बजट 2020ः अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में क्या कामयाब होंगे मोदी, बजट की कमान तो उन्हीं के हाथ में है
आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, डेढ़ साल पहले देश की विकास दर 8 फीसदी थी जो जुलाई-सितंबर की तिमाही में लुढ़ककर 4.5 फीसदी रह गई है। खपत, उपभोग के कमजोर होने के बाद भी खुदरा महंगाई पहली बार भारतीय रिजर्व बैंक की खींची लक्ष्मण रेखा 6 फीसदी को पार कर गई है।
आगामी बजट में आर्थिक विकास की गति को बढ़ाना मोदी सरकार की अनिवार्यता है। पिछली कई तिमाहियों से देश की विकास दर लगातार गिर रही है। आधिकारिक ब्योरों के अनुसार, डेढ़ साल पहले विकास दर 8 फीसदी थी जो जुलाई-सितंबर की तिमाही में लुढ़ककर 4.5 फीसदी रह गई है। खपत, उपभोग के कमजोर होने के बाद भी खुदरा महंगाई पहली बार भारतीय रिजर्व बैंक की खींची लक्ष्मण रेखा 6 फीसदी को पार कर गई है।
भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस वित्त वर्ष में पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले रोजगार के अवसर कम रहेंगे जिसका सीधा असर आय और उपभोग स्तर पर पड़ता है। कृषि वृद्धि दर तीन फीसदी से कम बनी हुई है। खाद्यान्नों में बेतहाशा महंगाई है लेकिन इसका कोई फायदा किसानों को नहीं हुआ है। असल में मौजूदा खाद्य महंगाई सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है जिसका फायदा केवल जमाखोर और मुनाफाखोरों को हुआ है। राजकोषीय घाटे के बेकाबू हो जाने से मोदी सरकार की सांसें फूली हुई हैं और वह इसे पूरा करने के लिए इधर-उधर हाथ मार रही है।
इन तमाम विकट आर्थिक चुनौतियों का समाधान आगामी बजट में किया जाना है। ज्यादातर अर्थ विशेषज्ञों और औद्योगिक संगठनों का सुझाव है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाना चाहिए जिससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी; आय के स्तर में सुधार होगा जिससे मांग और खपत में वृद्धि होगी। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ज्यादा खर्च मांग में त्वरित वृद्धि कर पाएगा? मोदी राज में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर बजट में आवंटन लगातार बढ़ा है और इसे अपनी अहम उपलब्धि के रूप में पेश किया जाता रहा है। सड़क और इन्फ्रास्ट्रक्चर के द्रुत विकास के लिए सरकार ने सेस भी लगा रखा है। पिछले दो साल में इससे 2.4 लाख करोड़ रुपये की प्राप्तियों का बजट अनुमान है।
पर पिछले दो सालों में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर औसत साढ़े चार लाख करोड़ रूपये सालाना खर्च करने के बाद भी रोजगार के अवसरों में कोई वृद्धि नहीं हुई है। बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर के दीर्घकालिक लाभ हैं और सतत विकास के लिए यह जरूरी भी है। पर इस लाभ को जमीन पर उतरने में काफी समय लगता है। अभी अर्थव्यवस्था में तुरंत मांग और खपत बढ़ाने की आवश्यकता अधिक है जिसका समाधान इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक खर्च करने से नहीं हो सकता है। इसके लिए जरुरी है कि अधिसंख्य आबादी के हाथों में व्यय योग्य आय में इजाफा हो। नकद आर्थिक सहायता और करों में छूट मौजूदा तंग आर्थिक परिस्थितियों में व्यय योग्य आय को बढ़ाने के लिए सबसे कारगर उपाय साबित हो सकते हैं।
आय कर में छूट पर निगाहें
सामान्य आय कर दाताओं के हाथ में नकदी या व्यय योग्य आय बढ़ाने के लिए आय कर में छूट भले ही सरकार की राजनीतिक अनिवार्यता न हो लेकिन आर्थिक मजबूरी जरूर है। इससे आर्थिक सुस्ती दूर करने में मदद मिलेगी। अभी ढाई लाख रुपये सालाना आय पूरी तरह आय कर से मुक्त है। इसके बाद ढाई लाख से अधिक और पांच लाख रुपये सालाना आय पर पांच फीसदी आय कर लगता है। 5 लाख से अधिक और 10 लाख रुपये तक की आय पर 20 फीसदी आय कर लगता है। दस लाख रुपये से अधिक सालाना आय पर 30 फीसदी से आय कर लगता है। इसके अलावा देय आय कर पर 4 फीसदी शिक्षा और स्वास्थ्य सेस लगता है। इसके साथ आय के स्लैब के अनुसार सरचार्ज भी लगाया जाता है। आय कर अधिनियम की धारा 80 सी के तहत निवेश करने पर आय कर मे छूट मिलती है ।
आगामी बजट में आम करदाताओं को आय कर में राहत देने के लिए सरकार पर भारी दबाव है। संभावना है कि सरकार आय कर में राहत देने के लिए आय कर अधिनियम की धारा 80 सी में निवेश की सीमा बढ़ाकर दो या ढाई लाख रुपये सालाना कर दे। लेकिन इससे आम करदाता कर बोझ कम करने के लिए बचत ज्यादा करेंगे। इससे सरकार को बचत दर बढ़ाने में निश्चित रूप से मदद मिलेगी जो 34 फीसदी से गिरकर लगभग 30 फीसदी रह गई है। इससे घरेलू बचत दर भी बढ़ेगी जिसमें काफी गिरावट आई है। बचत दर बढ़ने से सरकार को अधिक उधार लेने के लिए अच्छी मात्रा में अतिरिक्त रकम मुहैया हो जाएगी। लेकिन इससे मांग और खपत में कोई खास इजाफा होगा, इसकी संभावना न के बराबर है। इसकी ही सबसे ज्यादा जरूरत इस समय अर्थव्यवस्था को है।
सरकार आय कर दरों के स्लैब में बदलाव कर आय कर में राहत देने का विकल्प चुन सकती है। अभी 5 लाख से अधिक और दस लाख रुपये की सालाना आय पर 20 फीसदी आय कर लगता है और चार फीसदी सेस अलग से। इस स्लैब में आय कर दर कम करने से और स्लैब का दायरा बढ़ाने से करदाताओं की व्यय योग्य आय में इजाफा होगा। हो सकता है कि अधिक आय के स्लैब में सरकार कुछ राहत दे। लेकिन इस प्रकार की राहत का लाभ भी सीमित होगा। इससे मांग और खपत में उतना उछाल नहीं आ पाएगा जिसकी दरकार अर्थव्यवस्था को है।
आय कर के ऊपर जो भी सेस या सरचार्ज लगते हैं, उनमें कोई राहत सरकार नहीं देना चाहेगी क्योंकि इनसे जो भी प्राप्तियां होती हैं, वे केवल केंद्र सरकार के खाते में जाती हैं। ऐसी प्राप्तियों का बंटवारा केंद्र और राज्यों के बीच नहीं होता है। मोदी राज में सेस और सरचार्ज से मिली प्राप्तियों की कुल प्राप्तियों में हिस्सेदारी 3 फीसदी से बढ़कर 15 फीसदी हो गई है जो निश्चित मदों में ही खर्च की जा सकती है। सरकार 80 सी और आय कर स्लैब विशेष में एक साथ राहत भी दे सकती है। तब भी मांग, खपत और निवेश में इतनी तेजी नहीं आएगी जो विकास दर को 6 या 6.5 फीसदी तक पहुंचा सके। सरकार आय कर मुक्त सीमा को ढाई लाख से तीन लाख रुपये कर मांग में अपेक्षित उछाल ला सकती है। इसमें काफी अरसे से कोई बदलाव नहीं हुआ है। सरकार कॉरपोरेट टैक्स में पहले ही ऐतिहासिक छूट दे चुकी है।
लेकिन मोदी सरकार के लिए निर्णय लेना कठिन अवश्य है क्योंकि चालू वित्त वर्ष में, बकौल केंद्र सरकार के पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग, कर संग्रह बजट अनुमान से तकरीबन ढाई लाख करोड़ रुपये कम रहेगा और सरकारी घाटा 4 फीसदी तक जा सकता है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के व्यय को पिछले स्तर पर सीमित कर आय कर मुक्त सीमा बढ़ा कर भारी राहत आम कर दाताओं को मोदी सरकार को देना चाहिए जिसका तुरंत असर व्यय योग्य आय बढ़ने से मांग और खपत पर पड़ेगा। इससे निजी निवेश को भी काफी प्रोत्साहन मिलेगा जो पिछले दो-तीन साल से सबसे ज्यादा निढाल पड़ा हुआ है जिससे बेरोजगारी ऐतिहासिक रूप से शीर्ष पर है।
आर्थिक सहायता भी बढ़ाने की जरूरत
ग्रामीण क्षेत्र में नकद आर्थिक सहायता बढ़ाने की ज्यादा जरूरत है। कृषि आय और गैर कृषि आय पर ज्यादा दबाव है जिससे ग्रामीण मांग और खपत दर में गिरावट शहरों से ज्यादा तेज है। किसानों की तंगहाली को देखकर किसान-सम्मान निधि योजना शुरू की गई। इसके तहत किसानों को तीन किस्तों में छह हजार रुपये सालाना की नकद सहायता देने की घोषणा की गई थी। पर इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें खेतिहर मजदूरों को छोड़ दिया गया है और यह सहायता उन किसानों को भी मिल रही है, जो आर्थिक रूप से मजबूत हैं।
खेतिहर मजदूर और सीमांत किसान शहरों में मजदूरी करने आते हैं जिनसे उनको काफी सहारा मिलता है। पर पिछले दो-तीन साल से कंस्ट्रक्शन उद्योग में गिरावट तेज है। इससे उन्हें मजदूरी मिलने में दिक्कत हो रही है। इसलिए सरकार को किसान सम्मान निधि योजना का दायरा बढ़ाकर इस मद में बजट आवंटन कम से कम दो गुना करना चाहिए।
इसके साथ ही ग्रामीण आय बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्रीआवास योजना- ग्रामीण और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना काफी मददगार साबित होगी। भूमिहीन मजदूरों के लिए मनरेगा भी बेहतर योजना है। मनरेगा का आवंटन बढ़ाने के साथ ही साल में कम-से-कम 150 दिन पक्के तौर काम देने की जरूरत है। हकीकत यह है कि मनरेगा के 90 फीसदी मजदूरों को 50-60 दिन ही काम मिल पाता है।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि बजट की कमान प्रधानमंत्री मोदी ने खुद संभाल ली है, पर यह तो बजट ही बता पाएगा कि वे अधिसंख्य आबादी की आय बढ़ाने के लिए क्या साहसिक निर्णय लेते हैं।
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