आई एम नॉट द रिवर झेलमः कश्मीर की उदासी को पर्दे पर बयां करती फिल्म
चंद्रा अफीफा और उनके निकट परिजनों द्वारा अनुभूत सच, व्यक्तिगत आघात के जरिये कश्मीर में व्याप्त सतत अनिश्चितता, भय और चिंता को जिस तरह उभारते हैं, वह अद्भुत है। फिल्म हिन्दी में है लेकिन बीच-बीच में कश्मीरीमें नरेशन और संवाद इसे और संप्रेषणीय बनाते हैं।
पर्दे पर कश्मीर का ठहरा हुआ पानी, ऊंचे-ऊंचे शांत पहाड़ उभरते हैं और धीरे-धीरे एक महिला के रीते पड़े, रहस्य में डूबे चेहरे में विलीन हो जाते हैं। पार्श्वभूमि से उभरती असहज करने वाली कुछ धुनें इसे नए अर्थ देती हैं। यह प्रभाष चंद्रा की पहली फिल्म ‘आई एम नॉट द रिवर झेलम’ है। और यह महिला है फिल्म की नायिका अफीफा (अम्बा सुहासिनी के झाला) जिसकी आंखें उस अशांति को छिपा पाने में असमर्थ हैं, जो लंबे अंतराल में कई त्रासदियों का गवाह रही हैं।
पर्दे पर ऐसा दृश्य-क्रम उभरता है, कुछ ऐसा स्थापित करता हुआ जिसे चंद्रा के अंदर से निकला हुआ, उनका अपना विश्वास भी कह सकते हैं। इतिहास में कहीं भी, किसी भी संघर्ष की स्थित में भुगतती हमेशा स्त्री ही है, वह चाहे अफगनिस्तान हो, फिलस्तीन, सीरिया या फिर यूक्रेन। चंद्रा अफीफा और उनके निकट परिजनों द्वारा अनुभूत सच, व्यक्तिगत आघात के जरिये कश्मीर में व्याप्त सतत अनिश्चितता, भय और चिंता को जिस तरह उभारते हैं, वह अद्भुत है।
इस विषय पर बनी कई फिल्मों से अलग। फिल्म हिन्दी में है लेकिन बीच-बीच में कश्मीरी में नरेशन और संवाद इसे और संप्रेषणीय बनाते हैं। इसका प्रीमियर मार्च में केरल के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के वैश्विक प्रतियोगिता खंड में हुआ जहां इसने भारत से सर्वश्रेष्ठ नवोदित निर्देशक के लिए एफएफएसआई केआर मोहनन पुरस्कार जीता। त्रिशूर अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के प्रतियोगिता खंड में इसे केडब्ल्यू जोसेफ ज्यूरी का स्पेशल मेंशन तो मिला ही, कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी आकर्षण रही।
फिल्म का कश्मीर वैसा ही है जैसा हम जानते-सुनते रहे हैं। अंतहीन कर्फ्यू, कैद और यातनाएं, आतंकवादियों और सशस्त्र बलों के बीच बंटा कश्मीर जहां अगर कोई नहीं है तो वह हैं इसके बाशिंदे। बाशिंदों ने खुद को अदृश्य कर लिया है। उनकी आवाजें शांत कर दी गई हैं- कितने तो लापता हैं, कितनों को घर छोड़ना पड़ा है, शायद ही वापस लौटने के लिए। कहानी कहने का यह चंद्रा का अंदाज ही है जो सबसे अलग कर देता है। घुटन और भय इस तरह हर फ्रेम में गहरे बिंधे हुए हैं, गोया स्क्रीन फाड़कर बाहर छलांग लगाना चाहते हों। उदासी और दबा-दबा सा मिजाज लेकिन सौम्य फिल्मांकन इसे गंभीर बना देता है।
सुनसान गालियां, सायरन की चिल्ल-पों से टूटता सन्नाटा, गुमशुदा लड़की का पोस्टर, खाली पड़े क्लासरूम, स्कूलों के उजाड़ लैब और जरूरी काम से भी बाहर निकलने में खौफ साधारण से साधारण दृश्यों में भी उदासी और विषाद दर्शक तक पहुंच जाता है। कब्रों की कतारों के बीच से गुजरता एक आदमी कह रहा है- “जो मर गए, स्वार्थी हैं। वे हमें रुलाते हैं और परवाह भी नहीं करते। सबसे ज्यादा दुश्वारी वाली जगहों पर भी खामोश रहते हैं। अब हमें इन्हें अपनी पीठ पर लादकर कब्रों तक ले जाना होगा, मानो ये कोई बच्चे हों। आखिर ये कैसा बोझ है! इनका असामान्य रूप से सख्त चेहरा हमें अपराधबोध से भर देता है, जैसे कोई चेतावनी दे रहे हों… मृतकों के बारे में सबसे खराब अगर कुछ है तो यह कि अब आपके पास उन्हें मारने का कोई तरीका नहीं है।” वास्तव में यही सबसे बड़ी दुविधा है। जो चले गए उन्हें भुला तो नहीं सकते! शोक को कैसे भुला दें? जो अन्याय हुआ, उसे कैसे नकार दें?
चंद्रा भौतिकी के विद्वान हैं, विज्ञान में दर्शन का तड़का लगाने में सिद्धहस्त। यहां उनके रंगमंचीय अनुभव के साथ कविता और साहित्य, टैगोर, इकबाल, गालिब, फैज और मंटो के प्रति उनका अगाध प्रेम भी है। रील और रियल की दूरी भरने के लिए इसका इस्तेमाल भी दिखता है। अपने सिनेमाई प्रयोगों के बारे में कहते हैं- “मैं फार्म से नहीं बंधा था, न ही संरचना पर सोच रहा था। मेरा ध्यान सिर्फ हालात के सटीक बयान, यानी सच को सच की तरह दिखाने पर था।”
बिहार में हाजीपुर के पास रामपुर गांव के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले प्रभाष दिल्ली यूनिवर्सिटी के दीनदयाल उपाध्याय कालेज से भौतिकी में स्नातक हैं। दिल्ली में ही रंगमंच का कीड़ा पनपा और फिर मजबूती से उनके अंदर घर जमा लिया। बताते हैं- “थिएटर उम्मीद देता था कि जीवन में कुछ बेहतर होगा। मैं भौतिकी कक्षाओं में बैठने से कहीं ज्यादा नाटकों के रिहर्सल करता था।” प्रभाष ने परमाणु विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एमटेक किया और तारापुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र में तैनात हो गए। लेकिन अपने जन सरोकार के कारण यहां ज्यादा टिक नहीं सके। दिल्ली लौट आए और थिएटर वर्कशॉप शुरू कर दिया।
इस बीच पुणे फिल्म संस्थान में फिल्म अप्रेशिएशन पाठ्यक्रम में शामिल होने का मौका क्या मिला, सिनेमा में उनकी रुचि को मानो खाद-पानी मिल गया। कश्मीर का खयाल भी जहन में उस वक्त आया जब 2014 में वह स्कूल-कालेज के छात्रों के साथ एक थिएटर वर्कशॉप करने पुलवामा गए। चंद्रा बताते हैं- “मैं सिर्फ छात्रों को सुनता रहा। उनका गुस्सा देखा, लचीलापन भी। वापसी के बाद भी उसी में डूबा रहा। मैं पढ़ता बहुत हूं। पता था कि फिल्में बनाऊंगा लेकिन आश्वस्त नहीं था कि फीचर या डाक्यूमेंटरी।” आखिर 20-25 पेज तैयार हुए और उन्हीं में से निकली ‘आई एम नॉट द रिवर झेलम’ फिल्म की पटकथा।
चंद्रा ने पहले लॉकडाउन से ठीक पहले जनवरी, 2020 में पुलवामा में फिल्म की शूटिंग की। जाने माने फिल्म निर्माता-सम्पादक परेश कामदार जिन्हें वह अपना मेंटोर भी कहते हैं, ने सम्पादन के साथ ही और भी कई सहयोग किए। “उन्होंने मुझे फिल्म निर्माण का मतलब, इसका सौंदर्यशास्त्र समझने में मदद की। मैं कभी फिल्म स्कूल तो गया नहीं था। यही मेरी सीखने की प्रक्रिया बन गई।” परजानिया वाले मनोज सिक्का ने साउंड डिजाइन किया और सुकृति खुराना ने प्रोडक्शन। अनुज चोपड़ा और प्रतीक डी भालावाला इसके सिनेमटोग्राफर हैं। फिल्म में स्थानीय के साथ-साथ दिल्ली के भी कलाकार हैं।
चंद्रा बताते हैं कि किस तरह उन्होंने सब कुछ अपने पैसे से किया, कुछ क्रेडिट कार्ड से लोन और कुछ दोस्तों से लिया गया उधार। और यह भी कि इसका बीस फीसदी लौटा भी चुके हैं। तो क्या हम आपको राजनीतिक फिल्मकार कह सकते हैं? कहते हैं- एक व्यक्ति और फिल्म निर्माता दोनों रूपों में “मैं दमन का विरोधी हूं। फिल्म का शीर्षक और उसके पात्र भी इसी भावना की उपज हैं। झेलम नदी (प्रकृति) ने एक कालखंड में अपने भीतर बहुत कुछ देखा और भुगता है लेकिन मेरे पात्र कमजोर नहीं हैं। वे विरोध करेंगे।”
इस बीच उन्होंने अपनी नई फिल्म पर भी काम शुरू कर दिया है। इस बार आजीविका की तलाश में बिहार से दिल्ली आने वाले प्रवासी मजदूरों का संघर्ष फिल्म का विषय होंगा। पटकथा पर काम शुरू हो चुका है।
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