देवानंद: हिंदी सिनेमा का वह राजू ‘गाइड’ जिसे मना था काला सूट पहनना
आर के नारायण फिल्म से खुश नहीं थे, खासकर फिल्म के अंत से। लेकिन ‘गाइड’ फिल्मों की दुनिया में उतनी ही अहम जगह रखती है जितना कि भारतीय उपन्यासों में ‘गाइड’ उपन्यास की जगह है। और इसके लिए देवानंद के जज्बे, उनके उत्साह और लगन को हमेशा याद किया जाता रहेगा।
हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का जिक्र किये बगैर भारतीय सिनेमा की बात करना बेमानी है और हिंदी सिनेमा का सुनहरा दौर देवानंद के बगैर अधूरा है। अपने समय के सबसे दिलकश अदाकार माने जाने वाले देवानंद के बारे में मशहूर था कि उन्हें काले सूट में बाहर निकलने से इसलिए मनाही थी कि कहीं उनपर जान छिड़कने वाली उनकी महिला फैन्स उनसे मिलने के लिए ऊंची इमारतों से नीचे ना कूद जाएं। और इसीलिए उन्हें ‘लेडी किलर’ नाम से नवाजा भी गया था।
लाहौर में अंग्रेजी साहित्य से बीए करने के बाद देवानंद एक क्लर्क की नौकरी करने लगे थे। मशहूर अभिनेता अशोक कुमार के प्रोत्साहन और मदद से देवानंद ने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा और उसके बाद उनका फिल्मी सफर जगजाहिर है।
देवानंद ने ना सिर्फ एक के बाद एक बहुत सफल फिल्में कीं, बल्कि एक लिबरल रोमांटिक नायक के तौर पर भी खुद को स्थापित किया, एक ऐसा नायक जो अपनी सौम्य शख्सियत के बावजूद समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़ा होता है। उन्होंने ‘नवकेतन’ के नाम से अपना एक प्रोडक्शन हाउस भी शुरू किया, जिसने आगे चलकर हिंदी सिनेमा को कई बहुत अच्छी और सार्थक फिल्मों से समृद्ध किया।
देवानंद और उस वक्त की मशहूर और बहुत खूबसूरत नायिका सुरैया के प्रेम के अफसाने भी बहुत मशहूर हुए। लेकिन अफसोस इतने दिलकश, पढे-लिखे और उदार विचारधारा वाले देव आनंद का प्यार परवान ना चढ़ सका क्योंकि मजहब आड़े आ गया। सुरैया तो इस कदर टूट गयीं कि उन्होंने ताउम्र शादी ही नहीं की। कसम तो देवानंद ने भी खायी थी कि वो भी जिंदगी भर कुंवारे ही रहेंगे, लेकिन लगातार चार हिट फिल्मों (बाज़ी, आंधियां, हाउस नंबर 44 और नौ दो ग्यारह) की अपनी हीरोइन कल्पना कार्तिक से उन्होंने आखिरकार पांचवी फिल्म टैक्सी ड्राईवर की शूटिंग के बीच मिले लंच ब्रेक के दौरान विवाह रचा लिया।
हिंदी सिनेमा के कैरी ग्रांट के तौर पर मशहूर देवानंद का बतौर प्रोड्यूसर और एक्टर सबसे बड़ा प्रोजेक्ट था फिल्म ‘गाइड’ का निर्माण। देवानंद ‘हम दोनों’ फिल्म की प्रमोशन के लिए बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में गए थे जहां उन्होंने आर के नारायण की किताब ‘द गाइड’ पढ़ी। ये उपन्यास उन्हें इतना दिलचस्प लगा कि वो एक ही बार में सारा उपन्यास पढ़ गए। उपन्यास का नायक राजू उनके मन को भा गया और उन्होंने निश्चय किया कि इस उपन्यास पर वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फिल्म बनाएंगे।
उसी दौरान नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका पर्ल एस बक ने निर्देशक टेड देनिएलेव्स्की के साथ मिलकर स्ट्रेटन प्रोडक्शन की शुरुआत की थी और वे एकाध बार भारतीय सहयोग से फिल्म बनाने की इच्छा भी जाहिर कर चुकी थीं। देवानंद ने तुरंत पर्ल एस बक से संपर्क किया और उन्हें इस उपन्यास के बारे में बताया। बक पहले से इस उपन्यास से वाकिफ थीं इसलिए वो फौरन राजी भी हो गयीं। तय हुआ कि फिल्म हिंदी और अंग्रेजी दोनों में बनेगी। अंग्रेजी में इसका निर्देशन टेड करेंगे और हिंदी में देव साहब के बड़े भाई चेतन आनंद। फिर देव आनंद लेखक आर के नारायण से मिले और उन्हें उपन्यास पर फिल्म बनाने की मंजूरी देने के लिए राजी किया।
जब फिल्म का निर्माण शुरू हुआ तो चेतन आनंद ने महसूस किया कि उनके और टेड देनिएलेव्स्की के बीच गंभीर मतभेद हो सकते हैं। चूंकि हिंदी और अंग्रेजी संस्करण के बहुत से दृश्य एक साथ शूट किये जाने थे, इसलिए चेतन आनंद को लगा कि तनाव पैदा हो उससे पहले काम छोड़ना बेहतर है। उसके बाद उनकी जगह ली देव साहब के छोटे भाई विजय आनंद ने।
राजू के किरदार में तो देव साहब को ही होना था, लेकिन नायिका रोजी के किरदार के लिए चेतन आनंद चाहते थे प्रिया राजवंश को कास्ट करना. लेकिन देवानंद ने साफ इनकार कर दिया। वैजयंती माला और पद्मिनी को भी कास्ट नहीं किया गया क्योंकि उनकी कदकाठी विशुद्ध भारतीय थी और निर्देशक टेड देनिएलेव्स्की को वो अमरीकी दर्शकों के अनुकूल नहीं लगीं। देवानंद शुरू से वहीदा को ही लेने के पक्ष में थे और आखिरकार वहीदा को ही कास्ट किया गया।
फिल्म की शूटिंग के दौरान लेखक आर के नारायण को भी न्योता दिया गया कि उनकी मौजूदगी फिल्म के लिए बेहद जरूरी है। आर के नारायण शूटिंग में मौजूद तो रहे लेकिन उन्हें एहसास हो गया कि फिल्म उपन्यास से ‘कनेक्ट’ करे ये जरूरी नहीं। उन्होंने अपने लेख ‘मिसगाइडेड गाइड’ में लिखा भी है कि “मुझे ये महसूस होना शुरू हो गया था कि एकल संवाद एक फिल्म निर्माता का विशेषाधिकार है और इसमें मुझे बीच-बीच में अपनी टिप्पणियां नहीं जोड़नी चाहिए। नामालूम क्यों ऐसा लगता था कि उन्हें मेरी मौजूदगी की जरुरत तो है, लेकिन मेरी आवाज की नहीं। मेरा दिखना जरूरी है, मुझे सुना जाना नहीं।”
बहरहाल तमाम मुश्किलों और मतभेदों के बावजूद गाइड बनी। अंग्रेजी में तो फिल्म डूब गयी। कारण स्पष्ट थे- कहानी के मर्म को छोड़ दर्शकों की रूचि को ज्यादा ध्यान में रखा गया था। लेकिन हिंदी में फिल्म ना सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर सफल हुयी बल्कि समीक्षकों ने भी उसे सराहा।
सबसे खास बात ये थी कि इस फिल्म ने बेहद खूबसूरती और संवेदनशीलता से बगैर किसी नैतिक पाठ के एक विवाहेत्तर संबंध को दर्शाया। फिल्म के गीतों में भी एस डी बर्मन ने नये प्रयोग किये और एक ही राग में एक खुशनुमा गीत और उसके तुरंत बाद एक उदास गीत फिल्मा कर निर्देशक विजय आनंद ने भी एक सफल प्रयोग किया।
हालांकि आर के नारायण फिल्म से खुश नहीं थे, खासकर फिल्म के अंत से, लेकिन गाइड फिल्मों की दुनिया में उतनी ही अहम जगह रखती है जितना कि भारतीय उपन्यासों में ‘गाइड’ उपन्यास की जगह है। और इसके लिए देवानंद के जज्बे, उनके उत्साह और लगन को हमेशा याद किया जाता रहेगा।
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