देश पर आरएसएस का कब्जा और उससे पैदा खतरा

इस सरकार ने हर वो काम किया है जिससे देश की एकता, अखंडता और शांति को खतरा हो। गौ-रक्षा के नाम पर सरकार ने मुसलमानों, दूसरे अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य पिछड़ों को निशाने पर ले रखा है।

राजस्थान के रामगढ़ में गश्त पर निकले कथित गौर-रक्षक / फोटो : Getty Images
राजस्थान के रामगढ़ में गश्त पर निकले कथित गौर-रक्षक / फोटो : Getty Images

इस सच्चाई में अब शक की कोई गुंजाइश नहीं रही है कि केंद्र की मोदी सरकार ने अपने तीन साल के दौर में कोई भी ऐसा काम नहीं किया है जिससे राष्ट्र निर्माण, समाज कल्याण और देश के आम लोगों का विकास हो। लेकिन इस सरकार ने हर वो काम जोर-शोर से किया है जिससे देश की एकता, अखंडता और शांति-भाईचारे को खतरा हो। गौ-रक्षा के नाम पर इस सरकार ने मुसलमानों, दूसरे अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य पिछड़ों को निशाने पर ले रखा है। जरा से शक पर ही इनकी पीट-पीट कर हत्या की जा रही है, जिंदा जलाया जा रहा है और अत्याचार की सीमाएं लांघी जा रही हैं। प्रधानमंत्री महज दिखावे के लिए उन्हें घुड़की देते हैं, लेकिन स्पष्ट है कि उनके इरादे कुछ और ही हैं। मुसलमानों और दलितों पर अत्याचार और हमले करने वालों को दरअसल वो कुछ ऐसा नुकसान पहुंचाना ही नहीं चाहते जिससे उनके हौसले पस्त हों, बल्कि वे तो उन्हें हवा देना चाहते हैं ताकि 2019 के आम चुनावों में ये सारे तत्व उनके लिए वोटों का इंतजाम कर सकें और एक बार फिर उन्हें सत्ता की कुर्सी पर आसीन कर सकें।

इस सबका नतीजा ये हो रहा है कि हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं। इमरजेंसी से भी बदतर माहौल बनता जा रहा है। विदेशों में भारत की छवि लगातार खराब हो रही है। दुनिया के बड़े बड़े अखबार भारत में अल्पसंख्यकों और दलितों के अलावा अन्य पिछड़ों पर होने वाले लगातार हमलों की खुलेआम और कड़े शब्दों में आलोचना कर रहे हैं। कभी भारत का नाम सम्मान के साथ लेने वाले दुनिया के दूसरे लोकतांत्रिक देश अब भारत को असहिष्णु करार देने में नहीं हिचकिचा रहे हैं। दरअसल आज किसी के भी अधिकार सुरक्षित नहीं हैं।

विरोधी राजनीतिक दलों के खिलाफ बड़े पैमाने पर बदले की कार्यवाहियां शुरु कर दी गयी हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सीबीआई और आयकर विभाग को महज चंद लोगों को पीछे लगा दिया गया है। ये सारे कदम विरोधी दलों को हाशिए पर धकेलने, बल्कि यूं कहें कि ध्वस्त करने की कोशिश नहीं, तो क्या है? बड़े-बड़े उद्योहपतियों की पोल खोलने वाले साहसी पत्रकारों के लेख और खबरें हटवायी जा रही हैं और ऐसे पत्रकारों को नौकरी से निकलवाया जा रहा है, ये सब कौन सा इंसाफ है? क्या पूरा विश्व ये सब देख नहीं रहा है?

न्यूयॉर्क टाइम्स ने पिछले दिनों अपने संपादकीय में साफ लिखा है कि मोदी सरकार के दौर में देश के विकास की दर में गिरावट आयी है, रोजगार के मौके कम हुए हैं, जबकि असामाजिक तत्वों का बोलबाला और कट्टरता में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुयी है। इस सबसे एक सेक्युलर देश की बुनियाद को खतरा पैदा हो गया है। अखबार ने ये भी लिखा है कि जब से मोदी ने सत्ता संभाली है तब से बीफ खाने या गौ हत्या के शक में भीड़ द्वारा लोगों को पीट-पीट कर मार डालने या उन्हें बुरी तरह जख्मी कर देने की घटनाओं में जबरदस्त इजाफा हुआ है। भीड़ के इन हमलों का शिकार ज्यादातर मुसलमान ही हुए हैं। वध के लिए पशुओं की खरीद-फरोख्त पर मोदी सरकार की पाबंदी का जिक्र करते हुए अखबार ने लिखा है कि अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगा दी वरना इस आदेश का इस्तेमाल भी उन मुसलानों और दलितों पर भारी पड़ता जो मांस और चमड़े के कारोबार से जुड़े हुए हैं। इसी तरह की और दूसरी बातों का जिक्र करते हुए अखबार इस नतीजे पर पहुंचा है कि जब भारत आजादी के 70 साल का जश्न मना रहा है, ऐसे में मोदी सरकार ने देश को वहां पहुंचा दिया है जहां कट्टरता का बोलबाला है।

इस कट्टरता और पागलपन के दौर में रामनाथ कोविंद को देश के राष्ट्रपति पद पर आसीन कराना भी एक खतरनाक वक्त की तरफ इशारा करता है। गौर करने की बात ये है कि ऐसे शख्स को आखिर क्यों राष्ट्रपति बनाया गया जिन्हें इससे पहले कोई जानता तक नहीं था। न तो कोविंद कोई बहुत बड़ा व्यक्तित्व हैं, उनका नाम किसी बड़े राष्ट्रीय या सामाजिक काम से नहीं जुड़ा है, और न ही देश और समाजसेवा का उनका कोई रिकॉर्ड मौजूद है। दलितों के उत्थान और कल्याण के लिए भी उन्होंने कोई कारनामा नहीं किया है। हां, लोगों को इतना जरूर याद है कि मार्च 2010 में उन्होंने बीजेपी मुख्यालय में पत्रकारों से ये कहा था कि इस्लाम और ईसाइयत हिंदुस्तानी नहीं बल्कि विदेशी धर्म हैं, इसलिए अगर अनुसूचित जाति या पिछड़े वर्ग का कोई व्यक्ति मुसलमान या ईसाई हो जाता है तो उसे आरक्षण के लाभ नहीं मिलने चाहिए, जबकि जस्टिस रंगनाथ आयोग की सिफारिशों के मुताबिक उसे पहले से मिल रहे आरक्षण के लाभ जारी रहने चाहिए। कोविंद ने इन सिफारिशों को असंवैधानिक करार दिया था और कहा था कि इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने वालों का आरक्षण बंद कर देना चाहिए। जाहिर है कि कोविंद आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा का ही उल्लेख कर रहे थे, क्योंकि इन दोनों संगठनों से उनका गहरा नाता रहा है। इसके अलावा उनकी एक और खूबी है कि वो दलित हैं और नामांकन के समय वे बिहार के राज्यपाल थे।

दूसरी तरफ कोविंद से बड़े राजनीतिक व्यक्तित्व और हैसियत वाले वेंकैया नायडू को उप राष्ट्रपति बनाया जा रहा है। जबकि कुछ दिन पहले ही नायडू ने साफ कहा था कि राष्ट्रपति या उप-राष्ट्रपति जैसे पदों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है और उन्हें अगर मजबूर भी किया गया तो भी वे ऐसे पद स्वीकार नहीं करेंगे जिससे वे आम लोगों से दूर हो जाएँ। उनका कहना था कि आम लोगों से मिलने जुलने में ही उन्हें खुशी मिलती है। उन्होंने मजाक में अपनी पत्नी ऊषा का नाम लेकर कहा था कि वे “ऊषा पति” के तौर पर ही खुश हैं और राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति नहीं बनना चाहते। नायडू के इन बयानों के बावजूद उन्हें कैबिनेट के एक अहम पद से हटाकर उप राष्ट्रपति पद का नामांकन कराया गया। इस सबसे एक बात तो साफ हो जाती है कि न सिर्फ उनके पर कतरे गए हैं बल्कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का डिप्टी बनाया गया है जो राजनीतिक कद में उनके सामने कहीं ठहरता ही नहीं है। ये हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को नायडू की कोई बात नागवार गुजरी हो और उन्हें सजा के तौर पर सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया।

अब बात करते हैं राष्ट्रपति कोविंद की और उन खतरों की जो कोविंद को इस अहम पद पर बैठाने के बाद सामने आ सकते हैं। ये जगजाहरि है कि कोविंद हमेशा मोदी और शाह के एहसानों के नीचे दबे रहेंगे। देश में कैसा भी माहौल हो, लोकतंत्र को कितना ही बड़ा खतरा क्यों न हो, देश के सामाजिक और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने का अंदेशा ही क्यों न हो, संविधान को लागू करने में कितनी बड़ी चूक क्यों न हो, धर्मनिरपेक्षता पर कितना ही बड़ा खतरा क्यों न हो, मुसलमानों, अल्पसंख्यकों, दलितों और कमजोर तबकों पर अत्याचारों की झड़ी क्यों न लग जाए, इस सब पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए कोविंद कोई पहल करेंगे इसकी संभावना कम ही दिखती है। इस सबसे बढ़कर देश, समाज, संविधान और धर्मनिरपेक्षता का कद छोटा करने वाला कोई भी अध्यादेश मंजूरी के लिए राष्ट्रपति भवन भेजा जाएगा तो एहसानों के नीचे दबे राष्ट्रपति बिना किसी देरी के उस पर हस्ताक्षर करने में हिचकिचाएंगे नहीं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आरएसएस की विचारधारा और सिद्धांत क्या हैं। और इन सारे सिद्धांतों को हम अपनी आंखों के सामने देख भी रहे हैं कि किस तरह केंद्र सरकार तत्परता और गंभीरता से आरएसएस के एजेंडे को लागू करने में जुटी हुयी है। आरएसएस को धर्मनिरपेक्षता से चिढ़ है, लोकतंत्र से आपत्ति है, भारत में हिंदुओँ के अलावा किसी और धर्म के मानने वालों की मौजूदगी से ही उसे सख्त नफरत है, तमाम गैर हिंदुओं को हिंदू बनाना और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना उसका एकमात्र लक्ष्य है, देश के मुसलमान शासकों का इतिहास, उनके भारत निर्माण में योगदान और उनके वास्तुशिल्प और उनकी बनायी इमारतों से उसे नफरत है, बावजूद इसके कि इन इमारतों से भारत को हर साल अरबों रुपए का राजस्व हासिल होता है। हद यह है कि आरएसएस को ताजमहल जैसी उस खूबसूरत इमारत से भी नफरत है जो न सिर्फ वास्तुशिल्प की एक शानदार मिसाल है बल्कि दुनिया भर में प्रेम की एक जीती जागती तस्वीर के तौर पर भी मशहूर है।

मोदी सरकार के तीन साल के दौरान कट्टरता के माहौल में जिस तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है और फासिस्ट और सांप्रदायिक ताकतों को मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य कमजोर तबकों को निशाना बनाने, उनकी हत्या करने, उन पर अत्याचार करने में जिस तरह सरकारी मशीनरी की सरपरस्ती हासिल हुई है, उसकी निंदा और कड़ी आलोचना तो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी की थी। लेकिन वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से ऐसी किसी भी आलोचना या निंदा की उम्मीद नहीं की जा सकती। हम जानते हैं कि देश में शासन का जो ढांचा है उसमें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद महज नुमायशी हैं, इसके बावजूद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अलग-अलग मौकों पर कट्टरता को लेकर अपनी नाराजगी को जिस तरह सामने रखा, वह संदेश हर जगह पहुंचा ही। आने वाले दिनों में क्या रामनाथ कोविंद भी ऐसी हिम्मत दिखाएंगे कि वे सरकार की मंशा और उसके पर्दे के पीछे के एजेंडे के खिलाफ जुबान खोल सकें।

(लेखक लोकसभा सदस्य और ऑल इंडिया मिल्ली फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)

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Published: 08 Aug 2017, 8:25 PM