आंखों से परे 'देखने' की थीम है 'स्पर्श', नसीरुद्दीन और शबाना का बेजोड़ अभिनय फिल्म को बनाती है और मजबूत
भारतीय सिनेमा के अब तक के इतिहास में सई परांजपे की फिल्म 'स्पर्श' ने अपना एक अलग और विशिष्ट मुकाम हासिल किया है। यह ऐसे दो इंसानों की कहानी है जिस में एक इंसान देख नहीं सकता है लेकिन जिस के पास देखने की अपनी एक विशिष्ट दृष्टि है और दूसरा चरित्र एक विधवा का है।
नसीरुद्दीन शाह के लिए 1980 का वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण था। यह वह वर्ष था जब उनके करियर की दो महत्वपूर्ण निर्णायक फिल्में- सईद मिर्जा की 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' और सई परांजपे की 'स्पर्श', महीने भर के अंदर प्रदर्शित हुईं। मिर्जा की फिल्म में नसीर ने अल्पसंख्यक समुदाय के एक गुस्सैल सदस्य का किरदार निभाया था। वहीं ‘स्पर्श’ में भी उन्होंने बिल्कुल हाशिये पर खड़े एक औरअल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति का चरित्र निभाया। यह समुदाय उन लोगों का था जो देख नहीं सकते हैं, यानी जिनके पास देखने की अपनी विशिष्ट दृष्टि होती है। अल्बर्ट पिंटो हमेशा गुस्से में रहता था लेकिन 'स्पर्श' का अनिरुद्ध परमार ऐसा नहीं था। वह तभी अपना आपा खोता था जब कोई उसको उसकी शारीरिक विशिष्टता की याद दिलाता था। उन दिनों, अंधेपन को लाचारी कहा जाता था। और आत्मसम्मान से भरे अनिरुद्ध को इस अक्षर(हैंडीकैप्ड) से सख्त नफरत थी।
सई परांजपे की फिल्म ‘स्पर्श’ को आखिर जो चीज अलग बनाती है, वह है इस विशिष्ट क्षमताओं वाले चरित्र अनिरुद्ध का एक पीड़ित के खांचे में खड़े होने से इनकार का हठ। अनिरुद्ध अपने आसपास मौजूद लोगों की सहानुभूति औ रहमदर्दी को भी अपने से दूर छटकाता रहता है और आखिरकार वह अक्षमता से उत्पन्न एक अलग ही प्रकारके अकेलेपन में जीने लगता है जहां पीड़ित ‘सामान्य’ दिखने के लिए इतना बेताब प्रतीत होता है और वह समाज की मुख्यधारा का अंग बनने के लिए इतना बेचैन होता है कि वह अंततः अपने ही आसपास के लोगों को अत्यधिक सतर्क कर देता है विवे अपने सामने मौजूद किसी भी विशिष्ट क्षमताओं वाले व्यक्ति (स्पेशली एबल्डपर्सन) को एक क्षण के लिए भी अक्षम महसूस नहीं होने दें।
फिल्म में अनिरुद्ध की स्थिति कहीं भी भावुक नहीं बनाई गई है। ब्लाइंड स्कूल में जहां वह प्रिंसिपल है, उसके पास एक पुरुष सहायक है और घर पर एक युवा सहायक उसके लिए चाय आदि बनाने के छोटे-मोटे काम बड़ी ही सतर्कता से करता है। अनिरुद्ध जो देख नहीं सकता, यह ‘समझ’ नहीं पाता कि उसके साथ किसी भी प्रकार की भावनात्मक या मौखिक बातचीत करना कितना मुश्किल है। अनिरुद्ध जिसने खुद को सभी चीजों से अलग-थलग कर लिया था, एक दुखी विधवा कविता (शबाना आजमी) से मिलता है।
अनिरुद्ध और कविता- दोनों ही, अपने-अपने कारणों से अलग-थलग रहते हैं। कौन बता सकता है कि कौन ज्यादा अलग-थलग है? ‘स्पर्श’ ऐसे दो लोगों की कहानी है जो दो अलग छोर पर खड़े हैं और एक-दूसरे तक पहुंचने की कच्ची- पक्की कोशिश करते हैं। असल में कविता ही थी जो अनिरुद्ध के एकांत में स्वेच्छा से बार-बार आ रही थी जबकि अनिरुद्ध को अपनी आजादी खोने का भय लगातार बना रहता है। जब अनिरुद्ध के कॉलेज के एक और ब्लाइंड सहकर्मी (ओम पुरी) अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अकेला रह जाता है, तो अनिरुद्ध निश्चय कर लेता है कि वह कविता के साथ अपने सभी संबंध तोड़ देगा। कविता इस कठोर व्यवहार को बिना शिकायत के स्वीकार कर लेती है। लेकिन अनिरुद्ध इसके बाद अपने अकेले पन को लेकर और भी अधिक हिफाजती/सजग हो जाता है। वह कविता से स्कूल से अपना हर प्रकार का संबंध तोड़ने को कहता है क्योंकि उसके अनुसार वह स्कूल के उन लोगों को जो देख नहीं सकते, अपने देखने की क्षमता के कारण असामान्य महसूस कराती है।
यहां कविता की एकमात्र मित्र (जिसका किरदार सुधा चोपड़ाने निभाया है) हस्तक्षेप करती है और अनिरुद्ध को उसके न देख पाने की स्थिति और कविता की भावनाओं के बारे में सच्चाई से देखने में मदद करती है। वह कहती है, “तुम दोनों में से कौन सही में दृष्टि बाधित है, मुझे समझ में नहीं आता।” वह समझाती है कि “तुम्हें (अनिरुद्ध) उसकी (कविता) आवश्यकता नहीं है। उसे तुम्हारी है।” नाजुक धागों से गुंथी इस पूरी फिल्म में हम देखते हैं कि नसीरुद्दीन शाह बिल्कुल ब्लाइंड नजर नहीं आते हैं। ‘स्पर्श’ फिल्म के लिए नसीरुद्दीन शाह को जो राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था, वह एक तरह से बहुत ही छोटा रिवॉर्ड था क्योंकि विश्व सिनेमा के इतिहास में यह एक ब्लाइंड व्यक्ति और उसके अंदर के संसार का सबसे बढ़िया चित्रण था।
इस फिल्म में नसीर अभी तक निभाए गए सभी दृष्टिहीन किरदारों के मुकाबले अभूतपूर्व अभिनय का प्रदर्शन करते हैं। फिल्म में उनका काम उत्कृष्टतम था। देखने से लगता है कि सई परांजपे को बजटकी तंगी थी लेकिन वह इन सब कठिनाइयों की भरपाई मानवता के लिए दिए गए इस अति संवेदनशील संदेश से कर देती हैं। कभी-कभी विशिष्ट क्षमताओं वाले लोगों के साथ रह रहे सामान्य लोगों पर अपराध बोध का भार इतना ज्यादा हो जाता है कि वह सहन करना मुश्किल हो जाता है। फिल्म में कविता (शबानी आजमी) का संघर्ष उन सभी लोगों के जीवन की एक सामान्य घटना है जो किसी भी प्रकार की विशेष शारीरिक या मानसिक परिस्थिति से जूझ रहे लोगों के साथ रहते हैं। ऐसे सभी लोगों के व्यक्तिगत अहंको किसी भी प्रकार की हानि से बचाए रखने के संघर्ष का बोझ एक सामान्य व्यक्ति के मन पर लगातार इतना हावी रहता है कि उनके संबंध इतने तनावपूर्ण हो जाते हैं कि उन्हें दोबारा सामान्य नहीं बनाया जा सकता। आंखों से परे ‘देखने’ की थीम ही ‘स्पर्श’ के अहसास को एक अनंत गूंज देती है।
‘स्पर्श’ के बारे में नसीरुद्दीन शाह कहते हैं, “किसी को ‘स्पर्श’ याद है क्या? मैं अपने उस अभिनय पर बहुत गौरवान्वित महसूस करता हूं। वह (‘स्पर्श’) ‘आक्रोश’ से थोड़ा-सा ही पहले आई थी। बल्कि‘स्पर्श’ के बाद ‘आक्रोश’ मैंने एक भी दिन के अंतराल के बिना शुरू की थी। दोनों ही बिल्कुल अलग दुनिया है। ‘स्पर्श’ में देख नहीं सकने वाले व्यक्ति का किरदार करने के बाद ‘आक्रोश’ में मुझे अपने आप को पलक झपकाने से भी रोकना था।” नसीर कहते हैं, “अनिरुद्ध के इस किरदार की विश्वसनीयता का श्रेय सई परांजपे को जाता है। उन्होंने उसके लिए जो दृश्य निर्मित किए, वे सच्चाई से भरे हुए थे। और इसीलिए मुझे अनिरुद्ध के किरदार को निभाने में बहुत आसानी हुई। जो मुझे सही से करना था, वह था एक ब्लाइंड व्यक्ति की बॉडी लैंग्वेज। इस पर मैं ‘स्पर्श’ के पहले से भी काम कर रहा था क्योंकि जो लोग देख नहीं सकते उनकी बॉडी लैंग्वेज मुझे हमेशा से ही आकर्षित करती रही है। कॉलेज में मेरे दो मित्र थे और दोनों ही देख नहीं सकते थे। मैं उन्हें काफी ध्यान से देखा करता था। मुझे बस यह समझना था कि जो लोग देख नहीं सकते, उनका ऐसा व्यवहार क्यों होता है। और बाकी सब तो इस कहानी के लेखन ने ही संभाल लिया था।
अनिरुद्ध ऐसा चरित्र है जो आत्मसम्मान औरआत्मगौरव से भरा हुआ है। जो लोग देख नहीं सकते, उन्हें हमारे सिनेमा में ज्यादातर आत्मदयनीयता से भरे चरित्रों के रूप में दिखाया गया है।” नसीर‘स्पर्श’ में अनिरुद्ध के किरदार पर और ज्यादा रोशनी डालते हुए कहते हैं, “मिस्टर मित्तल जिनके चरित्र पर मेरा किरदार आधारित था, उस स्कूल के प्रिसिंपल थे जहां हमने शूटिंग की थी। अगर कभी आप उनसे मिलें तो आप देखेंगे कि उनके चेहरे पर दुनिया की सबसे खूबसूरत आंखें हैं। कोई बता नहीं सकता था कि वह देख नहीं सकते हैं। वह जैसे चलते हैं, सिगरेट जलाते हैं, वह सब बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कोई सामान्य दृष्टिवाला व्यक्ति करता है। बल्कि मिस्टर मित्तल का तो मानना था कि आप मुझे डिसएबल क्यों कहते हैं? मैं तो बस डिफरेंटली एबल हूं। वह कहते थे कि वह सब कुछ कर सकते हैं, बस कार नहीं चला सकते। मेरी दादी मां भी देख नहीं सकती थीं, मैं उन्हें बहुत ध्यान से देखा करता था। इस फिल्म में मैंने कुछ अलग नहीं किया, बस अपने आप को उस स्कूल के परिवेश से एक सार कर दिया।”
इस फिल्म के बारे में शबाना आजमी कहती हैं, “लेखक के रूप में सई परांजपे की आंखें बहुत ही सुखद रूप से चौकस और तेज हैं। ‘स्पर्श’ एक बहुत ही खूबसूरत फिल्म है जो सामाजिक दृष्टि से बहिष्कृत दो लोगों पर है जिनमें से एक शारीरिक रूप से चुनौतियों का सामना कर रहा होता है और दूसरी एक विधवा होती है। फिल्म में ये दोनों प्रेम के बड़े नाजुक धागों में बंधकर एक-दूसरे के करीब आते हैं। इसमें जो विधवा का चरित्र है, वह हिंदी फिल्मों में दिखाए गए मानक चरित्रों(रोने-धोने औरलाचारी से भरे) से दो तरह से अलग है, एक वह जैसा व्यवहार करती है और दूसरा वह जैसे कपड़े पहनती है और फिर भी सालों पुरानी परंपरा और आचार-व्यवहार उसके मार्ग में आ जाते हैं। मैंने तो इस फिल्म में बस अपनी सुझबूझ और सई के निर्देशक का अनुपालन किया है लेकिन नसीर को अपने किरदार में परिवर्तित होते देखना बहुत ही अभूतपूर्व अनुभव था। एक व्यक्ति के रूप में जो देख नहीं सकता है, वह इतने सहज थे कि कैमरे के हटने के बाद भी मैं कई बार सीढ़ियां उतरते हुए उन्हें अनजाने में सहारे के लिए हाथ दे देती थी। व्यक्तिगत कारणों से भी ‘स्पर्श’ मेरे लिए विशेष है क्योंकि जावेद अख्तर को यह फिल्म बहुत पसंद है और मेरा उनसे परिचय भी इसी फिल्म के कारण हुआ था।”
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