2017: फिल्म और मनोरंजन जगत के लिए काफी सनसनीखेज रहा यह साल
साल 2017 फिल्म और मनोरंजन जगत के लिए काफी सनसनीखेज रहा। इस साल फिल्मों, गानों और सेंसर बोर्ड को लेकर कई नए विवाद देखने को मिले।
साल 2017 मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लिए काफी सनसनीखेज रहा। फिल्मों, गानों और सेंसर बोर्ड को लेकर कई विवाद देखने को मिले। पिछले कुछ सालों से इस तरह के विवादों में तेजी आ गई है।अदाकारों, निर्देशकों वगैरह ने भी सोशल मीडिया पर अपने ‘राजनीतिक’ ख्याल ज़ाहिर किये, कुछ के विचारों को तारीफ मिली तो कुछ को सख्त आलोचना।
इस साल पहलाज निहलानी के सेंसर बोर्ड से छुट्टी पाते ही फिल्म इंडस्ट्री ने चैन की सांस ली। अक्षय कुमार के एक कॉमेडी शो में शो की एक जज मल्लिका दुआ पर टिप्पणी को लेकर हंगामा हुआ तो ‘लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का’ ने पुरुष वर्चस्व वाले सेंसर बोर्ड और फिल्म इंडस्ट्री की नींदें उड़ा दीं। ‘अनारकली ऑफ आरा’ के एक किरदार को लेकर भी सेंसर बोर्ड और फिल्म निर्देशक अविनाश दास के बीच खींचतान हुई, तो ‘सेक्सी दुर्गा’ के निर्देशक ससिधरन को भी अपनी फिल्म पास कराने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी।
वैसे, चाहे देश के एमपी, एमएलए टीवी चैनलों, अलग-अलग मंचों और सोशल मीडिया पर कितने ही ‘कंट्रोवर्शिअल’ बयान देते रहें, लेकिन टीवी पर फिल्मों के संवादों में आम गालियों को भी ‘बीप’ का शिकार होना पड़ा। साल का अंत होते-होते, सूचना और प्रसारण मंत्रालय को ‘कंडोम’ के विज्ञापन भी अश्लील लगने लगे और उनके प्रसारण पर सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक के लिए पाबंदी लगा दी गयी। यहां तक कि सुपर हिट तमिल फिल्म ‘मेर्सल’ में जीएसटी और नोटबंदी पर की गयी आलोचनात्मक टिप्पणी को भी बीजेपी नेताओं के रोष का शिकार होना पड़ा।
लेकिन सेंसर बोर्ड से चलती लगातार खींचतान के बावजूद हिंदी फिल्मकारों ने कुछ बहुत अच्छी और लीक से हट कर फिल्में बनाने का न सिर्फ साहस किया, बल्कि अपनी बात को विरोध के बावजूद सामने रखने की कोशिश भी की।
एक अरसे बाद किसानों की समस्या पर प्रभावपूर्ण फिल्म बनी ‘कड़वी हवा’ बनी। इसे बेशक बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफलता नहीं मिली, लेकिन फिल्म और इसके अभिनेताओं को बहुत सराहा गया। ‘न्यूटन’ भी चर्चित रही। इसे भारत की तरफ से ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। हालांकि अब यह ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ से बाहर है।
कम बजट की फिल्मों ने भी अच्छी कमाई की और यह साबित कर दिया कि हिंदी फिल्म दर्शक महज लाउड (और कुछ हद तक बेवकूफाना) मेलोड्रामा ही नहीं पसंद करता, बल्कि कम बजट पर बनी अच्छी कहानी को भी सराहता है।
‘बरेली की बर्फी’, ‘शादी में जरूर आना’ ‘हिंदी मीडियम’, ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’ ‘सिमरन’ जैसी फिल्मों ने न सिर्फ अच्छी कमाई की, बल्कि कुछ नए कथानकों, कहानी कहने के सरल तरीके से दर्शकों को मोह लिया।
इन कम बजट की फिल्मों में ‘शुभ मंगल सावधान’ की चर्चा बहुत जरूरी है। पहली बार हिंदी में पुरुषों की एक साधारण सी सेक्स समस्या पर फिल्म बनायी गयी जो न सिर्फ दिलचस्प है, बल्कि इस संवेदनशील मुद्दे को बहुत खूबसूरती और सहानुभूतिपूर्ण तरीके से सामने रखती है। उसी तरह ‘सिमरन’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें नायिका का किरदार हिंदी फिल्मों की टिपिकल रोमांटिक छवि से बिलकुल अलग और दिलचस्प है।
नेताओं और सामाजिक संस्थाओं के अतिसंवेदनशील रवैये ने एक बार फिर साल के अंत तक फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों और अभिनेताओं को हैरान-परेशान कर दिया। साल 2017 ‘पद्मावती’ पर हुए विवाद के लिए भी याद किया जाएगा। हालांकि अब खबर ये है कि इस फिल्म को सीबीएफसी ने पास करने के लिए कुछ शर्तें रखी हैं जिसमें एक शर्त फिल्म का नाम बदलकर ‘पद्मावत’ करना भी है, लेकिन एक काल्पनिक किरदार को लेकर बनाई गई इस फिल्म का बगैर फिल्म देखे ही जो विरोध हुआ वह अपने आप में ऐतिहासिक है। एक आम दर्शक की हैसियत से इतना ही कहा जा सकता है कि एक कलाकार को अपनी रचना रचने और उसे लोगों के सामने पेश करने की पूरी आजादी होनी चाहिए, फिर चाहे वह रचना आपको कितनी ही आपत्तिजनक लगे। रचना पर आपको अपनी आपत्ति जाहिर करने की भी आजादी होनी चाहिए। लोकतंत्र तो इसे ही कहते है।
बहरहाल, इस साल राजनीतिक नेताओं और सरकार के रवैये ने एक बात तो साबित कर ही दी कि एंटरटेनमेंट आखिरकार राजनीतिक गलियारे में भी ‘गंभीर विषय’ है। अन्य गंभीर मुद्दों को गंभीरता से चाहे न लिया जाए, लेकिन मनोरंजन के क्षेत्र में अब लोगों को ‘मुंह संभाल कर’ बात करनी पड़ेगी।
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