जन्मदिन विशेष: हसरत जयपुरी की हालत बिना परों के परिंदे जैसी हो गई थी राज कपूर की मौत के बाद
अपने 40 साल के फिल्मी कैरियर में हसरत ने 350 फिल्मों के लिये करीब 2000 गीत लिखे। इस दौरान पुरस्कार और सम्मान फूलों की तरह हसरत की झोली में गिरते रहे। उन्हें दो बार फिल्म फेयर की ट्रॉफी भी मिली।
जब तक घर वालों का दिया नाम इकबाल हुसैन उनके साथ जुड़ा रहा वे कड़ा संघर्ष करते रहे, लेकिन जब उन्होंने अपना नाम कर लिया हसरत जयपुरी, तो वे घर-घर पहचाने जाने लगे। ये नाम बदल लेना कोई चमत्कार नहीं था। ये तो वक्त की बात थी कि इकबाल हुसैन को हसरत जयपुरी के नाम से आगे बढ़ने का मौका मिल गया। 15 अप्रैल 1922 को जयपुर में जन्मे हसरत जयपुरी को फिल्मी गीतकार के रूप में पहचाना जाता है। हालांकि, उन्होंने गैर-फिल्मी शायरी भी की जो उनकी फिल्मी शोहरत की रोशनी में धुंधली पड़ गयी।
लड़कपन के जिस दौर में प्यार का परिंदा बोलता है, उस उम्र में हसरत को भी उस परिंदे की आवाज सुनायी दी। उन्हें पड़ोस की एक लड़की से प्यार हो गया। तब तक हसरत शायरी करने लगे थे। उनके दादा फिदा हुसैन शायर थे और उनसे ही हसरत ने शायरी का व्याकरण सीखा। खैर, जब हसरत को प्यार हुआ तो उन्होंने प्रेम-पत्र भी लिखा और उस पत्र की शुरूआत इस तरह की, “ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर के तुम नाराज ना होना।” बाद में इन्हीं लाइनों के आधार पर हसरत ने पूरा गीत लिखा, जिसे शंकर जय किशन ने धुन से सजा कर फिल्म ‘संगम’ (1964) का बेहद लोकप्रिय गीत बना दिया।
हसरत की पढ़ाई जयपुर में हुई। जवान होने से पहले ही शायरी करने लगे, लेकिन शायरी से पेट पालना मुमकिन नहीं था। 18 साल की उम्र में रोजगार की तलाश में मुंबई जा पहुंचे। कुछ दिन एक कपड़ा मिल में काम किया, कुछ और छोटे-छोटे धंधे किये और आखिरकार बस कंडक्टर की नौकरी कर ली। हसरत शायरी तो करते ही थे, इसलिये वे मुशायरों में भी शामिल होने लगे। बहुत सादी भाषा में शायरी करने वाले हसरत को एक मुशायरे में पृथ्वीराज कपूर ने सुना। उन्होंने हसरत को इप्टा के दफ्तर में बुलाया। राजकपूर अपने निर्देशन में बन रही फिल्म ‘बरसात’ के लिए गीतकार की तलाश में थे। शैलेंद्र को वे इप्टा के समारोहों में सुन चुके थे। राजकपूर ने हसरत से भी उनका कलाम सुना और फिर शंकर, जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत और राजकपूर की एक टीम बन गयी। राजकपूर के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘बरसात’ (1949) से शुरूआत कर इस टीम ने हिंदी सिनेमा को ढेरों यादगार गीत दिये। इस फिल्म में हसरत ने पहला फिल्मी गीत लिखा - ‘जिया बेकरार है छाई बहार है...।’
उस समय फिल्मों में फिल्म के शीर्षक पर आधारित गीत शामिल करने का चलन था। हसरत शीर्षक गीत लिखने में माहिर थे। उनके लिखे शीर्षक गीतों की एक बानगी देखिये - रात और दिन दिया जले (रात और दिन), गुमनाम है कोई (गुमनाम), रुख से जरा नकाब उठाओ मेरे हुजूर (मेरे हुजूर), दुनिया की सैर कर लो इंसा के दोस्त बन कर - अराउंड द वर्ल्ड इन एट डॉलर (अराउंड द वर्ल्ड), एन ईवनिंग इन पेरिस (एन ईवनिंग इन पेरिस), कौन है जो सपनों में आया, कौन है जो दिल में समाया, लो झुक गया आसमां भी, इश्क मेरा रंग लाया (झुक गया आसमां), दीवाना मुझकों लोग कहें (दीवाना), तेरे घर के सामने इक घर बनाउंगा (तेरे घर के सामने), दो जासूस करें महसूस, ये दुनिया बड़ी खराब है (दो जासूस), मैं हूं खुश रंग हिना (हिना)।
अपने 40 साल के फिल्मी कैरियर में हसरत ने 350 फिल्मों के लिये करीब 2000 गीत लिखे। इस दौरान पुरस्कार और सम्मान फूलों की तरह हसरत की झोली में गिरते रहे। उन्हें दो बार फिल्म फेयर की ट्रॉफी भी मिली। पहली बार फिल्म ‘सूरज’ के गीत – “बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है” के लिए और फिर फिल्म ‘अंदाज’ के गीत – “जिंदगी एक सफर है सुहाना” के लिए। हसरत के गीतों की खासियत उनकी सादी भाषा है। मुकेश के लिए तो हसरत ने कालजयी गीत रच डाले। मिसाल के लिये - छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए (बरसात), हम तुमसे मोहब्बत करके सनम रोते भी रहे (आवारा), आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें कोई उनसे कह दे (परवरिश), दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी (तीसरी कसम), जाने कहां गए वो दिन (मेरा नाम जोकर)।
बहरहाल, हर शख्स का एक दौर होता है, हसरत का भी एक दौर था। शैलेंद्र और जयकिशन की मौत के बाद वे बहुत अकेलापन महसूस करने लगे और राज कपूर के निधन के बाद तो उनकी बिना परों के परिंदे के समान हालत हो गयी। 17 सितंबर 1999 को अपनी मौत से पहले कई साल तक हसरत ने गुमनामी में जीवन बिताया। फिल्म “पगला कहीं का” (1970) में हसरत ने एक गीत लिखा जो हमेशा उनकी याद दिलाता रहेगा। “तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे...”
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