गौहर रज़ा की नज्म: अग्निपथ... इज़्ज़त, ग़ैरत के ख़्वाबों को बूटों से दबाना मुश्किल है
तुम अपनी किताबें हाथ में लो/ और फिर से उठाओ अपने क़लम/ संघर्ष करो हर हक़ के लिए/ एहसास दिलाओ हिटलर को/ हिटलर के दिए फ़रमानों से/ देश चलाना मुश्किल है/ इज़्ज़त, ग़ैरत के ख़्वाबों को/ बूटों से दबाना मुश्किल है..
अग्निपथ
ये कौन हैं जो सड़कों पर हैं
ये क्यों उतरे हैं सड़कों पर
कल तक थे क़लम जिन हाथों में
क्यों उतरे हैं नारे बन कर
मुट्ठी बन कर
क्यों पत्थर हैं इन हाथों में
क्यों शोले हैं इन हाथों में
ये वो लख्लुट हैं जो कल तक
ख़ुद अपने ख़ून-पसीने से
इस देश का मान बढ़ाने की
उम्मीद लगाए बैठे थे
ये अगली नस्लें हैं अपनी
जो कल तक देश का गौरव थीं
हाँ हिटलर का फ़रमान हो तुम,
तुम ने उम्मीद को तोड़ दिया
हर ख़्वाब को चकनाचूर किया
जब हक़ के बदले भीख मिले
उम्मीद का दामन फट जाए
जब इज़्ज़त, ग़ैरत दाँव पे हो
और बेहतर मुस्तक़्बिल सारा
बस “अग्नि पथ” में सिमट जाए
जब वादे सब झूठे निकलें
और सारा भरोसा उठ जाए
तब देश की ग़ैरत उठती है
नारा बन कर, मुट्ठी बन कर
बिजली बन कर, आंधी बन कर
इस संघर्षों की आंधी में
ये याद रहे मेरे हमदम
तुम अग्नि पथ पर मत चलना
तुम हिंसा पथ पर मत जाना
तुम अपनी किताबें हाथ में लो
और फिर से उठाओ अपने क़लम
संघर्ष करो हर हक़ के लिए
एहसास दिलाओ हिटलर को,
हिटलर के दिए फ़रमानों से
देश चलाना मुश्किल है
इज़्ज़त, ग़ैरत के ख़्वाबों को
बूटों से दबाना मुश्किल है
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