कहानी तो ‘दो बहनों’ के झगड़े की है, लेकिन राजनीति के मानवीय पहलू और गूंगे-बहरे होते समाज की तस्वीर है ‘पटाखा’
फिल्म एक नीतिकथा की तरह चलती है, लेकिन निर्देशक फिल्म के अंत में कहानी के ‘सबक’ के अलावा बहुत कुछ और भी कह जाते हैं। चरण सिंह पथिक की कहानी ‘दो बहनों पर आधारित इससे अच्छी और अपनी बात कहती फिल्म शायद ही कोई और बना पाता।
‘पटाखा’ में निर्देशक विशाल भारद्वाज बतौर निर्देशक अपने पूरे तेवर में दिखाई दिए हैं। अगर आपने बचपन में कभी अपने भाई-बहनों से प्रतिद्वंद्वता का अनुभव किया है तो आपको छुटकी यानी गेंदा (सान्या मल्होत्रा) और बड़की यानी चंपा (राधिका मदान) बहुत पसंद आएंगी।
वो बिल्लियों की तरह लड़ती हैं, और लड़ाई में अगर उनके बापू बीच बचाव करने आ जाएं तो उन्हें भी लपेट लेती हैं। उन्हें अपने आसपास इकठ्ठा हुई शोर मचाती भीड़ का भी कोई ख्याल नहीं रहता। ऐसा लगता है मानो एक-दूसरे से लड़ाई करना उन्हें बहुत भाता है और वो कोई न कोई मौका ढूंढती रहती हैं उलझने के लिए। लेकिन खुदा ना खास्ता, अगर कोई और बीच में आ जाये, चाहें वो उनका चहेता दोस्त डिपर ही क्यों ना हो, तो वे एकदम से एक हो जाती हैं।
लेकिन वो दोनों इतना लड़ती क्यों हैं? यहां तक कि उन पर जान छिड़कने वाला उनका बापू भी यही पूछता है। डिपर एक मजाकिया सी वजह बताता है –दोनों बहनें भारत-पाकिस्तान की तरह हैं, जो एक-दूसरे से लड़ने का बहाना ढूंढते रहते हैं - लेकिन इस मज़ाक में गहरे मानी भी छिपे हैं। बार-बार भारत-पाकिस्तान का ज़िक्र, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का ये कथन कि आप अपने दोस्त तो चुन सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं, रिश्ते तो चुन सकते हैं, लेकिन रिश्तेदार नहीं -के भी गहरे अर्थ हैं। यहाँ तक कि पृष्ठभूमि में आलिंगनबद्ध प्रधानमंत्री मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का पोस्टर भी किसी राजनीतिक व्यंग्य से कहीं ज्यादा राजनीतिक टिप्पणी करता नज़र आता है।
और आखिर में, कहानी सुनाने वाले के ज़रिये विशाल राजनीति के प्रति अपने मानवीय नज़रिए को स्पष्ट कर देते हैं।
ग्रामीण किरदारों, पृष्ठभूमि और ग्रामीण कच्चेपन में छिपी परिपक्वता को परदे पर उतारने में विशाल भारद्वाज माहिर हैं। ना सिर्फ पूरी फिल्म का माहौल, और किरदार बल्कि संवादों और मेकअप की सूक्ष्मताओं, यहां तक कि बीड़ी पीने वाली दोनों बहनों के पीले दांतों तक का ख्याल रखा गया है।
शहरी पृष्ठभूमि से होने के बावजूद अदाकारा सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान दोनों ने ग्रामीण बोली, और हाव-भाव बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से निभाए हैं। जब ये दोनों बहनें डिपर के कहने पर अपने पतियों के बीच (जो भाई हैं) लड़ाई और बंटवारा करवा देती हैं, तो एक बार फिर भारत-पाक का ज़िक्र होता है, जो मूलतः एक होते हुए भी अलग-अलग हैं।
एक सीक्वेंस में गाय का भी बहुत प्रतीकात्मक और सटीक इस्तेमाल किया गया है, जो आजकल हमारे देश में काफी संवेदनशील मुद्दा बन गया है। लेकिन सभी कुछ ग्राम सुलभ सरलता, मासूमियत और भलमनसाहत से भरा दीखता है - ये एक और खासियत है निर्देशक की, कि वे बड़ी मासूमियत से बहुत गहरी बात कह जाते हैं।
अलग होने के बाद भी दोनों बहनों में एक-दूसरे का ख्याल छूटता नहीं, बल्कि और मज़बूत हो जाता है, इतना कि दोनों बीमार हो जाती हैं- एक की आवाज़ चली जाती है तो दूसरी की नज़र। जब डॉक्टर दोनों की बीमारी को मनोवैज्ञानिक बताते हैं, तो एक बार फिर ये सवाल कौंधता है, क्या निर्देशक हमारे समाज की तरफ इशारा कर रहा है? (बेशक हाँ!)
फिल्म की कास्टिंग गज़ब है। सुनील ग्रोवर गुत्थी और डॉक्टर मशहूर गुलाटी की भूमिका में टीवी पर काफी मशहूरी हासिल कर चुके हैं। इस फिल्म में उन्होंने साबित कर दिया है कि वो एक अच्छे अदाकार भी हैं। विजय राज़ एक अच्छे और प्रभावपूर्ण अभिनेता हैं ही। लेकिन इस फिल्म की असल ताकत हैं सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान और इन दोनों बहनों के पति के रोल में अभिषेक दुहन और नामित दास।
हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म की रफ़्तार थोड़ी धीमी पड़ती है, लेकिन कहानी, किरदार और ग्रामीण ह्यूमर के मद्देनज़र इतना तो बर्दाश्त किया ही जा सकता है। हालांकि जाहिर तौर पर फिल्म एक नीतिकथा की तरह चलती है, लेकिन निर्देशक फिल्म के अंत में कहानी के ‘सबक’ के अलावा बहुत कुछ और भी कह जाते हैं। चरण सिंह पथिक की कहानी ‘दो बहनों पर आधारित इससे अच्छी और इतने विभिन्न लेवेल्स पर अपनी बात कहती फिल्म शायद ही कोई और बना पाता।
(पुनश्च—ये सिनेमा हाल वाले फिल्म से पहले राष्ट्रीय गान बजाना कब बंद करेंगे? ये बहुत अजीब लगता है और अब ये अनिवार्य भी नहीं रहा। शायद फिल्म हॉल प्रबंधन को साफ़-साफ़ निर्देश दिए जाने की ज़रुरत है!)
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