अक्षय की ‘टॉयलेट…. : निरर्थक जुमलेबाजी, और कुछ नहीं
पूरी फिल्म प्रधानमंत्री मोदी से इतनी प्रभावित दिखती है कि उनके भाषण की तरह ही निरर्थक जुमलेबाज़ी ही रह गयी है।
जब से ‘टॉयलेट : एक प्रेम कथा’ फिल्म रिलीज़ हुयी है, एक कथन सोशल मीडिया पर काफ़ी मशहूर हो चला है- “इससे अच्छे दिन और क्या आयेंगे- लोग सज धज कर ‘टॉयलेट’ जा रहे हैं!”
इस मजाकिया कथन में एक गहरा संदेश भी है- स्वच्छता की थीम पर बनी एक फिल्म, जिसे लगभग हर समीक्षक ने रद्दी फिल्म कह कर नकार दिया था- बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई कर गयी- तो ज़ाहिर है कि जो लोकप्रिय हो वह अच्छा और सार्थक भी हो ज़रूरी नहीं। यह बात हमारे आज के सामाजिक राजनीतिक माहौल पर भी खरी उतरती है।
टॉयलेट एक प्रेम कथा से बहुत उम्मीदें थीं। खासकर इसलिए कि फिल्म की लम्बी और सुनियोजित पब्लिसिटी के दौरान ये वादा किया गया था कि फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है और एक सार्थक संदेश को लिए है। संदेश चूंकि प्रधानमंत्री के प्रिय प्रोजेक्ट स्वच्छता अभियान पर आधारित है तो फिल्म को उत्तर प्रदेश में टैक्स फ्री भी कर दिया गया और यह मांग भी उठ रही है कि इसे देश भर में टैक्स फ्री कर दिया जाए।
बहरहाल, फिल्म ने इतनी कमाई कर ली है कि उसे टैक्स फ्री ना भी किया जाए तो प्रोड्यूसर्स को कोई मलाल नहीं होगा। और प्रोड्यूसर्स में एक तो अक्षय ही हैं। लेकिन जैसा कि हर बढ़ चढ़ कर किये गए वादे के साथ होता है, टॉयलेट...भी एक ऐसे कब्ज़ निवारक चूर्ण की तरह रही जो महंगा तो बहुत है लेकिन कारगर नहीं।
जैसा कि लगभग हर हिंदी फिल्म में होता है, कहानी शुरू होती है नायक नायिका के प्रेम से, कुछ अच्छी हलकी और कॉमिक सिचुएशन के अलावा प्रेम कहानी भी आम फिल्मों जैसी ही है। (हालांकि नायक द्वारा नायिका का पीछा करना लगभग स्टाकिंग ही लगता है। वो तो नायिका, नायक के गुस्से भरे संवादों पर मोहित हो जाती है, वर्ना ये फिल्म स्टाकिंग के बारे में भी हो सकती थी। पता नहीं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को ये समझने में और कितने बरस लगेंगे कि अगर कोई लड़की अपनी नापसंद ज़ाहिर कर देती है तो लड़के को मान लेना चाहिए और उसके पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। ये समझ आने के बाद हो सकता है कि हमारे फ़िल्मकार कुछ अच्छी रोमांटिक फिल्मे बना सकें।)
आख़िरकार नायिका जब नायक से शादी कर लेती है, तो उसे मालूम पड़ता है कि उसकी ससुराल में तो टॉयलेट है ही नहीं (यह तो फिल्म के नाम से ही ज़ाहिर था, सो, इसमें भी ऐसी कोई शॉकिंग बात नहीं लगी)
नायिका घर छोड़ कर चली जाती है और फिर शुरुआत होती है नायक के टॉयलेट बनाने के संघर्ष की, जिसमें भ्रष्टाचार, घर के अन्दर टॉयलेट बनवाने के प्रति ग्रामीण भारत में लोगों की मानसिकता, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ यहाँ तक कि प्रेस वगैरह सभी से जूझना शामिल है। ये सभी मुद्दे गंभीर हैं।
अगर ये कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की अपनी बीवी को घर वापस लाने के लिए इन सभी कुरीतियों, सरकारी रवैयों और भ्रष्टाचार से लड़ने की निजी मुहिम पर केंद्रित होती तो यह एक अच्छी और भावप्रवण फिल्म हो सकती थी।
लेकिन जब इन्हीं मुद्दों को एक वृहत स्तर पर लाकर महज़ लफ्फाज़ी की जाये तो यह एक हद के बाद उबाऊ हो जाता है। जहाँ भी सरकार के रवैये से लड़ने या विरोध करने की बात आती है, नायक तुरंत बचाव की मुद्रा में आ जाता है, मानो, सरकार का ब्रांड अम्बैसडर हो।
हर घर में शौचालय न बना पाने के लिए पिछली सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। सरकारी दफ्तर तो भ्रष्टाचार से लबालब हैं, लेकिन मुख्यमंत्री एकदम साफ़-शुद्ध। यहाँ तक कि प्रेस के प्रति भी नायक का रवैया सरकारी है। जब मीडिया पूछती है कि लोग अगर बाहर शौच करने के लिए मजबूर हैं तो क्या सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं तो नायक तुरंत कहता है- “आप लोगों का तो काम ही है कि हर बिल सरकार पे फाड़ दो! (याद है- इसी सरकार के एक सदस्य ने अखबार नवीसों को प्रेस्टीट्यूट की संज्ञा से नवाज़ा था? और ये वही ‘प्रेस’ है जिसकी सदस्या बन अक्षय कुमार की पत्नी ने मिसेज़ फनीबोंस के नाम से ताज़ातरीन ख्याति प्राप्त की है?)
एक तरह से फिल्म के संदेश का लब्बोलुबाब ये भी है कि टॉयलेट बनाना तो हम नागरिकों का काम है इससे सरकार का क्या लेना देना। साफ़ है कि फिल्म निर्देशक इस बात से अनजान हैं कि ग्रामीण भारत में जहाँ किसान की लड़ाई, भूख, गरीबी और अंतहीन क़र्ज़ से है, वहां टॉयलेट बनवा पाने का ख्याल और साधन बड़े दूर की बात है। काश, यह फिल्म सिर्फ नायक के संघर्ष तक ही सीमित होती तो कम से कम एक तबके को भावनात्मक स्तर पर साफ़-सफाई रखने की कोई पहल करने के लिए प्रेरित कर सकती थी। लेकिन पूरी फिल्म प्रधानमंत्री मोदी से इतनी प्रभावित दिखती है कि उनके भाषण की तरह ही निरर्थक जुमलेबाज़ी ही रह गयी है।
और चूंकि जुमलेबाज़ी का भी असर होता ही है (देश में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता इसका एक उदहारण है), इसलिए फिल्म ने शुरुआती दिनों में अच्छी कमाई की। लेकिन इससे यह मान लेना बहुत बड़ी गलती होगी कि फिल्म अच्छी है।
मेरा तो मानना है कि जितना पैसा फिल्मनिर्माता ने इस लचर फिल्म को बनाने और सरकार ने स्वच्छता अभियान के महंगे विज्ञापनों में लगाया है, उतना वे अगर गांवों में पानी की उचित व्यवस्था वाले शौचालय बनाने में लगा देते तो यह अभियान कहीं अधिक कारगर होता और हम एक गंभीर मुद्दे पर घटिया फिल्म देखने और फिर उसकी अच्छी कमाई पर वाहवाही करने पर मजबूर ना होते।
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Published: 17 Aug 2017, 4:08 PM