ज़िंदां: कोराना के दौर में बदले आज़ादी के मायनों को बयां करता उर्दू उपन्यास
उपन्यास पर चर्चा करते हुए प्रोफेसर खालिद जावेद ने कहा कि यह नॉवेल कोरोना के दौर का एक साहित्य है जो सीधे उर्दू में लिखा गया। किरदारों की सलीकेदार बुनाई का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा की यह उपान्यास तारीख में दर्ज होने लायक है।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सरोजिनी नायडू महिला अध्ययन केंद्र की असोसिएट प्रोफेसर और लेखक डॉ. फिरदौस अज़मत सिद्दीकी के उपान्यास "ज़िंदाँ" (पिंजरा, जेल या कैद) पर सोमवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक विस्तृत परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस परिचर्चा में मुख्य अतिथि के तौर पर देश के जाने माने उपान्यासकार और हाल ही में जेसीबी अवॉर्ड से सम्मानित प्रोफेसर ख़ालिद जावेद शामिल हुए। विशिष्ठ अतिथि के तौर पर कवियित्री और प्रोफेसर सविता सिंह और गालिब अकादमी, नई दिल्ली के सचिव डॉ आकिल अहमद मौजूद रहे।
उपन्यास "ज़िंदाँ" पर चर्चा करते हुए प्रोफेसर खालिद जावेद ने एक जरूरी समाजिक-राजनैतिक साहित्य के तौर पर देखे जाने की ज़रुरत की तरफ इशारा किया। उन्होंने कहा यह नॉवेल कोरोना का एक साहित्य है जो सीधे उर्दू में लिखा गया। किरदारों की सलीकेदार बुनाई का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा की यह उपान्यास तारीख में दर्ज होने लायक है। प्रो. जावेद ने एक अहम बात यह कही की उपन्यास लेखन मे अदब और तारीख़ को अलग करके नहीं देखा जा सकता, इस लिहाज से भी यह उपन्यास बड़ा अहम हो जाता है कि कभी किरदार अपने गुज़रे माज़ी मे गोते लगाने लगता है तो कभी वर्तमान के प्रसंग मे बातें करता है और यह सब बातें एक तारीखनिगार ज़्यादा अच्छे से समझ सकता है।
वहीं प्रोफेसर सविता सिंह ने कहा कि उपान्यास लिखना आसान नहीं। आपको लंबे वक्त तक नॉवेल में ही रहना होता है। उन्होंने इस बात की तरफ भी इशारा किया कि बेहद कम औरतें आज नॉवेल लिख पा रही हैं। ऐसे में कोरोना पर उर्दू में एक नॉवेल आना स्त्री साहित्यकारों की हौसला अफजाई करता है।
कार्यक्रम में उपस्थित डॉ. जफरूद्दीन बरकाती ने उपान्यास पर सिलसिलेवार अपनी बात रखते हुए बताया कि यह उपान्यास कोरोना नहीं बल्कि कोराना के दौर में बदल रहे आज़ादी के मायनों पर खड़ा है। उपान्यास से ही कई तारीखी ब्योरों का हवाला देते हुए उन्होंने हौसला अफजाई के अंदाज़ में कहा कि डॉ. सिद्दीकी के भीतर तारीख का कीड़ा है और ये कीड़ा उनके नॉवेल को एक नए मुक़ाम पर पहुंचाता है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि वे नई लिखने वाली हैं। उन्होंने क़िरदारों के बहाने नॉवेल के कई मंजर भी सामने रखे और इस लिहाज़ से लेखक की पैनी नज़र की तारीफ की।
इसके अलावा डॉ. अकील अहमद ने नॉवेल जिंदां को कोविड पर एक माकूल दस्तावेज के रुप में देखने की बात कही। उन्होंने कहा कि उपान्यास की ज़बान सधी हूई है और उर्दू-हिन्दी के बीच एक आसान हिन्दुस्तानी की तरफदारी करती नज़र आती है। अपर्णा दीक्षित ने कहा कि ज़िंदां दुनिया भर में कोरोना पर लिखी हुई पहली उर्दू नॉवेल है, जो अपने आप में इसे ख़ास बनाता है। दूसरी बात नॉवेल एक गैर उर्दू साहित्य की लेखिका ने लिखा जो उर्दू को लेकर उनकी मोहब्बत और हिन्दुस्तानी ज़बान की तरफदारी की उनकी हिमायत करता है।
साथ ही उन्होंने बताया कि यह नॉवेल एक मुसलमान औरत के कोविड और उस दौर में बदल गई दुनिया के बारे में है। दूसरी महिलाओं की तरह यह नॉवेल सिर्फ औरत के मसलों की बात नहीं करता बल्कि यहां एक औरत कोविड के बीच खड़ी कोविड और उससे जुड़ी तालाबंदी को देख रही है। वो अपनी नज़र से पढ़ने वाले को बदलते क़ायदे क़ानून दिखा रही है। यहां उस दौर में घटने वाली घटनाओं पर एक औरत की नज़र तारी है। उस लिहाज़ से भी यह एक फेमिनस्ट डाक्यूमेंट कहा जा सकता है।
प्रोग्राम के आखिर में प्रो. फरहत नसरीन ने नॉवेल को एक ज़रुरी तारीख़ी दस्तावेज के तौर पर देखने की बात कहीं। उन्होंने कहा कि ज़िदाँ आज से बहुत आगे की बात कहती है। ये ऑनलाइन शॉपिंग, कोविड के छोटे-छोटे क़ायदों की बात करती है। इस बहाने ये तमाम क़िरदारों की मदद से बहुत बारीक तौर पर कोविड के दौर में ठहर गई जिंदगी का फलसफा है। जिसमें किस्से हैं, किस्सों के अंदर किस्से हैं, कहावतें हैं, कहानियां हैं।
परिचर्चा के दौरान डॉ. फिरदौस ने नॉवेल के कुछ हिस्से को पढ़ा। जिसके बाद लोगों का एक मत से सुझाव आया कि इतनी ज़रूरी नॉवेल का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद होना बेहद जरूरी है। कार्यक्रम का संचालन राहुल कपूर ने किया वहीं डॉ. तरन्नुम सिद्दीकी ने शुक्रिया अदायगी की। कार्यक्रम में जामिया के डीन, स्टूडेंट वेलफेयर, प्रोफेसर इब्राहिम, प्रोफेसर वसीम अहमद खान, वरिष्ठ समाजसेवी इंद्रा कटपालिया, प्रोफेसर बुलबुल धर जेम्स, वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन, वरिष्ठ पत्रकार डॉ. शुजात अली कादरी, शाह अबुल फैज, निसार सिद्दीकी, तनू सिंह सहित कई गणमान्य लोग मौजूद रहे।
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