क्रीमी लेयर पर सरकार का फैसला है गलत
ओबीसी ‘क्रीमी लेयर’ में सरकार ने मामूली सा बदलाव किया है, लेकिन उसे इस तरह से दिखाया जा रहा है जैसे सरकार ने कोई सामाजिक क्रांति कर दी है।
ओबीसी ‘क्रीमी लेयर’ में सरकार ने मामूली सा बदलाव किया है, लेकिन उसे इस तरह से दिखाया जा रहा है जैसे सरकार ने कोई सामाजिक क्रांति कर दी है। सिर्फ इतनी तब्दीली की गई है कि जो सीमा अभी तक 6 लाख थी, उसे बढ़ाकर 8 लाख कर दिया गया है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षित 27 फीसदी पदों के लिए वही अभ्यर्थी लाभ ले सकेंगे, जिनके मां-बाप या अभिभावकों की वार्षिक आय 8 लाख से कम होगी। 2013 से यह सीमा 6 लाख थी और उससे पहले साढ़े 4 लाख। आरक्षण लागू करते वक्त 1993 में यह केवल एक लाख निर्धारित की गयी थी। बढ़ती तनख्वाह और महंगाई के आधार पर इसे बढ़ाया जाता रहा है।
बैंक और अन्य सरकारी उपक्रमों में उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों को क्रीमी लेयर में शामिल तो नहीं किया गया है, लेकिन उसे कुछ स्पष्टता के साथ जरूर सामने रखा गया है। जैसे बैंकों में सीधे भर्ती हुए लेवल-एक के अधिकारी भारत सरकार के ग्रुप ए पदों की तरह ही क्रीमी लेयर का हिस्सा माने जाएंगे। यह भी न्यायालयों के निर्णयों के दबाव में करना पड़ा है। पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग की लिखित परीक्षा और अन्य परीक्षाओं में ऐसे अभ्यर्थी थे जिनके मां-बाप बैकों और अन्य सरकारी उपक्रमों में उच्च पदों पर थे और 6 लाख की सीमा से कई गुना ज्यादा वार्षिक आय वाले थे। पिछड़ों में भी अति-पिछड़े का विभाजन कई राज्य सरकारों की तर्ज पर किया गया है। यदि उसका पालन हो तो शायद कुछ फायदा हो सकता है।
इस सरकार के बड़े-बड़े दावों को देखते हुए उम्मीद थी कि इस संबंध में कोई महत्वपूर्ण फैसला आएगा। देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे है और इसको ध्यान में रखते हुए क्रीमी लेयर पर सर्वेक्षण जैसा कुछ किया जाएगा। लेकिन सरकार की मंशा कुछ और ही दिखाई देती है। यहां बहस, आलोचना का मुद्दा आरक्षण नहीं है, बल्कि चिंता यह है कि क्या गरीबी रेखा के आस-पास गुजर करने वाले उड़ीसा, बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश के ओबीसी युवा दिल्ली, मुंबई, चेन्नई में रह रहे संपन्न ओबीसी परिवारों के बच्चों से प्रतिस्पर्धा में जीत सकते है? आईएएस, पीसीएस की तो छोड़े, उनके लिए चपरासी, क्लर्क, सिपाही की नौकरी भी पाना बहुत मुश्किल है। क्रीमी लेयर को तो राजनीतिक दबाव में 1 लाख से 8 लाख तक पहुंचा दिया गया, लेकिन अति-पिछड़े तो और पिछड़ते जा रहे हैं। इस सीमा को बढ़ाकर गरीब पिछड़ों का और नुकसान हुआ है। अच्छा तो यह होता कि 6 लाख की सीमा को भी कम किया जाता। इससे सही अर्थों में सरकार की आरक्षण नीति का फायदा वंचिक तबकों तक पहुंच पाता।
क्रीमी लेयर की सीमा कम करने के पक्ष में तर्क और आकड़े केंद्र और राज्य सरकारों के पास हैं। यूपीएससी के ही पिछले दस साल के आकड़े उठाकर देखें तो हकीकत सामने आ जाती है। ओबीसी के 90 प्रतिशत उम्मीदवारों का माध्यम अंग्रेजी है और उनकी शिक्षा भी निजी स्कूलों में हुई है। अंग्रेजी और निजी स्कूल उनकी हैसियत और संपन्नता की पहचान है, पिछ़डेपन की नहीं। उनमें से ज्यादातर ने महानगरों में प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग ली है और कई बरसों से बड़े शहरों में रह रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक स्वार्थों के चलते सैकड़ों जातियां ओबीसी, एससी, एसटी सूची में शामिल तो होती रही हैं, लेकिन बाहर कभी निकलीं। पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रहे और जाने माने समाजशास्त्री धीरूभाई शेठ ने बार-बार इस पक्ष पर अपनी चिंता जाहिर की है। पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य के नाते धीरूभाई ने जाटों को ओबीसी में शामिल न करने की सिफारिश इन्हीं तर्कों के आधार पर की थी। उनका कहना था कि इन सभी आरक्षित वर्गों में ऐसी क्रीमी लेयर तैयार हो गई है जो नीचे तक आरक्षण को रिसने नहीं देती है। यदि इन सभी सूचियों को समीक्षा नहीं हुई तो आरक्षण का उद्देश्य ही असफल हो जायेगा।
उच्चतम न्यायालय ने अपने दर्जनों फैसलों में यही बात कही है। 1994 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसी तर्क पर क्रीमी लेयर को रेखांकित किया था। क्रीमी लेयर को लेकर लिए गए अपने ताजा फैसले में सरकार ने समानता, समरसता की ओर बढ़ने का मौका खो दिया है।
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