जयदेवः संगीत का वह साधक, जो फिल्मी दुनिया में उपेक्षित रहकर भी ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
सौ साल पहले नैरोबी में 3 अगस्त 1919 को जन्मे जयदेव की परवरिश लुधियाना में हुई। आवारगी, भटकाव और अनिश्चितता से बचने की सलाह सबको दी जाती है, लेकिन इन्हीं तीनों स्थितियों ने जयदेव फिल्म संगीत के इतिहास में अमर कर दिया।
आवारगी, भटकाव और अनिश्चितता से बचने की सलाह सबको दी जाती है, लेकिन इन्हीं तीनों स्थितियों ने उस शख्स को फिल्म संगीत के इतिहास में अमर कर दिया, जिनका नाम था जयदेव। हमेशा उपेक्षित रखे गए जयदेव ने कमाल के मधुर गीतों की धुनें तैयार कीं। आपको याद हैं ये गीत- “अभी ना जाओ छोड़ के कि दिल अभी भरा नहीं, मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, नदी नारे ना जाओ श्याम पंइयां पड़ूं, आपकी याद आती रही रात भर।” ये तो उनके हुनर की एक बानगी भर है।
सौ साल पहले नैरोबी में 3 अगस्त 1919 को जन्मे जयदेव की परवरिश लुधियाना में हुई। बचपन में मां का साया सिर से उठ गया। पिता नारोबी में व्यवसाय कर रहे थे। तब जयदेव की जिम्मेदारी उनके फूफा ने उठायी। जयदेव तब कक्षा 6 मे थे जब उन्होंने फिल्म अलीबाबा चालिस चोर का जहांआरा कज्जन की आवाज में गाया गया गीत “ये बिजली दुख की गिरती है” सुना। बस फिर तो संगीत सीखने की ऐसी लगन जागी की बाकायदा संगीत का प्रशिक्षण लेने लगे।
इसके बाद केवल 15 साल की उम्र में ना जाने कैसे जयदेव को गुमान हो गया कि उन्हें फिल्मों में काम करना चाहिए लिहाजा वे घर से भाग कर मुंबई जा पहुंचे। यहीं से उनके मन में भटकाव ने ऐसा स्थान बनाया कि जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ा।
मुंबई में उन्हें वाडिया मुवी टोन की फिल्मों में किशोर कलाकार के रूप में जगह मिलने लगी। उन्होंने 8 फिल्मों में अभिनय किया। फिर साल 1936 में जयदेव के फूफा जी की मौत हो गयी। वे सब कुछ छोड़ कर लुधियाना लौट आए। यहां वे संगीत सीखने लगे। लेकिन एक बार फिर मन का भटकाव उन्हें साल भर बाद फिर से मुंबई ले गया।
इस बार उन्हें मनमर्जी का काम नहीं मिल रहा था। कभी वे सहायक निर्देशक बने तो कभी अभिनय किया। 1940 मे उनके पिता नैरोबी से लौट आए। उनकी आंखें खराब हो गयी थीं। एक बार फिर जयदेव लुधियाना लौटे और कुछ समय बाद पिता की मृत्यु हो गयी। अब जीवन की अनिश्चितत ने जयदेव को अपनी गिरफ्त में ले लिया।
फिर पता नहीं क्या हुआ जयदेव अल्मोड़ा जाकर उदय शंकर की नृत्य मंडली में शामिल हो गए। वहां से दिल उचाट हुआ तो लखनऊ में विख्यात सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खान से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। जयदेव ऐसे यात्री थे, जिसे मंजिल का पता नहीं था। मन की बैचेनी खत्म नहीं हो रही थी तो वे ऋषिकेश में स्वामी शिवानन्द के आश्रम में रहने लगे।
आर्थिक मजबूरियों ने दबाव बनाया तो दिल्ली आकर गडोदिया बैंक में नौकरी कर ली। अगस्त 1947 से जयदेव ने रेडियो पर गाना शुरू कर दिया। इस बीच पता चला कि उस्ताद अली अकबर खां जोधपुर चले गए हैं। एक दिन जयदेव भी जोधपुर पहुंच कर उस्ताद की शरण में संगीत साधना में लीन हो गए।
इस बीच उस्ताद अली अकबर खान ने नवकेतन की फिल्म ‘आंधियां’ और ‘हमसफर’ में संगीत देने का जिम्मा संभाला तब वे जयदेव को अपना सहायक बना कर मुंबई ले गए। दो फिल्में कर उस्ताद अली अकबर खां तो वापस लौट आए लेकिन जयदेव नवकेतन की ही फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ में संगीतकार सचिन देव वर्मन के सहायक बन गए। सचिन देव बर्मन जब तक जिंदा रहे जयदेव की संगीत के प्रति लगन और समर्पण देख बहुत प्रभावित रहे। वे कहते थे मेरे दो बेटे हैं बड़ा जयदेव और छोटा पंचम।
जयदेव की व्यक्तिगत पहचान बनी नवकेतन की फिल्म ‘हम दोनों’ से। इस फिल्म में उनका संगीतबद्ध हर गाना खूब लोकप्रिय हुआ। चाहे वह ''अभी न जाओ छोडकर ” हो या “मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया” या फिर “कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया” हो। इसी फिल्म के लता मंगेशकर के गाए एक भजन “अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम'' ने जयदेव को फिल्म संगीत में अमर बना दिया। लता मंगेशकर ने जितने भी स्टेज कार्यक्रम किये हैं शायद ही ऐसा कोई कार्यक्रम रहा हो जिसमें उनसे इस भजन की फरमाइश ना की गयी हो।
जयदेव की संगीत रचना में शास्त्रीयता और लोक परंपरा ने मेलोडी के साथ अग्रणी भूमिका निभाई है। फिल्म के दिग्गज गायकों से तो उन्होंने गवाया ही, लेकिन अपनी रचना के मिजाज पर खरी उतरने वाली कम मशहूर आवाजों को अधिक प्रयोग किया। परवीन सुल्ताना, हीरा देवी मिश्र, छाया गांगुली, भूपेन्द्र, सरला कपूर, रूना लैला, शर्मा बन्धु, राजेन्द्र मेहता, दिलराज कौर, मधु रानी, यशुदास, फय्याज, हरिहरन, मीनू पुरुषोत्तम, पीनाज मसानी, लक्ष्मी शंकर और नीलम साहनी जैसे गायकों को उन्होंने गाने के मौके दिये।
साल 1977 में ऋषि कपूर और रंजीता अभीनीत फिल्म ‘लैला मजनूं’ में तीन गीतों की धुन तैयार करने का मौका जयदेव को मिला। फिल्म की बाकी धुनें मदनमोहन ने तैयार की थीं। जयदेव के संगीतबद्ध किए गीतों बरबाद मोहब्बत की सजा साथ लिये जा और इस रेश्मी पाज़ेब की झंकार के सदके की लोकप्रियता 42 साल बाद भी बनी हुई है।
इसके अलावा ‘घरौंदा’, ‘मुझे जीने दो’, ‘गमन’ और ‘प्रेम पर्वत’ में जयदेव के तैयार किये गीत निकाल दिये जाएं तो फिल्म संगीत का इतिहास पूरा नहीं हो सकेगा। फिल्म ‘रेश्मा और शेरा’, ‘गमन’ और ‘अनकही’ के लिए उन्हें तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। श्रोताओं के कानों में आज तक रस घोलने वाले लेकिन फिल्मी दुनिया मे उपेक्षित रहे जय देव ने कभी शादी नहीं की। जिस दिन जयदेव का निधन हुआ वो तारीख थी 6 दिसंबर 1987।
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