गंगूबाईः आलिया भट्ट का ऐसा अद्भुत परफारमेंस पहले कभी नहीं दिखा, भंसाली ने फिर साबित किया उनके जैसा दूसरा नहीं

नियति के साथ गंगूबाई की यह जद्दोजहद गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के बाद से हिन्दी सिनेमा का प्रिय विषय रहा है। सिवाय इस बात के कि यहां गंगूबाई और ज्यादा गर्त में जाने से इनकार कर देती है। यहां ‘गिरी हुई औरत’ वैसी नहीं है। उसमें एक उड़ान है।

फोटोः सोशल मीडिया
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सुभाष के झा

एक कम उम्र, दर्द से भरी लड़की का चेहरा रंगा जा रहा है। तैयारी कुछ ऐसी है जो सुखद तो नहीं ही है। उसकी मुस्कुराहट में भी एक टीस है जिसे और ज्यादा बढ़ाने के लिए एक मजबूत हाथ उसका चेहरा थामता है और उसके मुंह में कपड़ा ठूंस देता है। उसकी नाक में कुछ ऐसा घुसेड़ दिया जाता है जो शायद इस फिल्म के संवादों की ही तरह धारदार है। खून बहता है और उसके चेहरे पर पुते सस्ते मेकअप के साथ लिथड़ जाता है।

यह शुरुआती दृश्य अंधेरे को भेदती उस चीख की तरह है जो फिल्म का मिजाज बता देता है। जो शायद किसी व्याख्या से परे है। संजय लीला भंसाली ने अपनी गंगू बाई के साथ जो किया है, उसका बयान आसान नहीं! आलिया भट्ट की आंखों के उस भयानक दर्द का बयान आप किन शब्दों में करेंगे? वह मुस्कुराती है, वह हंसती है, वह अपने दुश्मनों को धमकाती, दोस्तों को गरियाती है… लेकिन यह सब करते हुए उसकी आंखें लगातार तकलीफों के समंदर में डूबी रहती हैं। मैंने इस आलिया भट्ट जैसी अद्भुत परफारमेंस इससे पहले कभी नहीं देखी। कम-से-कम भारतीय सिनेमा में तो नहीं। फिल्म का कोई भी फ्रेम उनके बिना पूरा नहीं होता।

वह इस शानदार फिल्म के हर फ्रेम में हैं और हर उस शख्स पर भारी जो पांचवें दशक के इस रेडलाइट एरिया को ज्यादा से ज्यादा जीवंत बनाने के लिए अपने विद्रूप के साथ मौजूद हैं। इसलिए ज्यादा कुछ कहने से पहले आलिया भट्ट को एक सलाम तो बनता है कि वह अपने किरदार में इस तरह मौजूद हैं। सिनेमटोग्राफर सुदीप चटर्जी, कला निर्देशक पल्लब चंद्रा और प्रोडक्शन डिजायनर सुब्रत चक्रवर्ती और अमित रॉय को भी सलाम कि उन्होंने 1950 के दशक के मुंबई के इस रेडलाइट एरिया को उसकी जीवंतता के साथ पर्दे पर उतार के रख दिया।

निर्देशक संजय लीला भंसाली अपने ही गढ़े इस रूपक के जबरदस्त दबाव में दिखते हैं। वह अपनी नायिका के चरित्र में इस तरह डूबे हुए हैं कि लगता है आलिया में उन्हें पूरी तरह भरोसेमंद साथी मिल गई है। कहने की जरूरत नहीं कि एक महिला कलाकार के तौर पर अभिनय करते हुए आलिया निर्विवाद रूप से अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के जरिये गंगू बाई के चरित्र के साथ पूरा न्याय करती हैं। मुझे नहीं पता कि गंगूबाई कैसी दिखती थीं… क्या आलिया भट्ट जैसी? लेकिन मुझे इतना जरूर यकीन है कि असल गंगूबाई अगर अपने इस फिल्मी अवतार से मिलतीं तो जरूर इसके जैसा होना चाहतीं!


आलिया की गंगूबाई तेज तर्रार और खूबसूरत है। वह दिल तोड़ने वाली भी है और खूंखार भी। आलिया भट्ट का ऐसा असाधारण प्रदर्शन वाकई पहले नहीं दिखा। यह वाकई अभूतपूर्व है। कहने की जरूरत नहीं कि भंसाली और उनके सह-लेखकों उत्कर्षिनी वशिष्ठ और प्रकाश कपाड़िया की इस सिम्फनी में हर धुन इतनी सधी हुई है कि सब कुछ बहुत उत्कृष्ट लगता है। कहानी के अंत में आलिया की गंगू जवाहर लाल नेहरू से मिलती है, उनसे वेश्यावृत्ति को वैध बनाने की गुहार लगाती है… ‘प्यासा’ में साहिर लुधियानवी की वह लाइन दोहराती है- ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?’ और जवाब में उसके हाथ में उनकी अचकन से निकला वह गुलाब आ जाता है जो अपने आप में एक प्रतीक बन चुका है।

नियति के साथ गंगूबाई की यह जद्दोजहद गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के बाद से हिन्दी सिनेमा का प्रिय विषय रहा है। सिवाय इस बात के कि यहां गंगूबाई और ज्यादा गर्त में जाने से इनकार कर देती है। यहां ‘गिरी हुई औरत’ वैसी नहीं है। उसमें एक उड़ान है। वह नगरपालिका का चुनाव लड़ती है, जीतती है और अपने इलाके की निर्विवाद नायक बनकर उभरती है। यहां वह नहीं है जो अक्सर ऐसी महिलाओं को मिलता है बल्कि वह है जो उन्हें ऐसा होने (बनने) के लिए भी एक बहाना दे देता है। ठीक गालिब (फिल्म में गंगू उन्हें दोहराती दिखती है) के उस शेर की तरह - ‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल को खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है।’

भंसाली हमेशा ओपेरा जैसा जादू बिखेरते हैं। लेकिन यहां ‘देवदास’ जैसा भव्य या ‘सांवरिया’ जैसा मंचीय ओपेरा नहीं है। गंगूबाई काठियावाड़ी का ओपेरा 1950 के दशक के भीड़ भरे रेड लाइट एरिया में रचा गया है जो दुर्लभ है लेकिन भंसाली के लिए नहीं। यहीं पर गंगूबाई की मुलाकात अपने जैसी अफसां (शान्तनु माहेश्वरी) से होती है जो है तो प्रशिक्षु दर्जी लेकिन गंगूबाई को ऐसा पुरुषत्व वाला अहसास देती है जिसकी गंगूबाई को शायद तलाश थी या शायद सपना भी।

उनका यह संक्षिप्त रोमांस, इसके बीच सुंदर गीतों की फुहारों में घुला-मिला वह स्नान दृश्य किसी का भी दिल चुरा लेने को पर्याप्त है। यह सब मिलकर एक ऐसा संसार रचते हैं कि गंदगी के उस महासागर में भी एक स्वप्निल अहसास तारी हो जाता है। सब कुछ बहुत शानदार है। ठीक भंसाली के करिश्मे जैसा। लेकिन उनके अब तक के करिश्मे से कुछ और आगे।


यह एक ऐसी फिल्म है जिसकी चर्चा लंबे समय तक चलने वाली है। इसका वैभव बहुआयामी है। एक बार फिर यह प्रमाणित करता हुआ कि हां- भंसाली जैसा दूसरा नहीं…आलिया भट्ट जैसा भी नहीं।

फिल्म की अंतिम लाइन- ‘गंगूबाई बंबई आई थी हीरोईन बनने के लिए। वो एक फिल्म बन गई’, आखिरी फ्रेम में कहीं बहुत दूर से गूंजती है। यह ऑडियो बहुत प्रभावशाली है। कहने में गुरेज नहीं कि असली गंगूबाई अपने लिए इससे बेहतर श्रद्धांजलि का सपना भी नहीं देख सकती थीं!

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