नादिराः हिंदी सिनेमा की ऐसी खलनायिका, जिसके अभिनय के आगे फिल्म के अभिनेता फीके पड़ जाते थे
तलत महमूद, जयराज, बलराज सहानी, अशोक कुमार जैसे उस समय के चर्चित अभिनेताओं के साथ नादिरा फिल्में कर रही थीं। तभी उन्होंने एक ऐसा फैसला किया जो उनके कैरियर पर भारी पड़ गया। नादिरा ने राजकपूर की फिल्म ‘श्री 420’ (1955) में खलनायिका का रोल स्वीकार कर लिया।
वो 48 साल फिल्मी दुनिया से जुड़ी रहीं लेकिन महज 80 फिल्मों में काम किया। हालांकी उनकी अदाकारी इतनी असरदार थी कि उनके खलनायिका वाले किरदार के आगे फिल्म के अभिनेताओं की चमक धीमी पड़ जाती थी। नादिरा के नाम से मशहूर उस अदाकारा के जन्म के 88 साल पूरे हो रहे हैं।
एक शादी समारोह में फिल्म निर्माता-निर्देशक महबूब की नजर ऐसी खूबसूरत लड़की पर पड़ी जिसके मुस्कुराने, बोलने, चलने, यहां तक की खड़े होने के अंदाज में भी बला का आत्मविश्वास नजर आ रहा था। महबूब अपनी फिल्म आन के लिए एक रोल नरगिस को देना चाह रहे थे, लेकिन किन्हीं कारणों से नरगिस ने वो रोल करने से इनकार कर दिया। महबूब ने उसी वक्त उस रोल के लिए उस लड़की को चुन लिया। तब तक उस लड़की का नाम था ‘फ्लोरेंस एंजिकल’। महबूब ने उसका नांम नादिरा कर दिया। और जब आन (1952) रिलीज हुई तो बावजूद इसके कि उस वक्त दिलीप कुमार की तूती बोल रही थी, लोगों को याद रहा तो खूबसूरत और घमंडी राजकुमारी का किरदार अदा करने वाली नादिरा के तेवर।
तब नादिरा की उम्र थी महज 17 साल। उसी उम्र से वे स्टार बन गयीं। उन्हें फिल्में मिलने लगीं। तलत महमूद, जयराज, बलराज सहानी, अशोक कुमार जैसे उस समय के चर्चित अभिनेताओं के साथ नादिरा फिल्में कर रही थीं, तभी उन्होंने एक ऐसा फैसला किया जो उनके कैरियर पर भारी पड़ गया। नादिरा ने राजकपूर की फिल्म ‘श्री 420’ (1955) में खलनायिका का रोल स्वीकार कर लिया। फिल्म रिलीज होने के बाद नादिरा के खलनायिका के दमदार किरदार निभाने की वजह से खलनायिकाओं के रोल की बाढ़ आ गयी। नादिरा को सिर्फ खलनायिका बने रहना गवारा नहीं था। उन्होंने तमाम फिल्में ठुकरा दीं। अब नादिरा के पास फिल्मों के ऑफर कम होने लगे तो नादिरा ने स्टंट वाले रोल स्वीकर करने शुरू कर दिये।
‘समुंदरी डाकू’ (1956), ‘तलवार का धनी’ (1956), ‘गरमा-गरम’ (1957), ‘सिंदबाद की बेटी’ (1958), ‘सीआईडी गर्ल’ (1959) और ‘ब्लैक टाइगर’ (1960) ऐसी फिल्में थीं जिनमें नादिरा ने हिरोइन का किरदार निभाया। बेहद खूबसूरत लड़की के चेहरे के भावों और आंखों से कुटिलता दर्शाने की नादिरा की काबलियत को फिल्मकार भूले नहीं थे। ‘चेतना’ (1970), ‘पाकिजा’ (1971) और ‘हंसते जख्म’ (1973) जैसी फिल्में नादिरा को अपनी इसी खासियत की वजह से मिलीं।
लेकिन नादिरा को अभी एक अमर किरदार निभाना था जो उन्हें मिला फिल्म ‘जूली’ (1975) में। इस फिल्म में मां के किरदार को नादिरा ने जिस संवेदनशीलता से निभाया वह एक मिसाल है। खलनायिका के चोले से निकल कर ऐसा रोल करने के बाद नादिरा को बहुत राहत मिली। इस रोल के लिये नादिरा को फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला।
इसके बाद नादिरा चुने हुए किरदार निभाने लगीं। ‘सागर’, ‘अकबर अकबर एंथोनी’, ‘आशिक हूं बहारों का’ और पूजा भट्ट की फिल्म ‘तमन्ना’ इसी कड़ी की फिल्में थीं। बेहतरीन किरदार अदा करने का मौका मिले तो नादिरा टीवी धारावाहिक करने तक को तैयार थीं। फिर उन्होंने ‘एक था रस्टी’, ‘मार्गेरीटा’ और ‘थोड़ा सा आसमान’ जैसे धारावाहिकों में काम भी किया।
नादिरा ने दो बार शादी की लेकिन दोनों बार दो साल के अंदर ही उनका तलाक हो गया। उनके दो भाई थे, जो इजराइल और अमेरिका जा बसे। बीमार मां भी कब तक साथ देतीं और नब्बे के दश्क में नादिरा इस दुनिया में तन्हा रह गयीं। अपनी तन्हाई और बीमारियों से लड़ते हुए 9 फरवरी 2006 को अखिरकार वो वहां चली गयीं जहां से कोई लौट कर नहीं आता। शाहरुख खान की फिल्म ‘जोश’ (2000) वह अंतिम फिल्म थी, जिसमें नादिरा पर्दे पर नजर आयी थीं।
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Published: 05 Dec 2019, 6:59 AM