ब्लैकमेल: अपनी कमजोरियों के बावजूद देखने लायक ब्लैक कॉमेडी

<i>ब्लैकमेल</i> का सबसे मज़बूत बिंदु है इसका अंत और सबसे कमज़ोर बात है इसके गीत और महिला किरदारों का चित्रण, जो लगभग स्त्री विरोधी महसूस होता है. लेकिन इस सबके बावजूद, फिल्म मजेदार है।

फोटो : सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

इरफ़ान खान को परदे पर देखना लगभग हमेशा एक खुशनुमा अनुभव रहा है। लेकिन ‘ब्लैक मेल’ स्क्रिप्ट राइटर (परवेज़ शेख़) और डायलाग राइटर (प्रधुमन सिंह माल) की फिल्म है. इरफान की बेहतरीन अदाकारी कहानी के तमाम आयामों को सामने लाती है।

हिंदी सिनेमा में ब्लैक कॉमेडी जैसी विधा को कभी ज्यादा दर्शक नहीं मिले। हालांकि ‘जाने दो भी यारो’ जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनी हैं लेकिन रिलीज़ के वक्त ‘जाने भी दो..’ ने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था। कुछ साल पहले निर्देशक अभिनय देओ ने ही बनायी थी ‘डैली बैली’. इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तो अच्छी कमाई की थी लेकिन अपने द्विअर्थी संवादों और फूहड़ता के लिए फिल्म की काफ़ी आलोचना हुयी थी।

लेकिन ब्लैक मेल हिंदी बेल्ट की सेंसिबिलिटी, कॉमेडी, व्यंग और इंसानी रिश्तों की विडम्बनापूर्ण जटिलताओं का बढ़िया मेल है।

एक मध्य वर्गीय नौजवान (देव) हालांकि दूसरों की बीवियों की तस्वीरें चुराता है और उनके बारे में फैंटेसाइज़ करता है, लेकिन अपनी बीवी को भी इम्प्रेस करना चाहता है ।लेकिन जब वह अपनी बीवी(रीना) को किसी दूसरे मर्द के साथ देखता है तो उसका दिल टूट जाता है और वह इन्तेकाम लेने का एक नायब तरीका ढूंढता है। अपनी बीवी के बॉय फ्रेंड को ब्लैक मेल करना। और इस ब्लैक मेल से शुरू होती है ऐसी सिचुएशंस का सिलसिला जो हास्यास्पद हैं, विडम्बनापूर्ण हैं, उदास भी हैं और व्यंगपूर्ण भी।

फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ के बाद ओमी वैद्य ने एक बार फिर इस फिल्म के साथ परदे पर वापसी की है और टॉयलेट पेपर बनाने और बेचने वाली कम्पनी के ‘अमरीका रिटर्न’, आत्म मुग्ध मालिक डीके (याद है, डैली बैली का वो गाना ‘भाग डीके बोस भाग..’?) के रोल में वे खरे उतरे हैं। इस फिल्म में निर्देशक अभिनय देओ की पिछली फिल्म ‘डैली बैली’ के कुछेक शेड्स हैं. ‘डैली बैली’ की तरह ही ये फिल्म भी इसी तरफ इशारा करती है कि समाज में बहुत सरल परिभाषित इंसानी रिश्ते भी उतने सरल और सहज नहीं होते।

रीमा के मूर्ख लेकिन लम्बे चौड़े बॉय फ्रेंड के तौर पर अरुणोदय सिंह अच्छे लगे हैं लेकिन अरुणोदय स्क्रीन पर जितने प्रभावशाली लगते हैं उस लिहाज़ से उन्हें इंटेंस और जटिल भूमिकाएं करनी चाहिए। हीरो की सहकर्मी के रोल में अनुजा साठे प्रभावित करती हैं। जिस तेज़ी से वे एक अंग्रेजी बोलने वाली ईमानदार सहकर्मी से मराठी बोलने वाली तेज़ तर्रार लड़की में तब्दील होती है, वह ज़बरदस्त है।

जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, फिल्म के लगभग सभी किरदार एक-दूसरे को ब्लैक मेल करने पर आमादा नज़र आने लगते हैं। इस फिल्म पर भी हॉलीवुड के कोएन ब्रदर्स का ज़ोरदार असर दिखाई देता है। हालाँकि अनैतिकता, बेवफ़ाई और अचानक पैदा हुयी परिस्थितियों के चारों तरफ घूमती कॉमेडी की हिंदी फिल्मों में ख़ास जगह नहीं रही है।

उर्मिला मातोंडकर का आइटम सॉंग और रंजीत की नशे में धुत्त बीवी के रोल में दिव्या दत्ता भी तारीफ़ के काबिल हैं। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि इन दोनों अदाकाराओं की काबिलियत का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ है। अपने छोटे से डांस सीक्वेंस में भी उर्मिला आज की आइटम सॉंग करने वाली अभिनेत्रियों को चुनौती देती नज़र आती हैं।

एक ऐसी फिल्म जो नायक की बीवी की बेवफ़ाई के चारो तरफ घूमती है उसमे नायक की बीवी का किरदार ही कमज़ोर है. वह महज़ ऐसी लड़की के तौर पर दिखती है जिसकी एक ऐसे शख्स से शादी हो जाती है जिससे वह शादी नहीं करना चाहती थी। बस...

कभी कभी फिल्म की गति भी धीमी पड़ती है और अमित त्रिवेदी का संगीत भी अब एक जैसा ही हो गया है. अभिनय देओ की फिल्मों के गीत अक्सर दोहरे मतलब लिए होते हैं और कहीं कहीं अश्लील भी. ‘दे दे’, ‘ले ले’, फट गयी’ किस्म के बोल सुनते हुए यह यकीन नहीं होता कि कभी हमारी फिल्म इंडस्ट्री में साहिर, मजरूह और कैफ़ी आज़मी जैसे गीतकार भी हुआ करते थे।

ब्लैकमेल का सबसे मज़बूत बिंदु है इसका अंत और सबसे कमज़ोर बात है इसके गीत और महिला किरदारों का चित्रण, जो लगभग स्त्री विरोधी महसूस होता है. लेकिन इस सबके बावजूद, फिल्म मजेदार है।

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Published: 06 Apr 2018, 8:11 PM