‘पद्मावती’ को कहानी की तरह देखें, इतिहास की तरह नहीं

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’ के रिलीज में दिक्कतें आ रही हैं। चित्तौरगढ़ में फिल्म के खिलाफ लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया और हिंसा की आशंका की वजह से शहर में स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए।

फोटो: सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’ बनने के दौरान भी विवादों में घिरी रही और अब उसके रिलीज में भी दिक्कतें आ रही हैं। चित्तौरगढ़ में फिल्म के खिलाफ लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया और हिंसा की आशंका की वजह से शहर में स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए। राजपूत करणी सेना नाम का संगठन जोर-शोर से इस फिल्म का विरोध कर रहा है। विरोधियों का कहना है कि फिल्म में रानी पद्मावती के किरदार को ठीक से नहीं दर्शाया गया है और रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच प्रेम-दृश्य भी फिल्माए गए हैं।

14वीं-15वीं सदी के सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने प्रसिद्ध काव्य ‘पद्मावत’ में इस कहानी का बहुत खूबसूरती से बयान किया है। सूफी साहित्य में मिथकों, लोक-कथाओं और इतिहास के किरदारों को लेकर कहानी बुनने का चलन था। इनके दार्शनिक और आध्यात्मिक मायने होते थे।

अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का एक अहम बादशाह था। हालांकि, इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं कि अलाउद्दीन खिलजी कभी रानी पद्मावती पर मोहित हुआ था और राजपूत रानी ने इस बादशाह के सामने समर्पण करने से इनकार कर आत्मदाह कर किया था।

14वीं-15वीं सदी के सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने प्रसिद्ध काव्य ‘पद्मावत’ में इस कहानी का बहुत खूबसूरती से बयान किया है। सूफी साहित्य में मिथकों, लोक-कथाओं और इतिहास के किरदारों को लेकर कहानी बुनने का चलन था। इनके दार्शनिक और आध्यात्मिक मायने होते थे।

यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि रानी पद्मावती का भी इतिहास में कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन लोक साहित्य में इस कहानी का बार-बार जिक्र आता है। राजपूतों के शौर्य और वीरता का बखान करते वक्त रानी पद्मावती का भी जिक्र जरूरी तौर पर होता है।

फिल्म के बारे में कोई भी राय बनाने से पहले फिल्म देखी जानी चाहिए। फिल्म को इतिहास का प्रतिबिम्ब न मानते हुए उसे ‘फिक्शन’ और महज एक कहानी के तौर पर देखना जरूरी है। पहले भी इस तरह की फिल्में बन चुकी हैं।

यही वजह है कि राजपूत करणी सेना को फिल्म से आपत्ति है। यह एक विडंबना है कि मिथकों और लोक कथाओं में मशहूर एक रानी पर लिखे गए काव्य पर आधारित फिल्म को लेकर लोगों में आक्रोश है।

फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म को बचाने के लिए 160 करोड़ का बीमा करा रखा है। फिल्म के बारे में कोई भी राय बनाने से पहले फिल्म देखी जानी चाहिए। फिल्म को इतिहास का प्रतिबिम्ब न मानते हुए उसे ‘फिक्शन’ और महज एक कहानी के तौर पर देखना जरूरी है। पहले भी इस तरह की फिल्में बन चुकी हैं। हाल में बनी ‘बाजीराव मस्तानी’ और कुछ साल पहले आई ‘जोधा अकबर’ को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। इन फिल्मों में मशहूर लोक कथाओं को और उनके काल को परदे पर उतारने की कोशिश की गयी है - इनमें इतिहास का अंश बहुत ज्यादा नहीं है।

कल्पना और यथार्थ के मिश्रण की आजादी रचनात्मकता की पहली शर्त होती है। तभी एक रचना, चाहें वह फिल्म हो, कहानी या कविता - उत्कृष्टता के नए आयामों तक पहुंचती है। इसलिए जरूरी है कि इस फिल्म पर उठाये जा रहे बेमतलब के विवादों को न बढ़ाया जाए।

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