सिनेमा को हमारे समय का ‘मेहतर’ होना होगा
चार दशकों में न सिनेमा का नज़रिया बदला, न समाज का। इसके बावजूद कुछ फिल्में समाज की सच्चाइयों को बेपर्दा करती रही हैं।
स्त्री अधिकारों के तमाम आंदोलनों के बावजूद, स्त्री भारतीय समाज में पुरुष के बाद की ही नागरिकता है। इसलिए जब मैरिटल रेप के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया, तो मोदी सरकार हताश थी। हालांकि यह फ़ैसला अपने आप में इस बात की तस्दीक़ है कि क़ानूनन जुर्म होने के बाद भी हिंदुस्तान में बाल विवाह एक सच्चाई है। मैरिटल रेप के ख़िलाफ़ क़ानून सिर्फ 15 साल तक की पत्नी पर ही लागू होगा। जहां लड़कियों के विवाह की उम्र ही क़ानूनी तौर पर 18 साल निर्धारित है, यह फ़ैसला बहसतलब है। बहस हो भी रही है, लेकिन सुनवाई कहां है!
कुछ ज़ुल्म-ओ-सितम सहने की आदत भी है हमको
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है...
[ज़िया ज़मीर]
बहरहाल हम इसी फ़ैसले के मद्देनज़र भारतीय समाज में स्त्री को लेकर सरकारी बर्ताव का ज़िक्र करें, तो सरकार ने कोर्ट से यह फ़ैसला भी न करने की अपील की थी। लेकिन सरकार की इस दलील को कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया कि मैरिटल रेप के ख़िलाफ़ क़ानून का स्त्रियां ग़लत इस्तेमाल कर सकती हैं। यहां यह साबित होता है कि सरकार का नज़रिया उस हिंदुवादी परंपरा से अलग नहीं है, जिसमें एक पुरुष किसी भी क़ीमत एक स्त्री को हासिल कर सकता है। पिछले दिनों एक फिल्म आयी थी, बाहुबली। उसमें नायिका की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नायक उसे टीज़ करता है, उसके कपड़े उतारता है और अंतत: ज़बर्दस्ती अपना प्रेम हासिल करता है। ऐसे दृश्य हिंदी फिल्मों में आम हैं। शायद इसलिए भी कि ऐसे ही दृश्यों वाली मानसिक बीमारी से हमारा समाज भी जूझ रहा है। यही मानसिकता दंगों के वक़्त काम करती है, जिसमें महिलाएं सबसे आसान शिकार होती हैं। गुजरात दंगों की याद तो अभी भी ताज़ा है, जिसमें स्त्रियों के पेट में पल रहे शिशुओं तक को नहीं छोड़ा गया।
हिंदी फिल्मों में स्टाकिंग गरिमा और आह्लाद के साथ दिखायी जाती है। दर्शकों को ये भाती भी है। दर्शक जो कि भीड़ है। भीड़ जो कि अपनी सरकार चुनती है। यानी जो अस्वाभाविक है, उसे भारतीय समाज में स्वाभाविक स्वीकृति हासिल है। 1975 में आयी शोले में धर्मेंद्र हेमा मालिनी को स्टाक करता है और 2013 में रीलीज़ हुई रांझना में धनुष सोनम कपूर को स्टाक करता है। चार दशकों में न सिनेमा का नज़रिया बदला, न समाज का। इसके बावजूद कुछ फिल्में समाज की सच्चाइयों को बेपर्दा करती रही हैं।
चूंकि मैरिटल रेप एक नयी शब्दावली है, इसलिए सिनेमा ने इस मसले को बहुत खंगाला नहीं है। 1993 में बुद्धदेब दासगुप्ता की एक बांग्ला फिल्म आयी थी, चराचर। इसका नायक पंछियों का शिकार करता है और उसकी बीवी भी एक पंछी की तरह उसके यहां क़ैद है। पति के साथ शारीरिक रिश्ते को वह मना नहीं कर सकती, इसलिए सहवास के वक़्त एकदम शिथिल और निष्प्राण रहती है। अंतत: अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है। भारतीय सिनेमा में मैरिटल रेप का यह सजीव उदाहरण था। बाकी इस मसले पर खामोशी ही दिखती है। यह एक एेसा विषय है, जिसकी कहानी कहना थोड़ा ज़ोख़िम भरा भी है। जिस बात की चिंता हमारी सरकार को है, लगभग उसी बात की चिंता हमारे सिनेमा को भी है।
सरकार नहीं चाहती कि मैरिटल रेप का क़ानून प्रभावी तरीक़े से बने, क्योंकि इससे विवाह-संस्था को ख़तरा हो सकता है। ठीक इसी तरह हमारा सिनेमा बहुसंख्यक समाज की मानसिक बुनावट से बग़ावत नहीं कर सकता, क्योंकि इससे बाज़ार प्रभावित हो सकता है। लेकिन समंदर में ज्वार इस क़दर है कि आज नहीं कल सिनेमा का चेहरा बदलेगा।
इसी साल रीलीज़ हुई फिल्म लिप्सटिक अंडर माइ बुर्क़ा इसका उदाहरण है। इस फिल्म की एक किरदार को इस अपराध की शिकार दिखाया गया। इसकी निर्देशक हैं अलंकृता श्रीवास्तव। पिछले साल सितंबर में रीलीज़ हुई फिल्म पार्च्ड में दो किरदार हैं, जो मैरिटल रेप की शिकार है। एक बालिग, एक नाबालिग। पार्च्ड की निर्देशक हैं लीना यादव। यानी दोनों ही फिल्में स्त्री निर्देशक के नज़रिये से बनी है। यह वही नज़रिया है, जिसके ख़िलाफ़ धार्मिक पुरुष समाज मुखर दिखता है और हमारी सरकार भी ज़्यादातर इसी नज़रिये के ख़िलाफ़ नज़र आती है। जैसे जैसे साहित्य और सिनेमा में स्त्री का स्वर मज़बूत होगा, इस तरह की सामाजिक विसंगतियों से परदा उठेगा। ये ठीक वैसी ही बात है कि दलित साहित्य ने दलितों के सामाजिक हालात को ज़्यादा मौलिक अंदाज़ में रेखांकित किया है।
राखी शांडिल्य भी महिला फिल्मकारों की क़तार में हैं, जिनकी पहली फिल्म रिबन इस साल रीलीज़ हो सकती है। यह फिल्म भी अनवांटेड प्रेगनेंसी (अवांछित गर्भ) की मुश्किलों पर आधारित है।
एक और फिल्म मेरे ज़ेहन में आती है, वह है सुधीर मिश्रा की इनक़ार। सहजीवन में संशय और कंसेंट की यह कहानी सीधे सीधे मैरिटल रेप की कहानी तो नहीं है, लेकिन लगभग लगभग उसी खांचे में फिट होती है। हिंदुस्तानी सिनेमा को भारतीय समाज का छिपा हुआ दारुण स्वर पहचानना होगा। मुक्तिबोध की एक कविता की पंक्ति है:
जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।
सरकार और सेंसर की बाधाओं के बाद भी हमारे सिनेमा को हमारे समय और हमारे समाज का मेहतर होना होगा।
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