बदल गया है हिंदी सिनेमा का राष्ट्रवाद
आजादी के बाद हिंदी फिल्मों में एक नए समाज का निर्माण ही देशप्रेम और राष्ट्रवाद का सबसे अहम विमर्श था जो सामाजिक परिवर्तन और सुधार से गहरे रूप से जुड़ा था।
1957 में बनी ‘मदर इंडिया’ का पहला दृश्य बहुत से फिल्म-प्रेमियों को याद होगा जिसमें फिल्म की नायिका नर्गिस एक क्लोजअप में थोड़ी सी मिट्टी माथे पर लगाए हुए दिखती है और पृष्ठभूमि में चलते ट्रैक्टर के साथ एक गीत बजता है: ‘धरती माता हम जीवन भर तेरे ही गुण गायेंगे।’ उसी वर्ष आई फिल्म ‘नया दौर’ में गांव के लोगों द्वारा सड़क बनाने का एक प्रसंग है और फिल्म का नायक दिलीप कुमार एक कोरस में गा रहा है: ‘साथी हाथ बढ़ाना/ एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना।’ इन दोनों फिल्मों में एक नए बनते भारत के बिंब थे और नेहरू युग का यूटोपिया था। ‘मदर इंडिया’ नाम ही मिस मेयो की भारत-निंदक किताब के जवाब के तौर पर रखा गया था। यह फिल्में आजादी के सिनेमाई रूपकों की तरह थी: ‘मदर इंडिया’ में गांव के लोग आजाद भारत की प्रतीक बन चुकी एक मां से खुशहाली लानेवाली नहर का उद्घाटन करने को कहते हैं तो ‘नया दौर’ में तांगेवाले सूरज के तांगे और कुंदन के बस की रोमांचक प्रतियोगिता होती है जिसमें अंततः और अविश्वसनीय ढंग से टांगे की जीत होती है। दरअसल उस दौर की बहुत सी फिल्मों में औपनिवेशिक मुक्ति के बाद एक नए समाज की तामीर ही देशप्रेम और राष्ट्रवाद का सबसे अहम विमर्श था जो नेहरू युग के विकास के स्वप्नों और गरीब-अमीर के बीच सौहार्द भरे सहकार और सह-अस्तित्व की उदात्त परिकल्पना से बना था।
इसके साक्ष्य सैकड़ों फिल्मी गीतों में व्यक्त हुए हैं। वे सभी उम्मीदों के गीत थे: ‘छोड़ो कल की बातें/ कल की बात पुरानी/ नए दौर में लिक्खेंगे हम मिलकर नयी कहानी’ (हम हिन्दुस्तानी, 1960)), ‘मेरा जूता है जापानी/ ये पतलून इंगलिसतानी/ सर पे लाल टोपी रूसी/ फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ (श्री 420, 1955)), ‘हम उस देश के वासी हैं/जिस देश में गंगा बहती है’ (जिस देश में गंगा बहती है, 1960), ‘ऐ मेरे प्यारे वतन/ ऐ मेरे बिछुड़े चमन’ (काबुलीवाला, 1961)), ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं’ (लीडर, 1963) जैसे गीत आज भी बीते जमाने के नहीं लगते। शायद देशप्रेम के गीतों की बुनियाद ‘जागृति’ (1964) ने रखी थी, जिसके तीन गीत - ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं’, ‘हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के’ और ’दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’ – बेहद लोकप्रिय हुए और यह फिल्म लंबे समय तक स्कूलों में दिखलाई जाती रही। इसी दौर में राजकपूर की ‘बूट पॉलिश’ (1954) आई जिसमें शैलेन्द्र के गीत ने एक मासूमियत और संकल्प के साथ देश के भविष्य को एक बच्चे की मुट्ठी में लक्षित किया था: ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है/ मुट्ठी में है तकदीर हमारी।’
देशप्रेम के ये बिम्ब समाज में परिवर्तन और सुधार से गहरे जुड़े थे। ‘दो बीघा जमीन’, ‘नया दौर’, ‘मदर इंडिया’ और ‘सुजाता’ जैसी फिल्मों की रूपकीयता देश के सबसे बड़े अभिशापों – महाजनी व्यवस्था, जमींदारी, भूमि के असमान बंटवारे और छुआछूत को सीधे संबोधित करती थीं। निस्संदेह वे सभी व्यावसायिक फिल्में थीं, लेकिन उनमें नए भारत की तामीर होती दिखती थी। यही वह राष्ट्रवादी जज्बा था, जो बस और टांगे की दौर और एक गांव में नहर के उद्घाटन में दिखाई देता था। फिल्मों में राष्ट्रीय भावना का अर्थ नेहरू युग के जज्बे के अनुरूप सामाजिक बुराइयों से मुक्त करने का था। महान उपन्यासकार प्रेमचंद ने आजादी से पहले अपनी कृतियों में इन्हीं समस्याओं को देश की सबसे भीषण बुराइयों के रूप में चित्रित किया है। बी आर चोपड़ा, महबूब और बिमल राय उस बनते हुए भारत की सिनेमाई बुनियाद रख रहे थे। हिंदी सिनेमा के पर्दे पर तब एक निर्माणाधीन हिन्दुस्तान की तीन स्वप्न-धाराएं प्रवाहित हुईं। दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद की त्रिमूर्ति देश और समाज के यौवन और उसके ख्वाबों को अभिव्यक्त करती थी। दिलीप कुमार और राजकपूर की कई फिल्मों में बार-बार देश, समाज और उसके नागरिकों के संघर्षों और स्वप्नों का उम्मीद-भरा चित्रण है, और देव आनंद के प्रेमी किरदार भी एक युवा उल्लास के साथ दुखों को भूल कर आजाद होने का उत्सव मनाते हैं: ‘मैं हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’ (हम दोनों, 1961)।
हिंदी सिनेमा में देशप्रेम का जज्बा बाद में वह नहीं रहा जिसमें समाज की गड़बड़ियों को मिटाने का बात होती थी। शायद ‘हकीकत’ (1964) पहली फिल्म थी जिसने भारत-चीन युद्ध के चित्रण के जरिए राष्ट्रीय भावना के स्वरूप में बदलाव किया और उसे सरहद और भूगोल तक महदूद कर दिया। ‘कर चले हम फिदा जानोतन साथियों’ और ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ जैसे गीत नए राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति बन गए जिसने हताश प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आखों में भी आंसू ला दिए थे। नेहरू युग के स्वप्नों के टूटने के साथ यह लगा कि अब भारत में तामीर करने के लिए नया कुछ नहीं बचा है और कुल मिलाकर देश की सरहदों की रक्षा ही राष्ट्रवाद का एजेंडा बन गया। मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार की कई फिल्में इसी अंध-राष्ट्रवादी भावना को विस्तार देने वाली थीं। बाद के वर्षों में आई ‘बॉर्डर’ और ‘गदर’ जैसी फिल्में इसी कतार में शामिल हैं। भगत सिंह और मंगल पांडे जैसे शहीदों पर बनी फिल्में जरूर थोड़ा अपवाद हैं। क्रिकेट के जुनून के दौर में राष्ट्रवाद को इस औपनिवेशिक खेल के जरिए भी प्रतिष्ठित किया गया, जिसका उदाहरण आमिर खान की ‘लगान’ है. 2004 में आशुतोष गोवारीकर ने ‘स्वदेश’ में समकालीन समाज की समस्याओं के लिए व्यवस्था को जिम्मेदार करार देने का साहस किया था, लेकिन अफसोस कि वही गोवारीकर 2016 में ‘मोहेंजो दारो’ जैसी फिल्म भी बनाते हैं, जो गलत तथ्यों के आधार पर सिन्धु सभ्यता को हिंदू सभ्यता के रूप में चित्रित करके एक छद्म-राष्ट्रवाद का ही पोषण करती है।
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Published: 21 Aug 2017, 2:05 PM