फूड कथा-2: एक तरह का जादुई फल है आंवला, शासक वर्ग को जरूर सुननी चाहिए राजस्थान में प्रचलित आंवल्या राजा की कहानी
प्रस्तुत है फूड कथा की दूसरी कड़ी। जैसा कि हमने आपको बताया था कि अन्न का इतिहास, पुराणों में अन्न और फलों का वर्णन और अन्न आदि को लेकर आज के शासक वर्ग की सियासत पर हमने फूड कथा नाम से श्रंखला शुरु की है। इसे लिख रही हैं वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे। आज चर्चा आंवला पर।
आंवला को संस्कृत में आमलकी, अंग्रेजी में इंडियन गूस्बेरी, लैतिन में इम्बेलिका ऑफिसिनालिस कहते हैं। यह विटामिन सी का सबसे अच्छा प्राकृतिक स्रोत है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख जैमिनीय उपनिषद् में मिलता है जिसमें तेल में अचार बनाने, शहद में साबूत रखकर मुरब्बा बनाने या फिर पणक नाम के शीतल पेय बनाने के लिए इसके इस्तेमाल की बात कही गई है।
आयुर्वेद में आंवले को हर व्यक्ति के लिए हर मौसम में हर दिन उपभोग के लिए उपयुक्त माना जाता है। विभिन्न रोगों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले त्रिफला चूर्ण के तीन अवयवों में आंवला एक है। च्यवनप्राश का भी प्रमुख हिस्सा आंवला ही है जिसे तमाम कंपनियां पुष्टिवर्द्धक औषधि और आंवला जूस को बेहतरीन टॉनिक के रूप में बेच रही हैं।
पश्चिम में आंवला के अत्यंत स्वास्थ्यकर गुण के बारे में जानकारी के काफी पहले से पूरे भारत में आंवला का पौधा लगाया जाता था। आंवले के रूप में छोटे-हरे और गोल फल देने वाले ये पेड़ राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में भी बड़े आराम से उग जाते हैं। आंवले का स्वाद थोड़ा खट्टा और कसैला होता है (इसलिए लड़कियां बहुत पसंद करती हैं जो इसे मिर्च पाउडर और नमक के साथ कुतरना पसंद करती हैं) लेकिन इसे अच्छे से सुखाने और संरक्षित करने के साथ जब खारापन हटा दिया जाता है, तब इसका स्वाद बढ़ जाता है। दादी-नानी कहा करती थीं कि गर्मी के दिनों में सूखे आंवले के कुछ टुकड़े पास रखने से लू के घातक प्रभावों से बचा जा सकता है। हाल के समय में आंवले ने अचानक अपनी पुरानी लोकप्रियता हासिल कर ली है क्योंकि डॉक्टर भी मान गए हैं कि यह एक बेहतरीन एंटी ऑक्सीडेंट है और वे इसे खराब कोलेस्ट्रॉल को घटाने और इंसुलिन बनाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में मददगार मानने लगे हैं।
मिथकों के मुताबिक, पृथ्वी पर आंवले की उत्पत्ति ध्यानमग्न ब्रह्मा के टपकते आंसुओं के रूप में हुई। संस्कृत में इसे सभी दोषों को दूर करने वाला- सर्वदोष हर- कहा जाता है। याददाश्त बढ़ाने और ज्यादा खा लेने के बाद मुंह को तरो-ताजा करने वाले फल के रूप में आंवला लोकप्रिय रहा है। कवि अक्सर एक वास्तविक ज्ञानी की क्षमता का वर्णन यह कहकर करते कि वह एक नजर में पृथ्वी को देख सकता है, जैसे किसी की हथेली पर आंवला (हस्तमालकवत)।
खाने में आंवले का सेवन तरह-तरह से तो किया जाता ही है, इसके अलावा उच्च टैनिन गुण के कारण इसका उपयोग प्राकृतिक रंग, स्याही से लेकर शैंपू और प्राकृतिक हेयर डाई तैयार करने में भी किया जाता है। कपड़े पर छपाई करने वाले इसे रंगों को पक्का करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी आंवले के साथ इसके पेड़ की छाल का भरपूर उपयोग करते हैं।
पंचांग के अनुसार, हर महीने में दो एकादशी तिथि पड़ती हैं। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि बहुत फलदाई मानी जाती है क्योंकि इस दिन विष्णु के साथ आंवले के पेड़ की भी पूजा करते हैं। मानते हैं कि इस पेड़ की छाल से फल तक सब में दैवी गुण भरे हुए हैं। और इसका गरीबों को दान करने से मोक्ष मिलता है। मान्यता है कि भगवान विष्णु को आंवला बहुत प्रिय है और इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा और दान सबके हित की कामना से किया जाता है। इसे इसीलिए आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।
राजस्थान के पंचांग में आमलकी नवमी का खास स्थान है जो शुक्ल पक्ष के नौवें दिन पड़ता है। उस दिन आंवल्या राजा की कहानी सुनाई जाती है। राजा और उसकी पत्नी ने कसम खाई थी कि वे रोजाना तब तक भोजन ग्रहण नहीं करेंगे जब तक अपनी प्रजा के स्वास्थ्य और उनकी भलाई के लिए उनमें सवा मन आंवला बांट न दें। जैसा कि अक्सर होता है, उसके बेटों को इस तरह की फिजूलखर्ची पसंद नहीं थी और उन्हें लगता था कि ऐसे तो शाही खजाना ही खाली हो जाएगा और एक दिन उन्होंने शाही खजाने पर ताला लगा दिया। इससे दुखी राजा-रानी महल छोड़कर जंगल में रहने चले गए। सात दिन और सात रात तक वे कुछ भी नहीं खा सके क्योंकि उनके पास दान देने के लिए आंवला नहीं था। आठवें दिन देवताओं ने उनके लिए भव्य महल और आंवले से भरे बगीचे बना दिए जिसके बाद राजा-रानी पहले की तरह आंवले का दान करते हुए आनंदपूर्वक जीवन बिताने लगे।
जैसा कि लोक कथाओं में होता है, एक अच्छे इंसान के साथ किए बुरे व्यवहार से आंवला देवता कुपित थे। उनके क्रोध के कारण सूखा पड़ा और राजा के पुत्रों और उनकी पत्नियों को उनकी करनी का फल मिल गया। उन लोगों ने अपने पिता की उदार प्रथाओं को तो पहले ही बंद कर दिया था इसलिए प्रजा की कोई मदद नहीं की और लोग बीमार पड़ने लगे। आखिरकार गुस्साई जनता ने राजा के बेटों और उनके परिवार को महल छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया। कामकाज की तलाश में वे अपने पिता के नए महल और उसके चारों ओर विकसित समृद्ध नए शहर में जा पहुंचे। वहां पहुंचकर राजा के बेटे गुलाम बन गए और उनकी पत्नियां रानी की दासी। एक दिन जब रानी मालिश करवा रही थी तो उसने महसूस किया कि उसकी पीठ पर आंसू गिर रहे हैं। उसने लंबा घूंघट काढ़े मालिश करने वाली दासी से रोने का कारण पूछा। जब सारी बातें खुलीं तो राजा ने सभी को माफ कर उन्हें स्वीकार कर लिया। फिर वे सब भी प्रजा को आंवला दान करने में खुशी-खुशी शामिल हो गए। कहानी सुनाने वाली बुजुर्ग महिलाएं बाद में कहती हैं, “सत मत छोडे सूरमा, सत छोडे पट जाये” अर्थात् सच्चे सूरमा को जुबान का पक्का होना चाहिए क्योंकि वचन से मुकरने से प्रसिद्धि चली जाती है।
अच्छी बात है। हमारे मौजूदा सूरमा शासक जिन्होंने अपनी जनता के लिए दरवाजे बंद कर रखे हैं, पैसे जुटाने के लिए संपत्तियां बेचने को बेताब हैं और अपने लिए भव्य महलों-घरों के निर्माण के लिए तुले हुए हैं, उन्हें आंवल्या राजा की कहानी सुननी चाहिए जो अपने वचन पर टिका रहा और स्वास्थ्य और संपन्नता के लिए अपनी जनता को आंवले का दान करता रहा।
भारतीयों के अलावा, तिब्बती और चीनी भी इस जादुई फल का भरपूर उपयोग करते रहे हैं।
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