पठान से BBC डॉक्यूमेंट्री तक 'सरकारी' राष्ट्रवाद और बहिष्कार संस्कृति, आखिर कहीं तो होगा इसका सिरा
मीडिया अतिशयोक्ति और कायरता से भरपूर कंगना के राष्ट्रवाद के साथ तो खड़ा दिखाई देगा लेकिन पीएम जो कहते हैं उसकी रिकार्डिंग चलाकर वैसा आईना दिखाने वाला कोई नहीं है कि वह जो कहते हैं और करते हैं, उसकी असंगति और छल-छद्म उनके उच्च पद की गरिमा के अनुकूल नही है।
याद नहीं आता कि इससे पहले सिनेमा और राष्ट्रवाद की भावनाएं इस कदर आपस में गुंथी हुई दिखाई दी हों जैसा पिछले कुछ दिनों में दिखाई दिया है। यहां तक कि दो नई फिल्में- ‘पठान’ और ‘गांधी-गोडसे: एक युद्ध’ समकालीन राजनीतिक आख्यानों के इर्दगिर्द घूमती हैं जबकि बीबीसी की डाक्यूमेंट्री ‘इंडिया: द मोदी क्वेशचन’ पूरी बहस को ‘पठान’ की अद्भुत सफलता से हटाकर कहीं और पहुंचा देने का असंभव-सा काम करती दिखाई देती है।
और अगर कॉलेज छात्रों के एक वर्ग ने सरकार द्वारा प्रधानमंत्री पर बीबीसी की इस फिल्म की स्क्रीनिंग पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है तो यकीन मानिए, आप दूसरे पक्ष को भी ऐसा करने से रोक नहीं पाएंगे जब वह प्रतिक्रियास्वरूप ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर ऐसा ही करने पर उतारू होगा। कोई आश्चर्य नहीं जैसा कि पन्ना शाह ने 1950 में कहा था: “सिनेमा ऐसी मजबूत ताकत है जो अपनी प्रकृति की सूक्ष्मता या प्रभावोत्पादकता के कारण महज मनोरंजन के अपने दिखते रूप मात्र से लाखों जनमानस की राय बनाने, उसे प्रभावित करने का काम करता है।”
यह कहने का अब कोई मतलब नहीं कि इन फिल्मों- और हिन्दी सिनेमा के आज के सबसे बड़े स्टार के लिए यह सही वक्त बनकर आया है। पिछले सप्ताह भारत ने अपना 75वां गणतंत्र दिवस मनाया और उसके बाद 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या को याद करते हुए शहीद दिवस (हमारे कैलेंडर के सात दिवसों में एक) मनाया गया। इसी बीच आई बीबीसी डाक्यूमेंट्री ने तेज उड़ान भर रही उस सरकार के उत्साह को पंचर करने का काम किया है जो खुद को एक लड़ाकू बहुसंख्यक महाशक्तिशाली के तौर पर स्थापित कर रही थी और इस गणतंत्र दिवस की उत्सवधर्मिता के साथ अपनी महिमा प्रदर्शन के टेकऑफ को तैयार थी।
हालांकि मैंने इसे देखा नहीं है और इसलिए इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं कर सकता, लेकिन शेष दो कल्पना की जमीन पर खड़ी ऐसी प्रतीकात्मक फिल्में हैं जो अपना अलग आख्यान बुनने के लिए काल्पनिक उड़ान से ‘नई कहानी’ ग्रहण करती हैं। ‘बॉलीवुड का बहिष्कार’ वाली संस्कृति के इस दौर में जिसने उद्योग को बुरी तरह प्रभावित किया है, खास तौर से वे जिन्हें मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान का विरोधी माना जाता है, ‘पठान’ किसी तरह का राजनीतिक लाभ नहीं देती। यह सिर्फ और सिर्फ एक एजेंडे पर केन्द्रित है और वह है: अपने स्टार शाहरुख खान के जलवे (पंथ) को मजबूती से कायम रखना। और यह काम यह बखूबी कर जाती है। यह सब हिन्दी फिल्म उद्योग से निकलने वाली हर बड़ी और मोटे टिकट वाली फिल्म का प्रतीक है - बाकी इस शोर-शराबे, हंगामे का कोई मतलब नहीं।
हालांकि जब एक ‘खान’ अभिनीत फिल्म- वह भी ऐसा इंसान जो मौजूदा व्यवस्था के निशाने पर रहा हो (ध्यान रखना चाहिए कि किस तरह उनके बेटे को नशीले पदार्थों के नकली मामले ने फंसाया गया था) और जिसने अपनी गरिमापूर्ण खमोशी के साथ इस सब का इस तरह जवाब दिया हो- इसमें अनुच्छेद 370 को रद्द करने जैसे विवादास्पद मुद्दे की बात हो, इसके नायक को ‘पठान’ कहा जाए, उसके सहयोगी के तौर पर उससे सहानुभूति रखने वाला एक पूर्व आईएसआई एजेंट हो, और उसमें एक ‘भगवा’ रंग की बिकनी में एक गाना फिल्माने की हिम्मत हो जिसे शरारतन ‘बेशर्म रंग’ कहा जाए।
जाहिर सी बात है, यह सब खुद-ब-खुद ध्यान खींचेगा और 2014 बाद के जोश भरे राजनीतिक माहौल में यह और स्वाभाविक ही है। आश्चर्य नहीं कि फरीदाबाद में एक स्क्रीनिंग के दौरान दक्षिणपंथी उन्मादी भीड़ द्वारा हंगामा किया गया और तोड़फोड़ की कोशिश की गई। यह सब फिल्म रिलीज होने से पहले प्रधानमंत्री द्वारा ऐसे व्यवधानों की निंदा करने के आह्वान के बावजूद हुआ था (हालांकि एक और सुपरस्टार खान, आमिर की ‘लाल सिंह चड्ढा’ को शो रद्द किए जाने की हद तक इसी संस्कृति का खामियाज़ा भुगतना पड़ा था तब वह शांत थे और बीबीसी की फिल्म को प्रतिबंधित करने के लिए तो पूरी ताकत ही झोंक दी गई)।
‘गांधी-गोडसे: एक युद्ध’ शायद कुछ और हंगामा खड़ा करती अगर ‘द मोदी क्वेशचन’ का विवाद न उठता और ‘पठान’ नाम की सुर्खियां और बॉक्स ऑफिस बटोरू सुनामी न आई होती। राष्ट्रवाद के दो धुरीय विचारों को शामिल करने के बावजूद गांधी-गोडसे उपदेशात्मक और नासमझी भरे उपदेश के रूप में सामने आती है। बेशक इसका दायरा विशुद्ध रूप से काल्पनिक है: क्या होता अगर गांधी गोडसे की गोलियों से बच जाते और आमने-सामने आकर धर्म, राष्ट्रवाद, सच्चाई और देशभक्ति के पहलुओं पर बहस करते? यह न सिर्फ तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करती है बल्कि गांधी के अंतिम दो शब्द ‘हे राम!’ भी यहां अनुपस्थित दिखते हैं जब उन्हें गोली मारी जाती है।
फिल्म एक ऊटपटांग काल्पनिक दृश्य से खत्म होती है जहां गांधी और गोडसे दोनों अपने-अपने समर्थकों के ‘महात्मा गांधी की जय’ और ‘नाथूराम गोडसे की जय’ के नारों के बीच से गुजरते हुए निकल जाते हैं (जिसका प्रभाव एक हत्यारे के किए को वैध बनाने के रूप में आता है)। यह एक और कारण हो सकता है जब थोड़ी सी भी असहमति और बात-बात पर हंगामा खड़ा कर देने वाली बॉयकाट ब्रिगेड इस फिल्म को लेकर असामान्य रूप से चुप्पी साधे दिखाई देती है।
जरा उस हास्यास्पद सीन को याद कीजिए जब बापू के आश्रम की एक सेविका किसी सेवक के प्यार में पड़ जाती है और बापू दोनों को फटकार लगाकर आपस में भाई-बहन का रिश्ता बनाने की ‘सजा’ देते हैं। हां, गांधी प्रेम और सेक्स के मामले में अपने विचारों में इसी चरम सीमा तक शुद्धतावादी थे जिनके साथ तालमेल बिठाना मुश्किल है। हालांकि सीन जिस तरह सामने आता है उसमें बापू वेलेंटाइन डे विरोधियों और लव जेहाद के उत्पातियों की प्रतिकृति (मिरर इमेज) के तौर पर ही ज्यादा सामने आते हैं और जो उन्हें व्यापक नजरिये से अपने ज्यादा अनुकूल लगता है।
फिल्मों में राष्ट्रवाद का विमर्श लगभग उतना ही पुराना है जितना कि खुद हमारी फिल्में। काल्पनिक फिल्मों के आगमन से पहले भारत में निर्मित कुछ प्रभावशाली शुरुआती वृत्तचित्रों की याद करें तो एचएस भाटावडेकर की ‘द रिटर्न ऑफ रैंगलर परांजपे टु इंडिया, ग्रेट बंगाल पार्टिशन मूवमेंट: मीटिंग एंड प्रोसेशन’ (1905), टी जानसेन की ‘द ग्रेट बोनफायर ऑफ फ़ॉरेन क्लॉथ्स’ (1915) की चर्चा जरूरी हो जाती है जिन्हें राष्ट्र के प्रति आम भारतीय का गौरव स्थापित करने के तौर पर याद किया जाता है। भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के ने राजा हरिश्चंद्र, लंका दहन और श्रीकृष्ण जन्म जैसी फिल्मों के साथ सिनेमा और राष्ट्रवाद के बीच इस रिश्ते को मजबूत किया जो भारत के गौरवशाली पौराणिक अतीत की ओर इशारा करता है और जिसके मूल्य औपनिवेशिक पश्चिमी मूल्यों से बेहतर माने जाते थे।
हर बीतते दशक के साथ सिनेमा ने इस भावना, राष्ट्रवाद के विचार को न सिर्फ संबोधित किया बल्कि उसे कभी-कभी सेंसर की नाराजगी का समना भी करना पड़ा। मसलन, कांजीभाई राठौड़ की पौराणिक फिल्म भक्त विदुर (1921) भारत में प्रतिबंधित होने वाली पहली फिल्म थी जिसका नायक और उसकी टोपी गांधी जैसे दिखते थे। प्रेमचंद लिखित अजंता सिनेटोन की ‘मजदूर’ (1934) पर भी इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया क्योंकि यह गांधीवादी सिद्धांतों के करीब थी और इसे ‘प्रतिबंधित फिल्म’ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। इंपीरियल फिल्म कम्पनी निर्मित और आरएस चौधरी निर्देशित फिल्म ‘व्रैथ’ (1931) में गरीबदास नाम का एक पात्र था जो अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ता है। सेंसर बोर्ड ने इसके कई दृश्य काट दिए और इसका नाम बदलकर ‘खुदा की शान’ कर दिया।
इसी तरह बाम्बे टाकीज की फिल्म किस्मत (1943) अपने गाने ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिन्दुस्तान हमारा है’ के कारण हिन्दी फिल्मों की लोकगाथा का हिस्सा बन चुकी है। भारत में फिल्मों के खिलाफ हालिया विरोधों का स्वर मुखर करने वाले अनुदार नजरिये पर विलाप करने वालों को सोचने के लिए यह एक जरूरी उदाहरण होगा: ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने नानाभाई भट्ट की ‘चालीस करोड़’ (1947) का न सिर्फ विरोध किया, बल्कि कुछ सिनेमाघरों में घुसकर स्क्रीन ब्लेड से इसलिए काट डाला था क्योंकि इसके हिन्दू और मुस्लिम पात्र भारत के विभाजित मानचित्र का विरोध कर रहे थे।
1950 का दशक हिन्दी सिनेमा में ‘मदर इंडिया’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों के जरिए नेहरूवादी समाजवाद के सपनों का सह-मेल अंगीकार करने का दौर था। और राजकपूर, दिलीप कुमार, देवानंद की तिकड़ी के रूप में हिन्दी सिनेमा ने एक उस नव-स्वतंत्र राष्ट्र के सपनों और उसकी पीड़ाओं को प्रतिबिम्बित किया जो अभी अपने पैर जमा ही रहा था। हालांकि आलोचना के ऐसे स्वर भी थे जो दशक के अंत तक ‘प्यासा’ और ‘फिर सुबह होगी’ सरीखी फिल्मों को प्रतीक के तौर पर देखते हुए देश के रास्ते से भटक जाने का शोक मना रहे थे। लेकिन ऐसा मानने वालों की संख्या काफी कम तो थी ही, उनके प्रति राजनीतिक प्रतिक्रिया खासी शालीन थी।
बीते कुछ दशकों में सिनेमा में उग्र राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद के नाम पर किसी भी चीज के प्रति सत्ता प्रतिष्ठान का अनुदारवादी नजरिया- दोनों ही चीजें मुखर रूप में सामने आई हैं। आपातकाल संभवत: वह महत्वपूर्ण मोड़ था जब सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ उठी आवाज का दमन खुलकर रेखांकित हुआ। तब से अब तक बदलाव सिर्फ इतना आया है कि उपाय निरंतर सख्त से सख्त होते गए। ‘बॉर्डर’ और ‘गदर’ जैसी फिल्मों के जरिये फिल्म निर्माताओं ने राष्ट्रवादी आख्यान अपनाना शुरू किया। जरा इसकी तुलना 1960 के दशक की ‘हकीकत’ और ‘उपकार’ जैसी फिल्मों में हमारे सशस्त्र सुरक्षा बलों के चित्रण से करें। अब तो ‘सम्राट पृथ्वीराज’ जैसी संदिग्ध ‘इतिहास’ वाली फिल्मों के साथ बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण शामिल किए जाने से माहौल और बदतर हो गया है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद तो सत्ता के साथ हिन्दी फिल्म उद्योग के एक खेमे के साठगांठ की वैसी ही चरम परिणति दिखाई दी है जैसा नाजी जर्मनी में लेनी रिफेनस्टाइल की फिल्मों ‘ट्रम्फ ऑफ द विल’ और ‘ओलंपिया’ ने किया था।
मीडिया की भूमिका ने चीजों को और बिगाड़ा है। इसने ऊटपटांग बयानबाजियों, बेतुके मुद्दों को जिस तरह उछालना शुरू किया, उसने पूरे विमर्श को बहुत निचले स्तर पर पहुंचा दिया। कंगना रनौत 'पठान' का नाम बदलकर ‘भारतीय पठान’ रखना चाहती हैं क्योंकि ‘भारतीय मुसलमान देशभक्त और अफगान पठानों से अलग हैं।’ उनका यह भी दावा है कि ‘पठान' दुश्मन देश पाकिस्तान और आईएसआईएस को अच्छी रोशनी में प्रस्तुत करती है जबकि भारतीय जनमानस की भावनाओं का प्रकटीकरण करने में विफल है।’
लेकिन ‘चीन की एक दुकान में बैल’ वाली कहावत को लेकर शिकायत क्यों की जाय जब देश के प्रधानमंत्री एक तरफ अपने युवाओं-छात्रों से कहते हैं कि ‘आलोचना तो एक समृद्ध लोकतंत्र के लिए प्राणवायु के समान है’ और दूसरी ओर वह बीबीसी की फिल्म पर प्रतिबंध लगाते हैं। या कश्मीर फाइल्स को प्रोमोट करते हुए 2022 में इस पर हुए विरोध का जोरदार तरीके से बचाव करते हुए कहते हैं : “कोई कुछ देखता है, कोई कुछ और। अब अगर किसी को लगता है कि फिल्म सही नहीं है तो वह अपनी फिल्म खुद बना सकता है, उसे कोई रोक तो रहा नहीं है?” यह एक छूट लेने की कोशिश है कि उनकी सरकार बीबीसी की फिल्म की अनुमति देने को तैयार नहीं है।
अफसोस की बात है कि मीडिया यहां अतिशयोक्ति और कायरता से भरपूर कंगना के राष्ट्रवाद के साथ तो खड़ा दिखाई देगा लेकिन प्रधानमंत्री जो कुछ कहते हैं उसकी रिकार्डिंग को फिर से चलाकर वैसा आईना दिखाने वाला कोई नहीं है कि वह जो कहते हैं और करते हैं, उसकी असंगति और छल-छद्म उनके उच्च पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है।
(नवजीवन के लिए शान्तनु राय चौधरी का लेख। शान्तनु संपादक और फिल्म प्रेमी हैं)
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