पुस्तक अंशः ‘सत्ता की सूली’ पर जज लोया
जज लोया मामले में कुछ नए प्रमाण आने लगे हैं जो लगातार इसकी जांच की जरूरत को और पुख्ता करते हैं। जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि ये केस गुजरात नहीं महाराष्ट्र में चले तो इसका मतलब है कि केस में कोई दम था तभी तो वहां भेजा गया। लेकिन शाह को बरी कर दिया जाता है।
यह 2014 के अक्तूबर के दूसरे सप्ताह की बात है। (मुंबई की विशेष सीबीआई अदालत में) जज (बृजलाल हरकिशन) लोया अपने चैंबर में बैठे थे, तभी एक वकील ने एक नेता के साथ चैंबर में प्रवेश किया। उसके हाथ में कागजों का एक पुलिंदा था। वकील ने उस पुलिंदे को लोया की ओर बढ़ा दिया और उनसे कहा कि ये जजमेंट का ड्राफ्ट है और इसी पर आपको हस्ताक्षर करके अपना फैसला सुना देना है।
बताया जाता है कि यह ड्राफ्ट किसी और ने नहीं, बल्कि बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच के एक जज ने उनके पास भेजा था। बीएच लोया तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इन्हीं दोनों सज्जन को सौंपी गयी थी। कहा जाता है कि यह जजमेंट ड्राफ्ट कुछ और नहीं, बल्कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर संबंधी केस से बरी करने का ड्राफ्ट था। जज लोया ड्राफ्ट को देखते ही हक्का-बक्का हो गए। इस घटना से वह बिल्कुल अंदर तक हिल गए। यह बहुत स्वाभाविक था, क्योंकि किसी जज को एक फैसले का ड्राफ्ट सौंपा गया था।
शायद इतिहास की ये अपने तरह की अनूठी घटना थी। दुनिया में शायद ही इसकी कोई दूसरी मिसाल मिले। सीबीआई कोर्ट में जज बनकर आने के बाद से ही उनपर सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले से अमित शाह को कथित तौर पर बरी करने का दबाव पड़ने लगा था। लोया का कहना था कि इतनी जल्दी फैसला नहीं सुनाया जा सकता है, क्योंकि मामले से संबंधित बारह से पंद्रह हजार पेजों को पहले पढ़कर समझना होगा। तब कहीं जाकर इस पर फैसला सुनाया जा सकता है। इस काम में कम से कम छह महीने का वक्त लग सकता था। लेकिन उनसे कहा गया कि नहीं, फैसला जल्द होना चाहिए और उनकी ‘सहूलियत’ के लिहाज से उनके पास पहले से तैयार एक जजमेंट ड्राफ्ट भेज दिया गया।
दिनों-दिन जजमेंट ड्राफ्ट को फैसले के रूप में अदालत में सुनाने का दबाव उन पर बढ़ता जा रहा था। लोया कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर वो क्या करें। कुछ दिनों तक उलझन, तनाव और दबाव के बीच समाधान निकालने की उधेड़बुन में वो लगे रहे। लेकिन उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। बुरे वक्त में अक्सर लोगों को मित्रों की याद आती है। लोया ने भी अपने मन के बोझ और इस घटना के दर्द को अपने मित्रों से साझा करने का मन बनाया। लेकिन, इस मामले में उनकी कौन मदद कर सकता है, यह समझ में नहीं आ रहा था।
इसी बीच उनके जेहन में अपने से वरिष्ठ और मित्रवत व्यवहार करने वाले रिटायर जिला जज प्रकाश थोम्ब्रे और एडवोकेट श्रीकांत खंडालकर का नाम सूझा। यह अक्टूबर, 2014 के तीसरे हफ्ते की बात है, जब बीएच लोया ने अपने साथ घटी घटना को थोम्ब्रे और खंडालकर को बताया। मामला गंभीर और अपने किस्म का अद्भुत था। पहली बार ऐसी घटना उन तीनों लोगों के सामने आयी थी। इसलिए कई दिनों की चर्चा और गंभीर विचार-विमर्श के बाद भी वे लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके।
दरअसल, जज प्रकाश थोम्ब्रे और एडवोकेट खंडालकर का काम जिला अदालतों तक ही सीमित था। इसलिए अब इस मसले पर उन लोगों ने स्वयं कोई राय बनाने के बजाए, बॉम्बे हाईकोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश बीजी कोलसे पाटिल से संपर्क करने का निर्णय लिया। इन तीनों से जस्टिस कोलसे पाटिल पहले से परिचित थे। मुंबई में ही उनसे मिलने का समय तय हुआ। जब जज लोया ने अपनी परेशानी का कारण जस्टिस कोलसे पाटिल को बताई, तो उनके भी अचरज का ठिकाना न रहा।
इस घटना को न्याय के प्रति गंभीर साजिश बताते हुए जस्टिस पाटिल ने कानूनी कार्रवाई करने की सलाह दी। जस्टिस पाटिल ने बताया, “मामले की गंभीरता को देखते हुए हमने उन लोगों को दिल्ली जाकर सुप्रीम कोर्ट के किसी बड़े एडवोकेट से कानूनी राय लेने की सलाह दी थी, क्योंकि किसी जज को जजमेंट ड्राफ्ट देकर उस पर साइन करके जजमेंट सुनाने को लिए विवश करना न्यायिक इतिहास में पहली बार सुन रहा था।”
सुप्रीम कोर्ट के किसी बड़े वकील से कानूनी सलाह लेने की बात तो तय हो गई। लेकिन, ये काम इतना आसान और सीधा नहीं था। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए इसकी गोपनीयता बनाए रखने की भी चुनौती थी। किस एडवोकेट के पास जाया जाए, यह बड़ा सवाल था। लंबे विचार-विमर्श के बाद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के नाम पर सहमति बनी। रिटायर्ड जज प्रकाश थोम्ब्रे, एडवोकेट श्रीकांत खंडालकर और सतीश उइके पर दिल्ली आकर मामले से संबंधित कानूनी पहलुओं को समझने की जिम्मेदारी दी गई।
4 नवंबर, 2014 को दिल्ली आने के लिए थोम्ब्रे, खंडालकर और सतीश उइके का एयर टिकट बुक करा लिया गया। लेकिन इसी बीच, 4 नवंबर को खंडालकर के एक महत्वपूर्ण मुकदमे की सुनवाई की तारीख आ गई। लिहाजा खंडालकर दिल्ली नहीं आ सके। चूंकि दिल्ली आने की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी, लिहाजा जज थोम्ब्रे, सतीश उइके और उनके भाई प्रदीप 4 नवंबर को विमान से नागपुर से दिल्ली आ गए। दिल्ली पहुंच कर ये सभी लोग पहाड़गंज के होटल सिंह इंपोरियम में ठहरे। प्रशांत भषूण के चैंबर में फोन से बात कर मिलने का समय तय हुआ।
8 नवंबर, 2014 को सुबह 9 बजे जज थोम्ब्रे, एडवोकेट सतीश उइके और प्रदीप नोएडा स्थित भषूण के आवास पर उनसे मिलने पहुंचे। ड्राफ्ट उनके सामने रखा गया। प्रदीप के मुताबिक, “प्रशांत भूषण उस समय नाश्ता कर रहे थे। नाश्ता करते हुए ही उन्होंने जजमेंट ड्राफ्ट और अन्य दस्तावेजों पर नजर डाली। कागजातों को देखने के बाद उन्होंने कहा कि यह कानूनी दृष्टि से बहुत कमजोर है। उनका मानना था कि ऐसे दस्तावेज अदालत में साक्ष्य के रूप में ठहर नहीं सकते।”
प्रशांत भूषण के पास वे बहुत उम्मीद लेकर गए थे। इस राय को सुनने के बाद वे बहुत निराश हुए। दिल्ली से मुबंई लौटकर इन लोगों ने जब सब कुछ लोया को बताया, तो वे बहुत दुखी हुए। सतीश उइके के अनुसार, “जजमेंट ड्राफ्ट के साक्ष्य के रूप में स्वीकार न हो पाने की बात को सुनकर जज लोया बहुत परेशान हो गए थे। इस घटना के बाद उनको गहरा धक्का लगा और वह अंदर से टूट गए। फिर भी वह किसी दबाव और लालच के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।”
दबाव और जल्द फैसला सुनाने की यह पहली और आखिरी घटना नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा था, उन पर दबाव भी बढ़ता जा रहा था। इसके साथ ही लोया की बेचैनी भी बढती जा रही थी। पक्ष में फैसला सुनाने के एवज में कथित तौर पर उन्हें मालामाल करने का वादा किया जा रहा था। ... लोया की शख्सियत दूसरी ही तरह की थी। ईमानदारी उनकी सबसे बड़ी बीमारी बन गई थी। लिहाजा, इस मसले पर भी किसी तरह का समझौता करने का सवाल ही नहीं था।
हालांकि लोया हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के सामने थे। वह चीफ जस्टिस, जिनके हाथ में न केवल निचली अदालतों के जजों का तबादला और प्रोन्नति थी, बल्कि किसी को हाईकोर्ट का जज बनाने के लिए प्रस्ताव तक भेजने का अधिकार था। लेकिन लोया थे कि अपने जमीर से किसी तरह के समझौते के लिए तैयार ही नहीं थे। इसके साथ ही उनका दिमागी तनाव बढ़ता जा रहा था। उसको साझा करने के लिए मुंबई में न तो कोई नजदीकी मित्र था और न ही विश्वसनीय शख्स। घर वालों को ये बात बताकर उनकी परेशानी को और बढ़ाना नहीं चाहते थे। लिहाजा, उमड़-घुमड़ कर पूरा मामला उनके भीतर ही बना हुआ था। उनकी इस परेशानी का कोर्ट में मौजूद दूसरे लोगों को भी अहसास होने लगा।
रुबाबुद्दीन इस केस की हर सुनवाई पर कोर्ट में मौजूद रहते थे। दरअसल, रुबाबुद्दीन को डायरी लिखने की आदत है। ये मामला भी उनकी डायरी में दर्ज होने से नहीं बच सका। उन्होंने बताया कि घर आकर वह अदालत की हर कार्यवाही को अपनी डायरी में लिखा करते थे, जिसमें सिर्फ कोर्ट की ही नहीं, बल्कि उसके बाहर की घटनाओं का भी सिलसिलेवार तरीके से जिक्र है। उसी डायरी के एक पन्ने में उन्होंने जस्टिस लोया के संबंध में भी कुछ बातें लिखी हैं।
रुबाबुद्दीन ने अपनी डायरी के पहले पेज पर लिखा है, “10 नवंबर, 2014 को जज लोया ने किसी भारी दबाव में आकर मुख्य आरोपी अमित शाह को चार्जशीट पेश होने तक हाजिरी माफी दे दी।’’ आगे वह लिखते हैं, “हाजिरीमाफी का यह आदेश लिखवाते समय जज लोया बार-बार कोर्ट रूम में मेरी तरफ (रुबाबुद्दीन) देख रहे थे। उनका दिल बहुत बेचैन था और चेहरे पर एक शर्म झलक रही थी। उनके चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था कि उन्हें किसी बड़े दबाव और बहुत मजबूरी में अमित शाह को हाजिरी माफी देनी पड़ी।’’
अदालत का माहौल और केस की गंभीर स्थिति को समझने के लिहाज से रुबाबुद्दीन की डायरी एक बार फिर दस्तावेजी सबूत बनकर सामने आती है। रुबाबुद्दीन का कहना था कि 25 या 28 नवंबर के आस-पास की बात होगी। सेशन कोर्ट की रूटीन तारीख थी। वो कार्यवाही में भाग लेने के लिए मुंबई गए हुए थे। कोर्ट का माहौल सामान्य दिनों की तुलना में बिल्कुल अलग था। हमेशा मुस्कराने वाले जज लोया के चेहरे से उस दिन मुस्कान गायब थी। पूरी कोर्ट ने मानो गंभीरता की चादर ओढ़ ली थी। घर लौटकर उन्होंने अपनी डायरी में बाकायदा इसका जिक्र किया। उन्होंने लिखा ‘‘लोया साहब परेशान थे। टेंशन में थे। प्रेशर में थे। हंसमुख इंसान थे। वो मजाक भी करते थे। हंसाते थे कोर्ट के अंदर।’’
लोया की ये परेशानी अब अदालत तक सीमित नहीं रही। इस परेशानी ने उनके घर को भी अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया। इस चीज को उनके परिजन और साथ रहने वाले जिन दूसरे लोगों ने भी महसूस किया, उन्हीं में से एक थीं, उनकी भांजी नुपूर बालाप्रसाद बियानी। बियानी अपने मामा यानी लोया के साथ मुंबई स्थित उनके मकान में ही रहती थीं और वहीं रहकर अपनी पढ़ाई कर रही थीं। ‘दि कारवां’ में प्रकाशित खबर के मुताबिक लोया की भांजी नुपूर बालाप्रसाद बियानी भी जज लोया पर पड़ रहे दबाव को स्वीकार करती हैं।
उस दौर को याद करते हुए नुपूर कहती हैं, “जब वह अदालत से घर लौटते थे, तब उनका चेहरा बेहद तनावपूर्ण दिखता था। ऐसा लगता था जैसे वह किसी भारी दबाव में थे। उनके ऊपर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा था। इस तनाव का कारण सोहराबुद्दीन केस था। यह एक बहुत बड़ा मामला था। इस तनाव और दबाव का सामना कैसे करें? हर कोई इसमें शामिल है” (21 नवंबर, 2017, कारवां पोर्टल)। ये तनाव 15 दिसंबर, 2014 को अमित शाह को व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश होने के आदेश के बाद और बढ़ गया था।
सप्ताह भर पहले हटा ली गई थी सुरक्षा
सीबीआई कोर्ट में बीएच लोया के आने के बाद एक बॉडीगार्ड हमेशा उनके साथ रहता था। लेकिन नागपुर जाते समय न तो उनके पास मुंबई पुलिस का कोई सुरक्षा गार्ड था और न ही नागपुर पहुंचने पर नागपुर पुलिस का कोई सुरक्षाकर्मी उनकी सुरक्षा में तैनात किया गया। लोया की बहन अनुराधा बियानी ने बताया कि लोया ने अपने सुरक्षा गार्ड की तबियत खराब होने का जिक्र किया था। लेकिन उसके स्थान पर कोई दूसरा बॉडीगार्ड क्यों नहीं दिया गया। ऐसा कैसे और क्यों हुआ? उनका कहना है कि वीआईपी सुरक्षा में लगे किसी सिक्योरिटी अफसर की जब तबीयत खराब हो जाती है या वह किसी काम से अवकाश पर जाता है, तो वैकल्पिक बॉडीगार्ड मुहैया कराना पुलिस विभाग की जिम्मेदारी बन जाती है।
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