जन्मदिन विशेष : लता मंगेशकर होने के मायने
लता मंगेशकर ने हिंदी फिल्म संगीत को इतना प्रभावित किया है कि किसी दूसरी गायिका की उनसे तुलना किये बिना उनकी काबिलियत को आंकना बहुत मुश्किल है। उनके जन्मदिन पर मौका है संगीत पर उनके प्रभाव को समझने का
1991 में मुझे मौका मिला था संगीतकार अनिल बिस्वास से मिलने का. मुझे साथ ले जाने वाले पत्रकारों के साथ मेरी यह मूक सहमति थी कि मैं कुछ भी नहीं बोलूंगी। मुझे अनिल बिस्वास के बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी इसलिए मैं सहर्ष राज़ी हो गयी। वह इंटरव्यू आज भी मेरी स्मृति में अंकित है। उन बहुत सी बातों के अलावा जो अनिल बिस्वास से बात करते हुए मालूम हुयीं, लता मंगेशकर के बारे में उन्होंने जो कहा वह आज तक भूला नहीं है। अनिल बिस्वास ने बताया था कि किस तरह किशोरी लता घंटों उनके यहाँ बैठ कर रियाज़ किया करती थीं- न सिर्फ गाने कि बल्कि उर्दू शब्दों के तलफ्फुज की भी। यही वजह है कि उनके गानों में कहीं भी उनका मराठी उच्चारण नहीं झलकता।
अनिल बिस्वास ने ही उन्हें प्रोत्साहित किया था कि वे अपनी मूल शैली में ही गायें और उस वक्त की मशहूर गायिका नूर जहाँ की नक़ल ना करें। जब संगीत निर्देशक गुलाम हैदर ने लता से शहीद फिल्म के गाने गवाने की बात की, तो फिल्म निर्देशक शशिधर मुखर्जी ने यह कह कर बात को टाल दिया कि लता की आवाज़ बहुत पतली है। तब गुलाम हैदर ने कहा था कि जल्द ही फिल्म डायरेक्टर और म्यूजिक कम्पोजर उनके सामने लाइन लगा कर खड़े होंगे और उनकी मनुहार करेंगे कि वे उनकी फिल्म में गायें। यह बात सच साबित हुयी।
एक लम्बे अरसे तक मंगेशकर बहनों का हिंदी फ़िल्मी संगीत में वर्चस्व रहा। लता की आवाज़ में मासूमियत, रोमांटिसिज्म और गहराई थी तो आशा की आवाज़ मादक और उल्लास लिए। मंगेशकर बहनों की वजह से सुमन कल्यानपुर, मुबारक बेगम और हेमलता जैसी कई अन्य काबिल गायिकाओं को मुनासिब जगह नहीं मिल पायी। बाद में अनुराधा पौडवाल ज़रूर अपनी गायकी से अपने लिए कुछ जगह बना पायीं।
अनिल बिस्वास के साथ ही लता को सी रामचंद्रन से मिलने का मौका मिला और दोनों की जोड़ी ने कुछ अविस्मरणीय गीत फिल्म इंडस्ट्री को दिए।
शुरुआत में लता की आवाज़ की खासियत ये रही कि यह एक बेहद नाज़ुक आवाज़ थी और निचले स्वर में उनके गीत मन को छू जाते थे। बाद में लक्ष्मी कान्त प्यारे लाल की जोड़ी ने उनसे ऊंचे स्वर में गवाना शुरू किया, क्योंकि उनके संगीत का स्केल ही ऊंचा था। ड्रम और ढोलकी की ताल पर ऊंचे स्केल पर गाना ही अनुकूल लगता था।
लता फ़िल्मी संगीत के इस बदलते ढर्रे में भी ढल गयीं। एलपी के गाने बहुत लोकप्रिय हुए, आज भी हैं। लेकिन इसके चलते लता की आवाज़ की कोमलता गायब हो गयी। वह कोमलता जो आपको स्थिर पानी में एक पत्थर डालने से हुयी हलचल, और हवा में सरसराती पत्तियों का एहसास दे जाती थी.
आज उन्हें संगीत की देवी माना जाता है और यह बात किसी भी हिंदी फ़िल्मी संगीत के चाहने वाले को पसंद नहीं आती, लेकिन सच ये है कि इतनी मधुर आवाज़ ऊंचे स्केल पर गाते हुए अपनी कोमलता छोड़ तीखी हो जाती थी और 2004 में वीर ज़ारा तक आते आते उस स्केल पर लता की आवाज़ लहराने लगी थी।
इस सबके बावजूद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि करीब २५,००० गीतों को आवाज़ देने वाली लता मंगेशकर ने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है। उनकी जैसी आवाज़ ईश्वर की देन ही कही जा सकती है, जिसे उन्होंने अपने अथक रियाज़ से सुरों में इतना ढाल लिया कि वे सुरीले होने का मापदंड बन गयीं। फ़िल्मी संगीत चाहे जितना बदल जाए, लेकिन लता पीढ़ी दर पीढ़ी गायिकाओं के लिए एक मील का पत्थर रहेंगी। उनके गानों को चाहें जितने लोग, जितनी बार, जितनी तरह से गायें- उनका स्वर हमेशा माहौल में गुनगुनाता ही रहेगा.
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