राज कपूरः सिनेमा का ज़हीन जादूगर, जिसने उस ज़माने में हिंदुस्तानी फिल्मों को विश्व मंचों तक पहुंचाया
बेशक राज कपूर मैट्रिक की शिक्षा से आगे नहीं जा पाए, लेकिन वे खुद में सिनेमा का एक ऐसा बड़ा स्कूल बने, जिसे भुला देना आसान नहीं है। उन्हें आज हिंदुस्तानी सिनेमा को विश्व स्तरीय मंचों पर चर्चा और सराहना का विषय बनाने वाले कद्दावर फिल्मकार के तौर पर याद किया जाता है।
राज कपूर भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के पहले शो मैन थे। हिंदुस्तानी सिनेमा को विश्व स्तरीय मंचों पर चर्चा और सराहना का विषय बनाने वाले एक कद्दावर फिल्मकार! एक ऐसे फिल्मकार जिनके जिक्र के बगैर भारतीय उपमहाद्वीप के सिनेमा पर बात अधूरी मानी जाती है। उनकी फिल्में यथार्थ और रोमांच के बीच की बेहद महीन रेखा पर चलती थीं। संगीत वहां जादू और हकीकत के बेमिसाल रंगों के साथ उपस्थित रहता था। सिनेमेटोग्राफी का जलवा अलग था। बहुत कुछ को मिलाकर एक राज कपूर बनते थे... जिन्होंने बरसों देश-विदेश के करोड़ों दिलों पर राज किया।
1948 में रिलीज 'आग' राज कपूर की पहली बड़ी सिनेमाई अभिव्यक्ति थी। इतिहास में उसे आज भी मील का पत्थर माना जाता है। यह फिल्म उन्होंने शुरू तो कर ली थी, लेकिन पास में पर्याप्त पैसा नहीं था। मुहूर्त से लेकर रिलीज तक उन्हें अथाह संघर्षों से गुजरना पड़ा। कार गिरवी रखी। अपने नौकर से उधार लेकर यूनिट के लिए चाय-पानी और खाने का बंदोबस्त किया करते थे।
उनकी मां अपने पति पृथ्वीराज कपूर से उन दिनों अक्सर पंजाबी में व्यंग्य से कहा करती थीं कि यह थूक में पकौड़े तलने का ख्वाब देख रहा है। लेकिन बड़े पापा जी (पृथ्वीराज) कहा करते कि यह फिल्म पूरी करेगा और इसे यकीनन कामयाबी मिलेगी। इसके पास विश्वास और दृढ़ता है, जो सबसे बढ़कर है।
'आग' पूरी हुई तो राज कपूर उसे डिब्बों में भरकर वितरकों के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगे। हर जगह नाउम्मीदी मिलती। कहा जाता कि यह फिल्म नहीं चलेगी। आखिरकार एक ऐसा वितरक तैयार हुआ, जिसने फिल्म देखे बगैर उसे रिलीज करने का निर्णय ले लिया। यह कहकर कि, 'मैं फिल्म को नहीं, आदमी को सहारा दे रहा हूं।' और चांदी के एक रुपए के सिक्के में सौदा तय हो गया। 'आग' को अंततः बड़ा पर्दा नसीब हुआ और सिनेमाई शाहकार का शानदार दर्जा भी। 'आग' की लौ आज भी बरकरार है।
इस संघर्ष का कपूर साहब पर एक बड़ा असर यह भी हुआ कि आदमी की कद्र करने की उन्हें एक नई निगाह हासिल हुई। फिर 1949 में राज कपूर की 'बरसात' आई तो आरके फिल्म्स के मशहूर प्रतीक चिन्ह का जन्म भी हुआ। इस फिल्म ने उनकी पिछली फिल्म की कमी और घाटे को पूरा कर दिया। बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म बेहद कामयाब रही।
इस फिल्म के साथ एक और पहलू जुड़ा हुआ है। 'बरसात' से कई अन्य लोगों ने अपने करियर का आगाज किया। शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र, निम्मी और रामानंद सागर। लता मंगेशकर का स्वर राज साहब की फिल्मों के लिए बाद में अपरिहार्य हो गया, लेकिन इसकी शुरुआत 'बरसात' से ही हुई।
फिर 'आवारा' (1951) ने उन्हें सरोकारी फिल्मकार के बतौर स्थापित किया। इस फिल्म ने राज कपूर को चार्ली चैपलिन की महान विरासत से जोड़ दिया। अवामी सरोकार और आजादी के बाद की आशाएं-अपेक्षाएं इस फिल्म का थीम हैं। तीस के दशक से 50 के दशक तक भारतीय सिनेमा में धीरे-धीरे यथार्थ आने लगा था, जो सबसे सशक्त होकर आया 'आवारा' में। इसका एक गीत 'मुझको चाहिए बहार' आमजन के दिल की आवाज है।
सबसे खास बात ये है कि 'आवारा' से वामपंथी देशों में भारतीय फिल्मों के लिए दरवाजे खुले और खूब खुले। रूस में तब इसे तकरीबन राष्ट्रीय फिल्म का खिताब हासिल हुआ था। माना गया कि वह भारत से भी ज्यादा लोकप्रिय रूस मेंं हो गए थे। प्रसंगवश, एक अन्य महान फिल्मकार और लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने एक बार खुश्चेव से पूछा था कि “उनके देश में 'आवारा' की असाधारण लोकप्रियता की क्या वजह है?”
इस पर खुश्चेेव का जवाब था कि, “रूस ने विश्व युद्ध की मार को काफी ज्यादा झेला है और उसमें रिकॉर्ड संख्या में रूसी मारे गए थे। रूसी फिल्मकारों ने युद्ध पर बड़ी फिल्में बनाई हैं, लेकिन उन्होंने सिर्फ त्रासदी को सामने रखा। जबकि खुशदिल राज कपूर ने नई जिंदगी की उम्मीद के साथ फिल्म बनाई जो लोगोंं को नए किस्म का आशावाद देती है।”
'आवारा' के बाद 'आह' (1953), 'बूट पॉलिश' (1954), 'श्री 420' (1955), 'जागते रहो' (1956), 'अब दिल्ली दूर नहीं' (1957), 'जिस देश में गंगाा बहती है' (1960), 'संगम' (1964), 'मेरा नाम जोकर' (1970), 'कल आज और कल' (1971), 'बॉबी' (1973), 'धर्म-कर्म' (1975), 'सत्यम शिवम् सुंदरम' (1978), 'प्रेम रोग' (1982), 'राम तेरी गंगा मैली' (1985) आदि उल्लेखनीय फिल्में राज कपूर के निर्देशन और प्रोडक्शन सेे आईं। इन तमाम फिल्मों में वह सब कुछ बखूबी था, जिसकी अपेक्षा अच्छा सिनेमा देखने वाले करते हैं।
महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने शो मैन राज कपूर के बारे में कहा था, “उन्होंने मेरी फिल्म पाथेर पंचाली देखी और उससे इतना प्रभावित हुए कि कई बार मुझसे कहा कि मैं उनके लिए कुछ करूं, लेकिन यह प्रस्ताव मैं इसलिए भी स्वीकार नहीं कर पाया इसके लिए मुझे हिंदी में काम करना पड़ता। मैंने उनकी फिल्म 'आग' देखी तो पाया कि वह बेहद प्रतिभावान हैं। मुझे 'श्री 420' सबसे अच्छी फिल्म लगती थी। मेरे लिए उनके मन में अति स्नेह था और वह मेरा आदर करते थे। उनके भारतीय सिनेमा को दिए गए अंशदान के बारे में मैं समझता हूं कि वह एक अत्यधिक कुशल कृतिकार और मास्टर शौमैन थे।'
संगीत राज कपूर के संपूर्ण सिनेमा की एक बुनियादी ताकत रहा। शैलेंद्र, मुकेश और शंकर-जयकिशन उनके सबसे करीबी दोस्तों में तो शुमार थे ही, ताउम्र आरके फिल्म्स से भी जुड़े रहे। इन चारों के बगैर शोमैन खुद को अधूरा मानते थे। हसरत जयपुरी, राम गांगुली, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और रविंद्र जैन ने भी उनकी कई फिल्मों में काम किया।
आरके स्टूडियो के आगे बना कॉटेज उनका सामान्य कार्यस्थल था। इसे राज कपूर ने स्टूडियो से भी पहले बनवा लिया था। कॉटेज में वह धरती पर पालथी मार कर बैठते थे। जिन्होंने वह कॉटेज देखा है, उनके मुताबिक, कॉटेज की दीवारों पर दुनिया के तमाम धर्मों के देवताओं और पैगंबरों, पृथ्वीराज कपूर की एक पुरानी, 'आवारा' में नरगिस की, 'जिस देश में गंगा बहती है' में पद्मिनी की और 'संगम' में वैजयंती माला की तस्वीरें लटकी होती थीं। कुछ ऐसे फोटो भी थे, जिनमें वह शैलेंद्र, शंकर-जयकिशन, मुकेश और लता मंगेशकर के साथ नजर आते थे।
जिस आर के स्टूडियो को धरोहर का दर्जा मिलना चाहिए था, वह पूंजी के आवारा खेल में बिल्डरों के हत्थे चढ़ गया और अब वहां फ्लैट बन रहे हैं। आरके स्टूडियो के हर छोटे-बड़े कर्मचारी के लिए वह सदा अभिभावक की मानिंद रहे। अपने साथ काम करने और न करने वालों के लिए भी सदैव तत्पर। एक रोज बड़े जोरों की बारिश हो रही थी और शैलेंद्र राज कपूर को अपने झोपड़ीनुमा घर ले गए। छत बेतहाशा टपक रही थी। शैलेंद्र ने कहा, 'अब आपको पता चला कि हम लोग कैसे रहते हैं?' राज कपूर थोड़ी देर खामोश रहे और फिर जवाब दिया, 'इसी तरह के कमरों में ही असली भारत रहता है। मैं इसके लिए कुछ-न-कुछ करूंगा।
कपूर साहब को मिले सम्मानों में दादा साहब फाल्के पुरस्कार, सोवियत लैंड-नेहरू अवॉर्ड, पद्म भूषण, राष्ट्रपति द्वारा प्रदत गणतंत्र दिवस सम्मान, अंतरराष्ट्रीय स्तर का ग्रांड प्रिक्स पुरस्कार, कारलोवि वैरी सम्मान और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार शामिल हैं। बेशक राज कपूर मैट्रिक (की औपचारिक शिक्षा) से आगे नहीं जा पाए और इसका उन्हें रत्ती भर मलाल भी नहीं था, लेकिन वे खुद में सिनेमा का एक ऐसा बड़ा स्कूल बने, जिसे भुला देना आसान नहीं।
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