संघवाद के खिलाफ आजादी की एक और लड़ाई
जिस ताकत से आज हमारा सामना है, जिससे आज हमारी आजादी दोबारा खतरे में आ गई है, वह एक ऐसा संगठन है जो अपना मकसद हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।
आजादी के 70 साल बाद हमारा मुल्क आज एक दोराहे पर खड़ा है। एक समाज के तौर पर हमने जो कुछ हासिल किया था, जो गंगा-जमुनी तहजीब सदियों से एक साथ मिलकर गढ़ी गई थी, आज उस सब को गंवा देने की नौबत आ गई है। गंवा देने की नौबत इसलिए आ गई है क्योंकि आज हमारी 70वीं सालगिरह के वक्त वो ताकतें सत्ता पर काबिज हैं जिन्हें न तो हिंदुस्तान के इतिहास का इल्म है और न उसके वर्त्तमान का। इन ताकतों ने न तो हिंदुस्तान की जंग-ए-आजादी में कोई शिरकत की, न ही नव-स्वाधीन भारत का संविधान बनाने में इनकी कोई भूमिका थी। यह याद रखने की जरूरत है कि अपनी तमाम खामियों के बावजूद हमारा संविधान नए हिंदुस्तान का एक बुनियादी सामाजिक करार था। इस संविधान के निर्माण का आधार किसी मनु के आदेश-निर्देश नहीं, बल्कि दशकों चले लंबे संघर्षों के दौर में सीखे गए सबक थे। लंबी बहसों, दावों और जवाबी दावों के जबरदस्त टकरावों से निकल कर यह संविधान वजूद में आया। मगर एक बार जब यह दस्तावेज बन कर तैयार हो गया तो सब ने इसे आजाद हिंदुस्तान के नए निजाम के आधार के रूप में स्वीकार किया।
सब ने उसे माना – सिवाय उन ताकतों के जो आज सत्ता में हैं। उन तमाम संघर्षों से ये ताकतें सिरे से नदारद थीं। यही वजह है कि इन के लिए जंग-ए-आजादी गो-रक्षा और हिन्दू-मुस्लिम फसादों से बढ़ कर कुछ नहीं था। अंग्रेजों से लड़ने के बजाय इनके पूर्वज इन्हीं सब कामों में मशगूल रहे । लिहाजा इनके लिए गांधी की हत्या भी उतनी ही स्वाभाविक बात थी जितनी आज संविधान और हमारे इतिहास से जुड़ी हर मान्यता की हत्या।
जिस गंगा जमुनी तहजीब पर हमें नाज है, जिसका जश्न रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू ने मनाया, उस सभ्यता पर आज हिन्दू तालिबानियों की मनहूस छाया मंडरा रही है। अफगानिस्तान में बामियान बुद्ध की मूर्तियों को तोप से उड़ा देने वालों में और नाथूराम गोड्से सरीखे आतंकवादी तैयार करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारखानों में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है। दोनों एक दूसरे का अक्स भर हैं। दोनों ही एक दूसरे को खुराक मुहैया कराते हैं।
पिछले साल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र नेता कन्हैया कुमार ने इन ताकतों की पहचान ‘संघवाद’ नाम से की थी। देश भर में बेइंतहा लोकप्रिय हुआ उनका नारा ‘हम क्या चाहते – आज़ादी’/ ‘संघवाद से आजादी’, एक मायने में हमारे आज की चुनौतियों को रेखांकित करता है। आजादी के इस नारे की प्रेरणा बेशक कुछ भी रही हो, यह तो तय है कि जिस तरह यह नारा आज देश भर में अलग-अलग संदर्भों में इस्तेमाल हो रहा है वह हमसे आजादी को पुनः परिभाषित करने की मांग करता है। एक तरफ जहां वह यह रेखांकित करता है कि जो आजादी हमें 1947 में मिली वह अब तक औपचारिक ही रही है, वहीं वह इस बात की ओर भी ध्यान दिलाता है कि आज उस के सामने – और हमारी अनगिनत छोटी छोटी आजादियों के सामने – नए-नए खतरे मंडरा रहे हैं। हमारी बोलने की आजादी, खान-पान की आजादी, मुहब्बत करने की आजादी और कोई भी धर्म या मजहब मानने की आजादी – हरेक चीज पर आज खतरे के बदल मंडरा रहे हैं।
संघवाद आम तौर पर ‘हिंदुत्व’ के रूप में अपना परिचय देता है – मगर उसका यह परिचय दरअसल बहुत कुछ छिपा जाता है। एक स्तर पर इससे यह गुमान होता है जैसे इसका सीधा रिश्ता ‘हिन्दू’ होने से है और जो बात पूरी तरह छिपा दी जाती है वह यह कि यह ऊपर से नीचे तक एक राजनीतिक परियोजना है जिसके केंद्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम का संगठन है। यह भूलना या नजरंदाज करना घातक होगा कि जिस ताकत से आज हमारा सामना है, जिससे आज हमारी आजादी दोबारा खतरे में आ गई है वह महज एक विचारतंत्र या विचारधारा नहीं है, बल्कि एक ऐसा संगठन – ऐसी राजनीतिक मशीन – है जो अपना मकसद हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। वह झूठ, मक्कारी, बेईमानी, हिंसा – किसी के इस्तेमाल से गुरेज नहीं करता। पहले यह झूठ मुंह जुबानी घूमने वाली अफवाहों के जरिये फैलाए जाते थे मगर इधर सोशल मीडिया के दौर में उनके ऐसे कई झूठ पकड़ में आये हैं जिसके जरिये वे दंगे भड़काने का काम करते हैं। लिहाजा संघवाद को महज एक विचार समझना मुसीबत को दावत देना है।
संघवाद का राजनीतिक प्रोजेक्ट हिन्दू समाज की विविधता और उसके बहुलतावादी चरित्र से खौफ की बुनियाद पर टिका है। वह हिन्दुओं को एक ऐसे एकबद्ध समुदाय में तब्दील करना चाहता है जहां उसकी असीम विविधता की जगह एक खास चलन स्थापित हो।
संघवाद ‘आर्यवर्त्त’ के सवर्ण हिन्दू समाज के बाहर फैले हुए हिन्दुस्तान से बेखबर है – वह न तो उसे जानता है न जानने नी ख्वाहिश रखता है। उसके लिए महिषासुर को मानने वाले उतने ही राष्ट्र-विरोधी हैं जितना अपनी आजादी की गुहार करने वाले दलित जो डॉक्टर अम्बेडकर की तरह मनुस्मृति को जला डालना चाहते हैं और उसकी जगह आजाद भारत के संविधान को अपनी मुक्ति का दस्तावेज मानते हैं। संघ की दिक्कत है कि एक ‘समरस’, एकबद्ध हिन्दू समाज बिना दलितों को शरीक किए बन नहीं सकता, मगर उसके लिए वह अपने ‘हिंदुत्व’ की परिभाषा भी बदलना नहीं चाहता है। इसलिए वह अम्बेडकर की एक ‘हिन्दू-प्रेमी’ मूर्ति तैयार करने की कोशिश में उनके जीवन और कर्म को तोड़ मरोड़ कर पेश करता है।
बुनियादी तौर पर संघवाद का कारोबार डरे हुए लोगों को लेकर चलता है, जिन्हें अंधेरे में रह-रह कर रोशनी से डर लगने लगा है। आखिरकार रोशनी में आने का अर्थ होता है चीजों को देखना, साफ-साफ देखना और उसे लेकर जिम्मेदारी कुबूल करना। इतिहास और ज्ञान की रोशनी से घबराया हुआ संघ लोगों को उस अंधेरी गुफा में ठेलना चाहता है जहां इतिहास और ज्ञान के नाम पर बस मनगढ़ंत किस्से परोसे जाते हैं जो आप के डर को और कई गुणा बढ़ा देते हैं।
संघ की मानसिकता उन अंधेरी जगहों में पलती और पनपती है जहां बस एक ‘सरसंघचालक’ या ‘संघचालक’ होता है और एक डरी हुई भीड़। डरा हुआ इंसान वहशी हो जाता है। उसे डर दिखा कर कुछ भी कराया जा सकता है। डर और नफरत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उससे आप गो-रक्षक भले ही बन जाएं, समाज के या देश के किसी काम नहीं आ सकते। मुल्क और समाज की जिम्मेदारी कुबूल करना गो-रक्षा नहीं है। बाबरी मस्जिद ढहाने या बेगुनाह लोगों के घर और रसोई में घुस कर उनका कत्ल करने से समाज या देश नहीं गढ़ा जाता है।
बहरहाल, आजादी की 70 वीं सालगिरह के मौके पर यह भी याद रखना मुनासिब होगा कि इन बदनुमा ताकतों को हमारे समाज के एक छोटे हिस्से का ही समर्थन हासिल है। आज भी हमारी विविधता और अनेकता ही हमारी ताकत है, हमारी पहचान है।
मगर दशकों से हावी सेकुलर राष्ट्रवाद के हालिया संकट ने यह भी साफ कर दिया है एक बात आज नए सिरे से सोचने की जरूरत भी है वरना हम इस संकट से उभर नहीं पाएंगे। हमारे समाज में व्याप्त गैर-बराबरियों, खास कर सदियों से चले आ रहे जाति-आधारित उत्पीड़न संबंधी गैर- बराबरियों पर अगर फौरन तवज्जो न दी तो हम संविधान के करार में निहित नए समाज के वायदों को लगातार मुल्तवी ही करते जाएंगे। इसी तरह मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को किसी तथाकथित ‘तुष्टिकरण’ की जरूरत नहीं है – जरूरत है तो उनके संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों की हिफाजत की, ताकि वे नागरिकों की हैसियत से जिंदगी बसर कर सकें। पुराने सेकुलर राष्ट्रवाद को आज नई जमीन की तलाश है।
(आदित्य निगम दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसाइटीज में प्रोफेसर हैं।)
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