फिल्मों में खो गए असली गांव, सिनेमा में ‘गांव की गोरी’ और घाघरा-चोली में सिमटा ग्रामीण भारत
आजादी के पहले के तीन फिल्म केंद्र- मुंबई, कोलकाता और लाहौर की ग्रामीण पृष्ठभूमि की फिल्मों में साफ अतंर दिखता है जो आजादी के बाद मुंबई में केंद्रित होकर गड्डमड्ड हो गई। फिर गांव के चित्रण में एकरसता आ गई। गांव के नाम पर घिसे-पिटे दृश्य -परिधान दिखने लगे।
शैलेंद्र के गीतों से सभी परिचित हैं। उनका जन्म रावलपिंडी में हुआ था, वह आगरा में पले-बढ़े, पर उनका परिवार मूल रूप से बिहार के आरा जिले के अख्तियारपुर का रहने वाला था। शैलेंद्र का परिवार आज के पाकिस्तान से विभाजन के पहले ही आगरा आकर बस गया था। पिता रेलवे की मामूली नौकरी में थे। जहीन शैलेंद्र पढ़ाई, खेल और लेखन में अव्वल थे। वह नौकरी के सिलसिले में मुंबई पहुंचे। प्रगतिशील विचारों के शैलेंद्र का संपर्क इप्टा के कलाकर्मियों से हुआ। उनके ही एक कार्यक्रम में हिंदी फिल्मों के निर्देशक और शोमैन राज कपूर ने उन्हें सुना और फिल्मों में गीत लिखने का ऑफर दिया। आरंभिक नहीं के बाद आजीविका की मजबूरी में शैलेंद्र गीत लिखने को राजी हुए।
हम सभी गीतकार शैलेंद्र की प्रतिभा और प्रभाव को जानते हैं। शैलेंद्र राज कपूर के साथ विमल रॉय से भी जुड़े थे। विमल रॉय की मंडली में बिहार से नबेंदु घोष ने ‘देवदास’ की पटकथा लिखी थी। नबेंदु घोष ने ही शैलेंद्र को फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ पढ़ने के लिए दी। शैलेंद्र इस कहानी की मासूमियत और भाव से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने ‘तीसरी कसम’ बनाने का फैसला किया। रेणु से संपर्क किया गया तो पता चला कि उन्होंने इस कहानी का अधिकार फिल्मकार अरुण कौल को दे दिया है। बात अरुण कौल तक पहुंची। उन्हें जब मालूम हुआ कि रेणु की कहानी पर शैलेंद्र फिल्म बनाना चाहते हैं तो उन्होंने सहर्ष कहानी उन्हें सौंप दी। तब की क्रिएटिव प्रतिभाएं मिल-बांट कर सहयोग से आगे बढ़ती थीं।
फिर रेणु और शैलेंद्र की मुलाकात हुई। रेणु शैलेंद्र से मिलकर बहुत खुश और अभिभूत हुए। उन्होंने पटकथा लिखने और उसकी स्थानीयता का पुट बनाए रखने में पूरा सहयोग दिया। वह मुंबई आकर रुके। रेणु का सक्रिय रचनात्मक सहयोग बना रहा। फिल्म की तकनीकी टीम और शैलेंद्र ने भी हमेशा रेणु के सुझावों का मान रखा।
रेणु ने अपने संस्मरण में ‘तीसरी कसम’ बनने की कहानी पर विस्तार से लिखा है। फिल्म के एक गीत ‘लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया’ गाने के लिए रेणु ने पटकथा में संभावित दृश्य लिख दिए थे। रेणु ने देखा कि कैमरामैन सुब्रत मित्रा ने बैलगाड़ी के पीछे भागते कुत्ते और नंगे बच्चे को भी रेणु के सुझाव के अनुसार पर्दे पर रखा। फिल्म के संवादों में मैथिली भाषा और मिथिला संस्कृति के लोक व्यवहार के शब्दों के समावेश से इलाकाई अर्थ अपनी सुंदरता के साथ आया था। शहरी संस्कृति में पले-बढ़े राज कपूर ने ‘हीरामन’ को आंगिक और भाषिक पहलुओं से भी आत्मसात किया था। उनका ‘इस्स’ और ‘जा रे जमाना’ कहना याद कर लें।
‘तीसरी कसम’ हिंदी साहित्य पर आधारित उन चंद फिल्मों में से एक है, जिसे लेकर फिल्मकार और कहानीकार के बीच कोई मतभेद या मनभेद नहीं हुआ। हालांकि, राज कपूर समेत अनेक सलाहकार चाहते थे कि फिल्म का अंत ‘हैप्पी एंडिंग’ के तर्ज पर हो, लेकिन शैलेंद्र सहमत नहीं थे। दबाव बढ़ने पर उन्होंने अंतिम फैसला रेणु पर छोड़ दिया था। रेणु भला क्यों राजी होते? फिल्म उसी रूप और अंत के साथ रिलीज हुई जो कहानी में वर्णित था।
हिंदी के ज्यादातर रचनाकार अपनी कृतियों के फिल्मी रूपांतर पर विलाप करते हैं। कहते हैं कि उनकी रचना की आत्मा फिल्म में नहीं बची रही। रेणु ने कभी ऐसी शिकायत नहीं की। वह कर भी नहीं सकते थे क्योंकि शैलेंद्र और उनकी टीम ने कहानी के मर्म को हूबहू पर्दे पर उतारा। हालांकि फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य थे, लेकिन हम सभी जानते हैं कि फिल्म के क्रिएटिव फैसले शैलेंद्र की सहमति से ही लिए गए। राज कपूर भी अपने कमर्शियल अनुभव से सुझाव देते थे। उन्हें मानना या नहीं मानना शैलेंद्र के ऊपर था। शैलेंद्र और रेणु की परस्पर समझदारी से ही ‘हीरामन’ और ‘हीराबाई’ की अव्यक्त प्रेम कहानी पर्दे पर व्यक्त हो पाई। मधुर स्वरों में कहानी बोल पड़ती है।
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ में राज कपूर, वहीदा रहमान और इफ्तिखार जैसे कलाकार थे। यह फिल्म तत्कालीन गांव को सादगी और संजीदगी के साथ पर्दे पर उतारती है। फिल्म के मुख्य किरदार हीरामन और हीराबाई के बीच बने स्नेह संबंध में राग है, लेकिन हीरामन की उत्कंठा दैहिक नहीं है।
इस फिल्म के संबंध में प्रसिद्ध आलोचक डॉ नामवर सिंह ने लिखा था, ‘मैंने इसे दो बार देखा। फिल्मों में अक्सर व्यावसायिक और मुनाफे का नजरिया कलात्मकता और मूल भावना का गला घोंट देता है, लेकिन ‘तीसरी कसम’ में ऐसा नहीं है। ‘तीसरी कसम’ फिल्म में कहानी की आत्मा का सौंदर्य प्रारंभ से अंत तक मौजूद है। फिल्म के अधिकांश गीत के मुखड़े कहानी में मौजूद हैं। शैलेंद्र ने मूल कहानी में मौजूद मुखड़ों को बड़ी ही संजीदगी के साथ कलात्मक ढंग से गीत का रूप दिया है। रेणु की मार्मिक कहानी को शैलेंद्र ने बहुत ही कलात्मक तरीके से अपने गीतों में सजा कर दर्शकों के लिए प्रस्तुत किया है।’
हिंदी सिनेमा में ‘तीसरी कसम’ के पहले से गांव आता रहा है। बंगाल से आए फिल्मकारों ने गांव की कहानियों पर ज्यादा जोर दिया। आजादी के पहले के तीन फिल्म निर्माण केंद्रों- मुंबई, कोलकाता और लाहौर की ग्रामीण पृष्ठभूमि की फिल्मों में स्पष्ट पृथकता दिखती है, जो आजादी के बाद मुंबई में संकेंद्रित होकर गड्डमड्ड हो गई। फिर तो गांव के चित्रण में एकरूपता और एकरसता आ गई।
फिल्मों के जानकार और इतिहासकार बताएंगे कि शूटिंग की सुविधा और कल्पना की सीमा से फिल्मी गांव के प्रतिरूप ही फिल्मों में आने लगे। धीरे-धीरे यह स्थिति हुई कि गांव का नाम लेते ही घिसे-पिटे दृश्य और परिधान दिखने लगे। ‘गांव की गोरी’ प्रचलित फ्रेज हो गया। देश के किसी भी इलाके के गांव की ‘गोरी’ को घाघरा-चोली में दिखाने का फैशन चला। पनघट, घड़ा, पनिहारिन, बैलगाड़ी, धोती दिखाना आवश्यक हो गया।
हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में कई दशकों तक ‘गांव की गोरी’ और ‘शहरी छोरे’ के प्रेम का बखान होता रहा। अधिकांश फिल्मों में शहरी छोरा दगाबाज होता था जो भोली गोरी को धोखा दे देता था। हिंदी फिल्में लंबे समय तक शहरों का कुरूप, भ्रष्ट और बेईमान चित्रण करती रहीं और गांव को सुंदर, ईमानदार और मासूम दिखाती रहीं। मुख्य रूप से यह चित्रण रोमानी और काल्पनिक ही रहा।
फिर एक दौर ऐसा आया जब पैरेलल सिनेमा के फिल्मकारों ने गांव को यथार्थवादी चित्रण को जोड़ दिया। उन्होंने ग्रामीण इलाकों में जमींदारी और सामंती व्यवस्था में पिसते किसानों, बेगारों और खेत मजदूरों से अपने किरदार चुने। उन्होंने दलित, निम्न जाति और वंचित समाज के शोषितों पर निगाह डाली। उन्होंने यथार्थवादी चित्रण से दर्शकों को झकझोरा। उन्हें ग्रामीण सच्चाई के प्रति जागरूक किया। धीरे-धीरे यहां भी एकरसता आई। पैरेलल सिनेमा की धार कमजोर हो गई। देश में चल रहे आंदोलन और अभियान भटके। जाहिर-सी बात है कि यह भटकाव सिनेमा में भी दिखा।
आर्थिक उदारीकरण के बाद दर्शकों और निर्देशकों की रुझान में बदलाव आने से सिनेमा बदला। प्रवासी दर्शकों के लिए ‘डॉलर सिनेमा’ आया। जाहिर-सी बात है इस प्रयाण में गांव कहीं पीछे छूट गया। सिर्फ गांव ही नहीं, ग्रामीण किरदार और प्रसंग भी गायब हुए। कुछ फिल्मों में ग्रामीण किरदार भदेसपन और हास्य पैदा करने के लिए रखे जाने लगे।
इस दौर में प्रकाश झा सरीखे कुछ फिल्मकारों ने जरूर अलग-सी कोशिश की। वह महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में उत्तर भारत और बिहार रचते रहे। उसे यथासंभव वास्तविक रंग-रूप देने की इस कोशिश में सफल भी रहे लेकिन करण जौहर जैसे निर्माता-निर्देशक ‘गोरी तेरे प्यार में’ में ऐसा नकली गांव ले आए कि दर्शकों का दिल उचट गया। ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ में विशाल भारद्वाज का गांव भी विचित्र रहा।
अनुषा रिजवी ‘पीपली लाइव’ में अवश्य आज के गांव की विसंगतियों को ला सकीं। फिर भी, मोटे तौर पर फिल्मकार गांव और ग्रामीण परिवेश के प्रति उदासीन ही रहे। इस बीच गांव भी तेजी से बदला है। सच्चाई यह है कि हिंदी सिनेमा तो क्या, हिंदी साहित्य में भी आज का ग्रामीण परिवेश सही रूप में नहीं आ पा रहा है। फिल्मों के लेखक और निर्देशक ग्रामीण पृष्ठभूमि और परिवेश से नहीं आते। बेहतरीन ग्रामीण फिल्मों के लिए अंतिम शर्त नहीं है लेकिन ग्रामीण कहानियों के लिए शोध और अनुभव की जरूरत पड़ेगी। शहरी फिल्मकारों के पास इतना समय नहीं है। फिर भी पिछले कुछ सालों में आई फिल्मों में ‘अनारकली ऑफ आरा’, ‘न्यूटन’, ‘सोन चिड़िया’, ‘पटाखा’ और ‘सांड की आंख’ जैसी फिल्मों का उल्लेख किया जा सकता है।
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