सलीम खान: फ़्लॉप अभिनेता बना सबसे महंगा लेखक
24 नवंबर, 1935 में इंदौर में जन्मे सलीम खान के पिता रशीद खान डीआईजी थे। सलीम खान ने करीब 25 फिल्मों में छोटे-बड़े रोल किये, लेकिन एक तो अधिकतर फिल्में असफल रहीं और दूसरे कई फिल्में रिलीज़ ही नहीं हुईं।
आज उन्हें सलमान खान के पिता के रूप में जाना जाता है, लेकिन एक ज़माना था जब उनके नाम का चिराग़ जलता था और उसकी रोशनी में एक के बाद एक कई सुपरहिट फिल्में दर्शकों को देखने को मिलीं। फ़िल्मी दुनिया के असफ़ल हीरो और इतिहास रचने वाले लेखक सलीम खान के संघर्ष और सफ़लता की कहानी बिल्कुल फ़िल्मी है।
इंदौर में कॉलेज के दिनों से ही सारे दोस्त उनसे कहते थे कि तुम इतने सुंदर और आकर्षक हो सलीम, फ़िल्मों में क्यों नहीं जाते। लेकिन सलीम खान तो क्रिकेट और फ़्लाइंग के शौक में इतने रमे हुए थे कि और किसी तरफ़ सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं थी। एक बार अभिनेता अजित और निदेशक अमरनाथ की इंदौर के एक समारोह में सलीम पर नज़र पड़ी। अमरनाथ ने उन्हें मुंबई आने का प्रस्ताव दिया। 1958 में सलीम मुंबई पहुंचे जहां उन्हें मार्गदर्शक और संरक्षक के रूप अजित ने सहारा दिया।
सलीम ने ‘शाही लुटेरा’ और ‘काबुली खान’ जैसी कुछ असफ़ल फ़िल्में कीं और उन पर फ़्लॉप का ठप्पा लग गया। मगर सलीम खान को शोहरत से प्यार था और आख़िरकार उन्होंने सिर्फ़ शोहरत ही हासिल नहीं की, बल्कि लेखक के रूप में हिंदी सिनेमा को नयी ऊंचाइयां दीं। 24 नवंबर, 1935 में इंदौर में जन्मे सलीम खान के पिता रशीद खान डीआईजी थे। सलीम खान ने करीब 25 फिल्मों में छोटे-बड़े रोल किये, लेकिन एक तो अधिकतर फिल्में असफल रहीं और दूसरे कई फिल्में रिलीज़ ही नहीं हुईं।
फिल्म ‘सरहदी लुटेरा’ में सलीम हीरो थे और जावेद सहायक निर्देशक। इसी फ़िल्म से दोनों के बीच दोस्ती की बुनियाद पड़ी। तब तक सलीम को एहसास हो चुका था कि वे लिख सकते हैं। वैसे कॉलेज के दोस्तों के लिए प्रेम-पत्र लिखने के अलावा उनके पास लेखन का कोई तजुर्बा नहीं था। सलीम खान ने कहानियां लिखनी शुरू कर दीं। फ़िल्मी दुनिया से उनका परिचय कराने वाले अजित ना सिर्फ़ उनकी कहानियां सुनते और उस पर अपनी राय देते, बल्कि सलीम को देश-विदेश के ढेरों उपन्यास भी दिया करते थे।
सलीम की पहली कहानी अशोक कुमार ने खरीदी, जिस पर बृज सदाना ने फ़िल्म ‘दो भाई’ (1965) बनाई। सलीम एक साल तक लेखक अबरार अल्वी के सहायक भी रहे। जहां से उन्हें 500 रुपए महीना मिला करते थे। जंजीर की कहानी सलीम ने लिखी और सबसे पहले धर्मेंद्र को बेची। धर्मेंद्र ने कहानी के लिए एडवांस के तौर पर सलीम को 2500 रूपए दिये थे। तब तक सलीम ने जावेद के साथ मिल कर लिखना शुरू नहीं किया था।
जब दोनों साथ मिले तो उनकी पहली फ़िल्म थी ‘अंदाज़’। फिर दोनों ने ‘हाथी मेरे साथी’ लिखी, जिसका मेहनताना मिला दस हजार रुपए। फिल्म ‘अधिकार’ लिखी तो उसके लिए मिले दस हजार। ‘यादों की बारात’ के लिये 25 हज़ार रूपए मिले, जबकी ‘ज़ंजीर’ की कहानी बिकी 55 हज़ार रुपए में। जंजीर की अपार सफलता के बाद फ़्लॉप फिल्मों के अभिनेता सलीम खान ने जावेद के साथ मिलकर लगातार हिट फिल्में लिखने का इतिहास रचना शुरू कर दिया। लेखक के रूप में सलीम-जावेद की जोड़ी का नाम पोस्टरों पर छपना शुरू हुआ। फिल्म ‘दोस्ताना’ के लिए सलीम-जावेद ने हीरो से अधिक पैसे लिये। इस फिल्म के लिये अमिताभ को 12 लाख तो सलीम-जावेद को साढ़े बारह लाख मिले। हिंदी फ़िल्मों के इतिहास में लेखकों की ऐसी हैसियत पहले कभी नहीं बनी थी।
सलीम खान का मानना था कि कहानी तो कहीं से भी ली जा सकती है। सच्ची घटना को भी कहानी बनाया जा सकता है, लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखना खासा तकनीकी काम है और उसमें हर लेखक दक्ष नहीं हो सकता। सलीम-जावेद ने स्क्रीनप्ले लिखने की जो शैली विकसित की, उस तरह भारत में पहले कभी स्क्रीनप्ले नहीं लिखा गया था। सलीम-जावेद की जोड़ी ने लगातार 12 हिट फिल्में लिखीं। जावेद से जोड़ी टूटने के बाद भी सलीम खान ने ‘नाम’ जैसी सुपरहिट फ़िल्म सहित कई फ़िल्मों की कहानियां लिखीं।
90 के दशक में वक्त को तेजी से बदलते देख सलीम ने अपनी कलम को ठहराव दे दिया। वे बहुत सेलेक्टिव हो गए। और फिर उन्हें एहसास हो गया कि फिल्म निर्माण में नयी नस्ल आ चुकी है जिसके सरोकार और समझ उनके दौर से बिल्कुल अलग हैं। सलीम खान ने लिखना बंद कर दिया। तब तक उनके बेटों सलमान, अरबाज और सुहैल ने नाम और दाम कमाना शुरू कर दिया। एक पिता के रूप में ऐसा संतोष बहुत कम लोगों को मिलता है, जितना सलीम खान को मिल रहा है। फिलहाल सलीम खान रिटायर्ड जिंदगी गुज़ार रहे हैं।
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Published: 24 Nov 2018, 6:59 AM