सिनेमा के आईने में अफगानिस्तान: जानें उन पांच फिल्मों के बारे में जो अफगान और तालिबान पर हैं केंद्रित

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी और उस पर तालिबान के नियंत्रण के साथ ही दुनिया के साथ-साथ वैश्विक फिल्मकारों का भी का ध्यान इस देश पर केंद्रित है।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी और उस पर तालिबान के नियंत्रण के साथ ही दुनिया के साथ-साथ वैश्विक फिल्मकारों का भी का ध्यान इस देश पर केंद्रित है। कट्टरपंथी और अधिनायकवादी समूह महिलाओं के क्रूर दमन और कला, संस्कृति एवं मनोरंजन के विभिन्न रूपों के अलावा बहुत सारी चीजों के तिरस्कार के लिए कुख्यात हैं।

यह कई फिल्मों की विषय रहा है– चाहे वे मुख्याधारा की हों या कला फिल्में हों, या फिर हॉलीवुड और भारतीय फिल्में हों या फिर विश्व सिनेमा की फिल्में हों। यदि ‘जीरो डार्क थर्टी’ फिल्म ओसामा बिन लादेन की तलाश पर केंद्रित थी, तो ‘चार्ली विल्सन्स वार’ और ‘लिविंग डेलाइट्स’ जैसी पश्चिमी फिल्में अमेरिका पर और जेम्स बॉन्ड की मुजाहिद्दीन के साथ गुप्त मुलाकात पर केंद्रित थीं।

भारतीय सिनेमा में बहुत पहले 1961 में आई फिल्म ‘काबुलीवाला’ में पठान का बहुत ही यादगार किरदार था। यह फिल्म रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित थी और इसमें बलराज साहनी ने अफगानिस्तान से आए ड्राई-फ्रूट बेचने वाले व्यक्ति का किरदार निभाया था जो अपनी मातृभूमि और नन्ही बेटी को याद करता रहता है। इसी कहानी का दूसरा संस्करण पिछले दिनों ‘बाइस्कोपवाला’ में दिखा। इस फिल्म में डैनी डेन्जोंगपा हैं। इसमें प्रतिष्ठित किरदार और पृष्ठभूमि में बदलाव किया गया है और यह 1990 के दशक के तालिबान के शासन के समय पर केंद्रित है।

‘धर्मात्मा’ को ऐसी भारतीय फिल्म के रूप में जाना जाता है जिसकी शूटिंग अफगानिस्तान में हुई थी और ‘खुदा गवाह’ को अफगान लोगों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय हिंदी फिल्म माना जाता है। अफगानिस्तान की यात्रा करने और उस देश पर कई डॉक्युमेंट्री बनाने के बाद कबीर खान ने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘काबुल एक्सप्रेस’ बनाई थी। यह दो भारतीय पत्रकारों के बारे में है जो 2001 में अमेरिका के नेतृत्व में हुए आक्रमण के बाद अफगानिस्तान में लोगों के जीवन के बारे में रिपोर्टिंग करते हैं। यह फिल्म तालिबान शासन के दौरान जो कहर ढहाया गया था, उसकी एक झलक दिखाती है।


‘द काइट रनर’ शायद ऐसी फिल्म होगी जो अफगानिस्तान के अशांत अतीत को पूरे विस्तार के साथ दर्शकों के सामने रखती है। यह फिल्म खालेद हुसैनी के उपन्यास पर आधारित है। यह राजशाही के हालिया इतिहास और उसकी समाप्ति, सोवियत के आक्रमण, गृह युद्ध और तालिबान के उदय को समेटे हुए है। हालांकि यह केवल राजनीति, संघर्षों और युद्धों के बारे में नहीं है बल्कि मानवीय आयामों और उसके प्रतिघातों के बारे में भी है। मैं अफगानिस्तान, ईरान और यूके के फिल्मकारों की पांच फिल्मों का चयन करूंगी जो अफगानिस्तान में ग्राउंड जीरो में जीवन का अर्थ बताती हैं और संवेदनशील और प्ररेक शक्ति को प्रस्तुत करती हैं।

(1). समीना मखमलबाफ की ‘एट फाइव इन द आफ्टरननू’ (2003)

यह उन शुरुआती फिल्मों में से एक है जिसे 2001 में अमेरिकी नेतृत्व में हुए आक्रमण और तालिबान शासन के खात्मे के बाद काबुल में फिल्माया गया था। ‘एट फाइव इन द आफ्टरननू’ का प्रीमियर कान फिल्म समारोह में हुआ था और इसे जूरी अवार्ड मिला था। इसकी कहानी एक ऐसी महिला के बारे में है जो अफगानिस्तान की राष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षा को अपने भीतर पाले हुए है और इसके लिए शिक्षा प्राप्त करना चाहती है। यह फिल्म बहुत ही मार्मिक और दिल को छूने वाली है क्योंकि इसमें हम देखते हैं कि सपने कैसे पाले जाते हैं तथा हिंसा, युद्ध, रूढ़िवादिता और दमन के घनघोर अंधकार के बीच भी इन्हें कैसे सजाया-संवारा जा सकता है।

(2). माइकल विंटरबॉटम की ‘इन दिस वर्ल्ड’ (2002)

हाल ही में हमने विमान से अफगानों के नीचे गिरने के जो खौफनाक दृश्य देखे हैं, तो मुझे माइकल विटरं बॉटम की फिल्म ‘इन दिस वर्ल्ड’ में दर्शाई गई एक ऐसी ही भय से भरी अफरा-तफरी की परिस्थिति याद आ गई। इस फिल्म ने बर्लिन फिल्म समारोह में गोल्डन बीयर का पुरस्कार जीता था। ये अफगानी काबुल से निकलने की अपनी मायूस कोशिश में अमेरिकी विमान के पहियों से चिपक जाते हैं। विटरं बॉटम की फिल्म में भी कुछ इसी तरह के हृदय विदारक दृश्य देखने को मिलते हैं। इस फिल्म में दो अफगान लड़के गैर-काननूी रास्ते से ब्रिटेन में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं। ये लड़के पाकिस्तानी शरणार्थी शिविर से होते हुए ईरान, तुर्की और इटली का रास्ता लेते हैं। हम देखते हैं कि शरणार्थियों का एक समूह छिपकर पानी के जहाज के एक बिना हवादार कंटेनर में स्वयं को बंद कर लेता है। वे इसके कारण सामने खड़ी घुटन भरी मौत से भी सौदा कर लेते हैं। उनके लिए किसी भी कीमत पर आजादी महत्वपूर्ण है।

(3). मोहसने मखमलबाफ की ‘कंधार’ (2001)

यह एक ईरानी फिल्म है जिसकी शूटिंग तो ईरान में ही हुई है लेकिन यह अफगानिस्तान में तालिबानी शासन पर केंद्रित है। इसका प्रीमियर कान फिल्म समारोह में हुआ था। यह एक ऐसी अफगान महिला के बारे में है जो कनाडा में रहती है लेकिन अपने वतन लौटती है ताकि वह अपनी बहन को आत्महत्या करने से रोक सके। उसकी यह बहन कंधार में ही छूट गई थी। उसका यह मिशन दर्शकों के लिए अफगानिस्तान की क्रूर सच्चाई से एक भयावह आमने-सामने का जरिया बन जाता है। अफगानिस्तान ऐसा देश है जो हथियारों से तो भरा हुआ लेकिन वहां मौलिक स्वास्थ्य सुविधाएं तक भी उपलब्ध नहीं हैं। लोग भोजन, पानी और अन्य संसाधनों से वंचित हैं और औरतें अपने बुर्के में फंस कर रह गई हैं। यह फिल्म उस देश के निर्मम शासकों पर एक बहुत ही जबरदस्त तोहमतनामा है।

(4). सिद्दीक बारमक की ‘ओसामा’ (2003)

सन 1996 में तालिबान द्वारा फिल्में बनाने पर लगाए गए प्रतिबंध के बाद देश में फिल्माई गई ‘ओसामा’ पहली अफगानी फिल्म है। यह फिल्म अफगानिस्तान, नीदरलैंड, ईरान, जापान और आयरलैंड के द्वारा सह-निर्मित है। यह फिल्म विशिष्ट रूप से तालिबान द्वारा महिलाओं पर थोपे गए उत्पीड़क काननूों पर है – जैसे कि शिक्षा और रोजगार की मनाही, अन्य चीजों के साथ-साथ बुर्का आवश्यक रूप से पहनने का फतवा। इस फिल्म में एक युवा लड़की अपने बाल काट देती है और लड़के के वेष में अपने बेसहारा परिवार को सहारा देती है। परिवार में उसके अलावा उसकी मां और दादी है। लेकिन कितने लंबे समय तक वह एक पहेली की तरह जी पाएगी?

(5). शाहरबनू सादात की ‘द ऑर्फनेज’ (2019)

इस फिल्म को कान फिल्म समारोह के पैरालल डायरेक्टर्स फॉर्टनाइट सेक्शन में दिखाया गया था। यह फिल्म उन किशोरों के जीवन पर आधारित है जो अफगानिस्तान में एक अनाथालय में रहते हैं। इस फिल्म में सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद मुजाहिदीन के सत्ता संभालने के बाद अफगानिस्तान एक गणतंत्र से एक इस्लामिक राज्य में परिवर्तित होने जा रहा है। हिंदुस्तान के लिए इस फिल्म में जो सबसे रोचक है, वह यह है कि इन अफगान किशोरों को हिंदी फिल्मों और विशेषकर अमिताभ बच्चन से जुननू की हद तक लगाव है। एक औसत से भी कम जिंदगी से निजात पाने के लिए बॉलीवुड ही उनकी आखिरी शरणस्थली है।

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Published: 29 Aug 2021, 10:03 PM