जानलेवा है रसोई का घातक धुंआ

विश्व की लगभग तीन अरब आबादी खुले में खाना बनाती है। एक अस्थाई रसोई से निकला धुंआ 400 सिगरेटों के इकट्ठे धुंए से भी अधिक घातक होता है।

फोटोः Google
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महेन्द्र पांडे

नेशनल जियोग्राफिक के अनुसार विश्व की लगभग तीन अरब आबादी रसोई के अभाव में खुले में खाना बनाती है। एक अस्थाई रसोई से निकला धुंआ 400 सिगरेटों के सम्मिलित धुंए से भी अधिक घातक होता है। इस धुंए का प्रभाव पांच वर्ष तक की उम्र के बच्चों और महिलाओं पर सर्वाधिक पड़ता है क्योंकि महिलायें खाना बनाने और चूल्हा जलाने की जिम्मेदारी उठाती हैं और छोटे बच्चे मां की गोद में या उसके इर्द-गिर्द रहते हैं। इन घरों में सुबह का आरंभ ही धुंए के साथ होता है।

ऐसे घरों में चूल्हे लकड़ी के सहारे जलते हैं। महिलाएं औसतन 20 घंटे प्रति सप्ताह चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी को इकट्ठा करने में लगाती हैं। लकड़ी इकट्ठा करना भी एक कठिन कार्य है क्योंकि इसके लिए दूर तक जंगलों में आबादी से दूर जाना पड़ता है और फिर इसका वजन लंबी दूरी तक उठाना पड़ता है। बारिश के समय यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है क्योंकि जलाने के लिए सूखी लकड़ी मिलना कठिन हो जाता है। भारी मात्रा में लकड़ी इकट्ठा करने के कारण जहां वनों पर प्रभाव पड़ता है, दूसरी तरफ इनको जलाने से तापमान वृद्धि में सहायक गैस वायुमंडल में घुल जाती हैं।

2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश के शहरी क्षेत्रों में एक चौथाई आबादी ऐसे घरों में रहती है जहां रसोई अलग से नही हैं। इन घरों में रहने के कमरे में ही खाना भी पकाया जाता है। ऐसे घरों की संख्या लगभग 1.7 करोड़ है। मिजोरम में ऐसे घरों की संख्या सर्वाधिक है और उसके बाद बिहार का स्थान है। दूसरी तरफ केरल और दमन और द्वीव में ऐसे घरों की संख्या 90 प्रतिशत से अधिक है जिनमें अलग से रसोई बनी है।

‘जर्नल ऑन एनवायर्नमेंटल रिसर्च’ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार भारतीय घरों में रसोई, सड़क से भी अधिक प्रदूषिण फैलती है। रसोई से रंगहीन प्रदूषण अधिक होता है और हवा के आवागमन की उचित व्यवस्था के अभाव में प्रदूषणकारी पदार्थों की इकट्ठा होते जाते हैं।

हमारे देश में घरों के अंदर के प्रदूषण को कम करने या नियंत्रित करने की कोई नीति भी नहीं है, इसलिए सरकारी स्तर पर इसके आंकडे भी उपलब्ध नहीं हैं। पर, जब भी घरों या भवनों के अंदर प्रदूषण के स्तर को मापा गया, यह बाहर की तुलना में कई गुना अधिक पाया गया। लगभग दो वर्ष पहले भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश की अदालत में वायु प्रदूषण के स्तर को मापा गया था, तब उस चैंबर में बाहर की तुलना में वायु प्रदूषण चार गुना अधिक था। इसके कुछ महीनों बाद सड़क के ठीक किनारे स्थित कुछ विद्यालयों के अंदर प्रदूषण का स्तर सड़क से 6 गुना से भी अधिक था। यदि भवनों या घरों के अंदर प्रदूषण का स्तर बाहर से अधिक है, उसमें रसोई का धुंआ भी जब मिल जाएगा तो असर कितना घातक हो सकता है?

जनसंख्या के आंकड़ों में बिना रसोई वाले घरों की गिनती में निश्चित तौर पर वे करोड़ों श्रमिक नहीं रहे होंगे जो इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में कार्यरत होंगे। ऐसे श्रमिक अपने परिवार के साथ झुग्गियों में सड़कों के किनारे ही रहते हैं और इनका चूल्हा आसपास के पेड़ों की लकड़ियों से ही जलता है।

घरों के अंदर का प्रदूषण तो हम वैसे भी महसूस करते हैं। तीन-चार दिनों तक पूरी तरीके से घर बंद रखने के बाद भी धूल की एक पूरी परत फर्श और फर्नीचर पर महसूस होती है। दूसरी तरफ चिमनी और रोशनदान वाली रसोई में भी पंद्रह-बीस दिनों बाद आप चिमनी या रोशनदान पर उंगली फेरेंगे तो तैलीय पदार्थ आपको मिलेगा। सामान्य रसोई से अब कालिख नहीं निकलती, पर रंगहीन कार्बनिक पदार्थ जरूर उत्सर्जित होते हैं जो फेफड़े के कैंसर तक को बढ़ावा देने में सक्षम हैं। कुल मिलाकर हम ऐसे प्रदूषण की चपेट में हैं, जहां सरकार की नजर नहीं है।

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