सिमट कर लोगों की ‘हथेली’ में आ गई एंटरटेनमेंट की दुनिया, नई ‘डिश’ परोसने का बस यही है एक मौका
एक बात जो हम सबने देखी है, और जो हम सब महसूस कर रहे हैं, वह यह कि पहली बार मोबाइल पर ढेर सारी फिल्में देखी जा रही हैं। कुछ ऐसी फिल्में भी लोग देख रहे जो हम सामान्य परिदृश्य में शायद नहीं देखते।
लॉकडाउन पर हर तरह के लेखन, ज्ञान, हंसी-मजाक आदि की भरमार सोशल मीडिया में हर जगह है। इन सब के बीच जो एक गंभीर बात सामने आती है, वो यह कि कोरोना और लॉकडाउन हमारे जीवन जीने के तरीके में कई तरह के बदलाव ला सकता है। अभी तो यह एक अनुमान मिश्रित ज्ञान लग रहा है लेकिन आगे क्या होगा, यह आगे ही पता चलेगा। अभी तो ऐसा लग रहा है जैसे यह श्मशान में बैठे मनुष्य के अंदर आया क्षणिक वैराग्य है जो मुर्दे को जलाकर बाहर आते ही खत्म हो जाता है।
बहरहाल, एक बात तय है। सिनेमा और मनोरंजन देखने का तरीका बदल जाएगा। और इसी एक बात का बड़ा भय सिनेमा वालों को अभी सबसे ज्यादा सता रहा है। अगर इस लंबे लॉकडाउन और उसके बाद की सामाजिक व्यवहारिक बंदिशों ने सिनेमा देखने की आदतों को बदल दिया, तो? अगर लोगों को अपने मोबाइल पर ही हर तरह की फिल्में देखने में ज्यादा मजा आने लग गया, तो? तो फिर सिनेमा हॉल का क्या होगा? बड़ी-बड़ी फिल्मों का क्या होगा?
फिर कहना चाहूंगा, यह एक काल्पनिक परिदृश्य है- ऐसा होगा, तो क्या होगा? ऐसा न हुआ, तो क्या होगा? हां, एक बात जो हम सबने देखी है, और जो हम सब महसूस कर रहे हैं, वह यह कि पहली बार मोबाइल पर ढेर सारी फिल्में देखी जा रही हैं। कुछ ऐसी फिल्में भी लोग देख रहे जो हम सामान्य परिदृश्य में शायदन हीं देखते। लोग वेब सिरीज भी देख रहे हैं। लॉकडाउन का नतीजा यह हुआ है कि जितने भी स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म हैं- अमेजन प्राइम, नेटफ्लिक्स, वूट, डिज्नी, हॉटस्टार...इन सबकी व्यूअरशिप बढ़ काफी गई है। हाल में एक वेब सिरीज आई है। नाम है ‘पंचायत’। मेरा खयाल है कि अगर यह लॉकडाउन का मामला न होता तो शायद लोगों की इस पर नजर भी नहीं जाती। लेकिन खाली होने की वजह से लोगों ने इसे देखा। और जब देखा तो खूब पसंद किया। उन्हें लगा कि अरे, ऐसी भी वेब सिरीज है जिसमें जबरन मार-कुटाई, गाली- गलौज, सेक्स वगैरह का तड़का गायब है। गांव की कहानी है। हल्के-फुल्के तरीके से कही गई है। अभिनय जोरदार है। इसे अच्छे रिव्यूज भी मिले हैं।
हमें लगता है कि इसका बड़ा फायदा मिलेगा। अमेजन प्राइम जिस पर यह सिरीज उपलब्ध है, वह यह पक्का सोचेगा कि जब ऐसे सिरीज लोगों को पसंद आ रहे हैं तो फिर हमें आगे भी ऐसे सिरीज बनाने चाहिए-ऐसे सिरीज जो गांव, देहात, कस्बों की कहानियां कहें, इस अंदाज से कहें जो वास्तविकता के करीब हो। जिनमें कुछ नयापन हो। अगर आप देखें, तो हिंदी सिनेमा ने हाल में जो काम छोटे कस्बों की कहानियां कह कर किया है, वही काम वेब सिरीज बनाने वाले गांव की कहानियां बना कर कर सकते हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि क्या गांव की कहानियों में आम लोगों की दिलचस्पी होगी? जब पहली बार ‘पंचायत’ का कॉन्सेप्ट लेकर इसका प्रोड्यूसर स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म के पास गया होगा तो उससे इसी तरह के सवाल किए गए होंगे। इसे कोई देखेगा क्या? हाल में एक इंटरव्यू में फिल्मकार शुजीत सरकार ने कहा कि जब वह ‘विकी डोनर’ बना रहे थे तो फिल्म में पैसा लगने वाले समेत अन्य कई समझ रहे थे कि वे कोई अश्लील फिल्म बना रहे हैं। बाद में पता चला कि यह न केवल एक कल्ट फिल्म साबित हुई बल्कि इसने आयुषमान खुराना का भविष्य तय कर दिया।
अभी एक प्रोड्यूसर मित्र ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं उनके एक प्रस्तावित यूट्यूब चैनल के लिए कुछ नया सोचूं। उन्होंने कुछ सबसे लोकप्रिय यूट्यूबर के लिंक्स भेजे। मैं दो-चार को ही देख पाया, वह भी बड़ी मुश्किल से। सेंस ऑफ ह्यूमर के नाम पर भद्दे-पिटे हुए जोक्स, वन लाइनर्ज के नाम पर गंदी गालियों से भरे हुए संवाद! इनका एक ही मकसद है। किसी तरह हिट्स मिल जाएं। सब्ज़क्राइबर्स बढ़ जाएं। बस, टारगेट है यूथ! यूथ! और यूथ! दरअसल, यह भी एक अजब-गजब सी सोच है। बल्कि बड़ी गलत फहमी है कि यूथ चूंकि इस मुल्क में सबसे ज्यादा हैं तो उन्हें फंसाया जाए, उनके लिए फिल्में बनाई जाएं, उनके लिए सिरीज बनाए जाएं, उनके लिए यूट्यूब शोज बनाए जाएं...तभी विज्ञापन आएंगे, तभी सिनेमा की टिकटें बिकेंगी, तभी यूट्यूब से पैसा आएगा। कमाल है। जैसे, इस देश में सिर्फ युवा ही बसते हैं। बच्चे, औरतें, उम्र दराज, अधेड़, सीनियर सिटीजन... इन सबका कोई अस्तित्व ही नहीं है! और... सारे युवा भी एक जैसे ही होते हैं। छिछोरे और लंपट!!
अरे भाई, एक बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की है जिन्हें अच्छा मनोरंजन भाता है। वे बोलते समय हर वाक्य में चार गालियां नहीं देते। उनका सारा समय दारू पीने और सेक्स करने या उसकी बात करने में नहीं बीतता। वे हमेशा चाकू-छुरी लेकर नहीं चलते। रहम करो, मेरे भाई। रहम करो! इतनी गंध न फैलाओ कि बाद में झाड़ू देते-देते लोगों की जान चली जाए। सीधी-सी बात है कि जब तुम इसी बात का रोना रोते रहोगे कि आजकल लोग ‘यही’ देखना चाहते हैं तो तुम सिर्फ ‘यही’ बनाओगे। लेकिन अगर तुम इस थ्योरी को मानते हो कि भाई, जब पब्लिक के सामने खराब ही परोसोगे और उसके साथ कोई विकल्प नहीं दोगे तो मजबूरन उसे वही खाना पड़ेगा जो तुमने परोसा है। कोई नई डिश परोस कर तो देखो। हां, ऐसा भी न हो कि नई डिश ऐसी बकवास तरीके से बनाई गई हो कि आदमी पहले ही निवाले को थू-थू करते हुए फेंक डाले!
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