साहिर लुधियानवीः एक ऐसा शायर जिसने फिल्मी दुनिया का निजाम बदल डाला

साहिर लुधियानवी की शर्तों ने उस दौर के फिल्मी निजाम को बदल डाला। ये साहिर ही थे जिनकी वजह से रेडियो पर गीतों के प्रसारण में गीतकारों का नाम भी लिया जाने लगा। इतना ही नहीं, फिल्म के पोस्टरों पर गीतकारों के नाम प्रमुखता से छपवाने की पहल भी साहिर ने ही की थी।

फोटोः सोशल मीडिया
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इकबाल रिजवी

फिल्मी दुनिया में सफलता के झंडे बहुत लोगों ने गाड़े और फिर ढलते सूरज की तरह डूब गए। लेकिन जिन कम हस्तियों का सूरज मरते दम तक नहीं डूबा उनमें एक नाम है साहिर लुधियानवी।

साहिर काम की तलाश मुंबई की फिल्मी दुनिया में पहुंचे थे। गीतकार और संगीतकार प्रेम धवन ने साहिर से लाहौर की दोस्ती का हक अदा किया और तमाम संगीतकारों और फिल्म प्रोड्यूसर्स से परिचय कराया। खैर काम मिलना शुरू हुआ लेकिन साहिर ने अपनी शर्तों पर ही काम करना मंजूर किया इसलिए उनकी शुरूआत धीमी रही। फिल्म ‘नौजवान’ (1951) में उनकी जोड़ी संगीतकार एसडी बर्मन से बनी और दोनों ने फिल्म संगीत को लाजवाब गीत दिए। ‘नौजवान’, ‘प्यासा’, ‘सजा’ जैसी फिल्मों में इन दोनों का कमाल देखने को मिला।

कुछ ही समय में फिल्मी दुनिया में साहिर का सिक्का चलने लगा। एक दिन एसडी बर्मन ने किसी इंटरव्यू में कह दिया कि गीत तो संगीतकार की बदौलत लोकप्रिय होते हैं। साहिर को ये बात इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने तय किया कि अब वे सिर्फ नए संगीतकारों के साथ काम करेंगे और हिट गीत देंगे।

साहिर ने ही एसडी बर्मन के सहायक एन दत्ता को बतौर संगीतकार बी आर चोपड़ा कैंप की फिल्में दिलवाईं। याद कीजिये फिल्म ‘साधना’, ‘धूल का फूल’ और ‘धर्मपुत्र’ के गीत। ‘साधना’ का गीत “औरत ने जन्म दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया” तो अपनी तरह का इकलौता गीत है। इसी तरह ‘धूल का फूल’ में “तू हिंदु बनेगा ना मुसलमान बनेगा” आज तक याद किया जाता है।

उस दौर के नए संगीतकार रवि को भी साहिर ने ही काम दिलवाया। साहिर के सर्वाधिक हिट गीत रवि के संगीत में तैयार हुए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं (गुमराह), छू लेने दो नाजुक होठों को (काजल), इसके बाद ‘वक्त’, ‘हमराज’ और ‘नील कमल’ जैसी म्यूजिकल हिट फिल्मों की कामयाबी में इसी जोड़ी का हाथ रहा।

फिर इस जोड़ी ने ‘आंखे’, ‘दो कलियां’, ‘लैला मजनू’ जैसी म्युजिकल हिट फिल्में भी दीं। वरिष्ठ लेकिन कम चर्चित रहे संगीतकार खय्याम को उन्होंने ‘कभी कभी’ में तब मौका दिलवाया जब यश चोपड़ा संगीतकार के रूप में लक्ष्मीकांत प्यारे लाल का नाम तय कर चुके थे। ‘कभी कभी’ का गीत-संगीत तो इतिहास बन गया है।

साहिर ने अपनी शर्तों पर सिर्फ यही कारनामा नहीं किया बल्कि उनकी शर्तों ने उस दौर के फिल्मी निजाम को बदल डाला। पहले रेडियो पर गीतों के प्रसारण के समय गायक और संगीतकार का नाम लिया जाता था। ये साहिर ही थे जिनकी वजह से गीतकारों का नाम भी लिया जाने लगा। इतना ही नहीं फिल्म के पोस्टर पर गीतकारों के नाम प्रमुखता से छपवाने की पहल भी साहिर ने ही की। साहिर ने एक और अहम काम ये भी किया कि गीतकारों को रॉयल्टी में हिस्सा दिलाने की अलख जलाई।

साहिर को अपनी कलम की हैसियत का अंदाजा था और वे कलम के मुद्दे पर कभी समझौता करने को तैयार नहीं हुए। साहिर का नाम सफलता का प्रतीक बन चुका था इसलिए उनकी शर्तों को मानना फिल्मकारों के लिए व्यावसायिक मजबूरी बन चुका था। साहिर ने अपना मेहनताना संगीतकारों के बराबर कर दिया था। यहां तक कि लता मंगेशकर के पारिश्रमिक से एक रूपया ज्यादा लेने लगे।

ऐसी हिम्मत इससे पहले का कोई गीतकार नहीं कर सका था। साहिर ही वे इकलौते गीतकार थे जिन्होंने बहुत से गीत पहले लिखे उनकी धुनें बाद में बनाई गईं। हालांकि फिल्मों में शुरू से आज तक यही चलन है कि धुन पहले बनती है और फिर उसके मीटर पर गीत लिखे जाते हैं। साहिर का सूरज तब तक तो चमकता रहा जब तक वो इस दुनिया में थे लेकिन उनके दुनिया से जाने के बाद भी आज तक उनकी शायरी का सूरज अपनी रोशनी बिखेर रहा है।

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