तहत तीन बार ब्याज दरों में कमी कर चुका है। पर यह कटौती अर्थव्यवस्था में उपभोग स्तर को उठाने में असमर्थ रही है। सस्ते कर्ज ही केवल अर्थव्यवस्था को मंदी से नहीं उबार सकते हैं। सरकारी आय-व्यय के माध्यम से आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ाने का कार्य ज्यादा त्वरित और कारगर ढंग से सरकार कर सकती है। करों से राहत और प्रत्यक्ष नकद सहायता बढ़ा कर मध्यम वर्ग, किसानों और मजदूरों की क्रय शक्ति बढ़ाने का सुलभ तरीका है और यह काम मोदी सरकार आसानी से बजट के माध्यम से कर सकती है।
वादा निभाएगी सरकार?
प्रत्यक्ष करों, यानी आयकर और कॉरपोरेट टैक्स में राहत देने का वादा बीजेपी का बरसों पुराना है। 2009 में बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह आयकर छूट सीमा को बढ़ा कर तीन लाख रुपये सालाना कर देगी और सैन्य तथा अर्द्धसैन्य बलों को आय कर से मुक्त कर दिया जाएगा। बीजेपी ने अब तक यह वादा पूरा नहीं किया है।
अंतरिम बजट में आय कर में तकरीबन तीन करोड़ आयकर दाताओं को साढ़े 18 हजार करोड़ रुपये की राहत देने के बाद अपने चुनावी संकल्प पत्र में बीजेपी ने वादा किया था कि मध्य आय परिवारों के हाथों में अधिक नकदी और अधिक क्रय शक्ति सुनिश्चित करने के लिए वह टैक्स स्लैब और कर लाभों को संशोधित करने के लिए प्रतिबद्ध है। आम जनों की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए बीजेपी को अपना पुराना वादा निभाने का मौका भी है और दस्तूर भी।
आय कर छूट सीमा को बढ़ाकर तीन लाख रुपये सालाना करने से तकरीबन 6 करोड़ आयकर दाताओं को लाभ मिलेगा और मध्य वर्ग की क्रय शक्ति में जबरदस्त बढ़ोतरी होगी। उपभोग और मांग बढ़ने से सरकार को कर संग्रह बढ़ाने में भारी मदद मिलेगी, यानी आयकर में राहत देने के बाद भी केंद्र सरकार के राजस्व में कमी आने की जगह बढ़ोतरी ही होगी।
इसके अलावा आयकर की धारा 80 सी के तहत डेढ़ लाख रुपये के निवेश पर कर छूट मिलती है। इस छूट को बढ़ा कर दो लाख रुपये सालाना की मांग अरसे से हो रही है। इस सीमा को बढ़ाने का दोहरा लाभ है। इससे घरेलू बचत भी बढ़ेगी जो पिछले कई सालों से गिर रही है और सरकार को दीर्घकालिक कर्ज जुटाने के अवसर बढ़ जाते हैं, जिसके बिना आज किसी सरकार का चलना असंभव है।
काॅरपोरेट जगत की आशा
कॉरपोरेट जगत को 2015-16 के बजट भाषण में कॉरपोरेट टैक्स को 30 फीसदी से 25 फीसदी करने का भरोसा दिया गया था। 250 करोड़ रुपये टर्नओवर वाली कंपनियों के लिए कॉरपोरेट टैक्स 25 फीसदी कर दिया गया, लेकिन बड़ी कंपनियां अब भी इस कटौती से वंचित हैं जिनका कॉरपोरेट टैक्स संग्रह में सबसे ज्यादा योगदान है। देश के सभी कॉरपोरेट संगठनों ने कॉरपोरेट टैक्स को 18 फीसदी करने की पुरजोर मांग की है। इनका तर्क है कि टैक्स दर कम होने से निवेश के लिए बड़ी मात्रा में धन उपलब्ध हो सकेगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले पांच सालों में निजी निवेश में भारी गिरावट आई है जो बेरोजगारी का एक बड़ा कारण बताया जाता है।
किसानों से किया वादा
किसानों और खेती को लेकर मोदी सरकार के दावों और वादों की लंबी फेहरिस्त है। लेकिन उसके बाद भी कृषि की हालत साल दर साल खराब होती जा रही है। पिछले अंतरिम बजट में चुनावों से पहले शुरू हुई किसान सम्मान निधि योजना के तहत छह हजार रुपये सालाना नकद सहायता का दायरा बढ़ाया गया है। पर इससे जमीनी स्तर पर किसानों की माली आर्थिक हालत में कोई सुधार नहीं आया है। किसान अब भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से अपनी उपज बेचने को मजबूर हैं। छह हजार रुपये की नकद सहायता से उन्हें कम दामों पर उपज बेचने में हुए नुकसान की भरपाई भी प्रायः नहीं हो पाती है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा देने में विफल रही है। इससे बीमा कंपनियों को ही ज्यादा फायदा पहुंचा है।
2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का मोदी सरकार का पुराना वादा है। पर उनके पहले कार्यकाल में औसत कृषि वृद्धि दर घटकर 2.9 फीसदी रह गई है जो उससे पहले के दस साल में औसत रूप से 3.7 रही थी। कृषि जानकारों का मानना है कि कृषि की जो मौजूदा हालत है, उससे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना दूर की कौड़ी है। आज सब मानते हैं कि खेती में भारी निवेश की आवश्यकता है।
अपने चुनावी संकल्प पत्र में बीजेपी ने वादा किया है कि आगामी पांच सालों में 25 लाख रुपये करोड़ का निवेश कृषि में करेगी, यानी औसत 5 लाख करोड़ रुपये सालाना। अंतरिम बजट में कृषि के लिए तकरीबन डेढ़ लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, यानी लक्षित औसत खर्च 5 लाख करोड़ रुपये से साढ़े तीन लाख करोड़ कम। अब पेश होने वाले पूर्ण बजट में कृषि के लिए कितने लाख करोड़ का आवंटन सरकार बढ़ाती है इससे ही खेती-किसानों के कल्याण के लिए सरकार की प्रतिबद्धता का पता चल जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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