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मोदी सरकार के 3 साल : चित भी मेरी, पट भी मेरी

हर साल दो करोड़ रोजगार मुहैया कराने के विशाल एजेंडे के साथ मोदी ने सत्ता संभाली थी। और यह एजेंडा आधारित था निवेश के वादों के भरोसे। तीन साल गुजरने के बाद आखिर हकीकत है क्या?

मोदी सरकार की तीन साल की नाकामियों पर प्रदर्शन करते कांग्रेस कार्यकर्ता / फोटो : Hindustan Time via Getty Images
मोदी सरकार की तीन साल की नाकामियों पर प्रदर्शन करते कांग्रेस कार्यकर्ता / फोटो : Hindustan Time via Getty Images 

यूं तो हर चुनाव ऐतिहासिक होता है, लेकिन 2014 का चुनाव असली मायनों में ऐतिहासिक था। इस चुनाव में ऐसा कुछ हुआ, जो पिछले कई चुनावों में देखने को नहीं मिला था। ये ऐसा चुनाव था जिसमें पहली बार कांग्रेस के अलावा कोई और पार्टी अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के शिखर तक पहुंची थी। इससे पहले 1977 से 1979 और फिर 1989 से 1990 की गैर-कांग्रेसी सरकारें पूर्व कांग्रेसी नेताओँ ने गैर-कांग्रेसी दलों के साथ मिलकर बनायीं थीं। 1998 और 1999 में बनी बीजेपी की सरकारें भी ऐसी सरकारें थीं जिनके पास लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं था।

इसके अलावा एक और बात थी, जिस शख्स ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, वह अपने पहले के प्रधानमंत्रियों से एकदम अलग था। नरेंद्र मोदी संसद के लिए एकदम नए थे। इससे पहले वे कभी संसद के सदस्य नहीं रहे, कभी किसी केंद्र सरकार में मंत्री नहीं रहे, कभी लंबे अर्से तक दिल्ली में नहीं रहे।

मोदी और उनकी पार्टी ने चुनाव प्रचार के दौरान जो भी वादे किए या सपने दिखाए, उन्होंने लोगों ने ध्यान से सुना-समझा। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोदी जी कई महीनों तक प्रचार के मोड में ही नजर आते रहे। वे ये कहते नहीं थकते कि उनका लक्ष्य सबका साथ, सबका विकास है। उन्होंने वोट देने वालों और खासकर पहली बार मतदान करने वाले युवाओं ने उनपर विश्वास किया कि अब अच्छे दिन जल्द ही आने वाले हैं।

वादे बेशुमार

स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त, 2014) पर दिए अपने पहले भाषण में भी मोदी ने वादों की झड़ी सी लगा दी। उन्होंने सभी स्कूलों में शौचालय बनाने, सभी देशवासियों का बैंक खाता खोलने, देश और समाज को बांटने वाली सभी किस्म की गतिविधियों पर एक साल की रोक और देश को एक नई दिशा देने जैसे बड़े-बड़े वादे किए। उस दिन के बाद से और भी वादे किए जा रहे हैं, मसलन स्वच्छ भारत, कौशल भारत, मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया और स्टैंड-अप इंडिया। इतनी ही नहीं, वे स्वंय और संबंधित मंत्रालयों के मंत्री भी इसमें पीछे नहीं हैं। जैसे सबके लिए बिजली, कालेधन पर नकेल, हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए, कर आतंकवाद का खात्मा, भ्रष्टाचार का नाश, सीमाओँ पर घुसपैठ पर पूर्ण रोक, गैरकानूनी शरणार्थियों पर काबू आदि आदि।

और सबसे ऊपर, सरकार ने हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का वादा किया। ये ऐसा वादा था जिसे सुनकर अच्छे-अच्छों की सांस रुक जाए। ये वादा इस अवधारणा पर आधारित था कि देश में निवेस बढ़ेगा, ज्यादा कर्ज मिलेगा, टैक्स में कमी आएगी और कारोबार करना आसान होगा।

ये एक बहुत ही प्रभावशाली एजेंडा था, ऐसा एजेंडा जो अगर पूरी तरह और फोकस ढंग से कर दिया जाता तो सारे विरोध और विवादों को दरकिनार कर देश को चमकाने का काम करता। देश आत्मविश्वास से भरा नजर आता, लोग घरों से निकलकर जश्न मनाते और पूरा विश्व उस साहसी और नए भारत को झुककर सलाम करता जिसने 90 के दशक में शुरु हुए आर्थिक सुधारों की असली ताकत को पहचान कर अपने लिए नई राह चुनी थी।

लेकिन 3 साल बाद, हकीकत क्या है?

टकराव से छलनी देश

आज हम जहां देखते हैं, हर तरफ टकराव नजर आता है। हमारे टीवी स्क्रीन से लेकर अखबार तक, गलियों और सड़कों से लेकर घरों तक, स्कूल-कालेजों से लेकर कांफ्रेंस तक, हर जगह टकराव को लेकर ही चर्चा है। भारत-पाक सीमा पर जंग जैसे हालात बने हुए हैं। कश्मीर में हर तरफ अशांति का माहौल है। मध्य भारत में माओवादी नए सिरे से सिर उठा रहे हैं और हमले करने के लिए अपनी ताकत बढ़ाने की तैयारी में हैं। गौ-रक्षकों का तांडव खुलेआम जारी है, लोग मारे जा रहे हैं। लव जिहाद का हो-हल्ला मचाया जा रहा है और सरकारी रोमियो स्क्वाड कथित मोरल पुलिस के साथ मिलकर युवा जोड़ों को आतंकित कर रहे हैं। सांप्रदायिक और जातीय संघर्ष में तेजी आ गयी है। बलात्कार के मामलों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। समानता के अध्य्यन के लिए तैयार केंद्र सरकार की 2016 की इंडियन एक्सक्लूजन रिपोर्ट से साफ जाहिर है कि दलितों, आदिवासियों, और मुस्लिमों को सरकारी योजनाओं और उन तक पहुंच से कैसे दूर रखा गया है।

भड़काने वाले बयान, गौ-रक्षा के नाम पर स्वंयसेवकों का आतंक, विचारधारा के आधार पर लोगों की पहचान करना, असहिष्णुता और विचारों से असहमति, असहमति जताने वालों की बेइज्जती और उनसे गाली-गलौज, ये कुछ ऐसे काम हैं जिससे समाज चिथड़े-चिथड़े हो रहा है। आजाद भारत के इतिहास में मुझे याद नहीं आता कि कोई ऐसा दौर रहा हो जब इस हद तक माहौल को संघर्षमय बना दिया गया हो। और ऐसा कोई भी देश जहां हर तरफ विवाद और संघर्ष नजर आता हो आगे नहीं बढ़ता और विकास की पटरी से उतर जाता है। 2015 के मध्य से ऐसा ही हो रहा है।

आज जो सबसे महत्वपूर्ण काम है, वह है हिंदुत्व, न कि हिंदुवाद – और बेशुमार संस्थाएं और संगठन और उनके प्रचारक हिंदुत्व को बढ़ावा देने में दिन-रात एक किए हुए हैं। दरअसल हिंदुत्व, हिंदू धर्म का बिगड़ा हुआ और भयंकर रूप है। ये एक विचारधारा है जो अतिराष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवाद, सामाजिक वर्गीकरण, पुरुषवादी और लिंग असमानता, एकल संस्कृति, जातीय आधिपत्य, शाकाहारवाद, हिंदी का वर्चस्व और अति-प्रतिक्रियावाद पर आधारित है। लेकिन आधुनिक राष्ट्र के निर्माण, बहुसंख्यक, उदारवाद, सेक्युलर और स्वंतंत्र देश में इन सबके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

विकास को धता बताता हिंदुत्व

विकास और हिंदुत्व के बीच जन्मजात बैर है। बिना आधुनिक, बहुसंख्यक, उदारवादी, सेक्युलर और खुले समाज के विकास हासिल किया ही नहीं जा सकता। विकास को चैंपियन चाहिए और उनमें इतना दम होना चाहिए कि जरूरत पड़ने पर इन सबकी रक्षा के लिए मैदान में उतर सकें। विकास के लिए विविधता, असहमति और बहसों की जरूरत होती है जबकि हिंदुत्व का एकमात्र लक्ष्य ही इन आवाजों को दबाना होता है। हाल ही में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमनयन ने विविध विचारों की वकालत करते हुए असीम साहस के साथ कहा था, “विविधता के लिए सामर्थ्य और योग्यता के साथ ही क्षमता भी जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि उन विचारों को सुना जाए जिन्हें दबाया नहीं जा रहा है, जो किसी मकसद से प्रेरित नहीं है और जो सुविधानुसार न तो सत्ता को लोभ और न ही भय से ग्रस्त हैं।“

लेकिन आज गाय के तो चैंपियन हैं, लेकिन पूरी सरकार में शिक्षा पर कोई चैंपियन नजर नहीं आता। 2013-14 के बजट में शिक्षा के लिए कुल खर्च का महज 4.57 फीसदी प्रावधान ही किया गया, जबकि 2016-17 में इसे घटाकर 3.65 फीसदी कर दिया गया। इन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि देश के 62 लाख बच्चे अभी भी प्राथमिक स्कूलों के 62 लाख बच्चे अभी भी प्राथमिक शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं। इन्हें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि ज्यादातर राज्य नियमित शिक्षक नियुक्त करने के बजाय कांट्रेक्ट टीचर के मॉडल को अपनाने लगे हैं, जिसके नतीजे में अध्यापकों की जो गुणवत्ता होती थी उसमें लगातार गिरावट आ रही है। और, इन्हें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले सिर्फ 42.5 फीसदी बच्चे ही पहली कक्षा के स्तर का कोई पाठ पढ़ पाते हैं।

नैतिकता की दुहाई देने वाले चैंपियन की कमी नहीं है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए इनके पास वक्त नहीं है। इन्हें चिंता नहीं कि मुफ्त में मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं के बदले मरीजों से ऊंचे दाम वसूले जा रहे हैं। इन्हें इसकी भी फिक्र नहीं कि तमाम राज्यों में एलौपैथिक डॉक्टकों की बेहद कमी है। और इन्हें इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि 5 साल से कम उम्र के 35.7 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है, 38.4 फीसदी बच्चों का कद सामान्य नहीं है और 21 फीसदी बच्चे कमजोर हैं।

Published: 08 Aug 2017, 7:24 PM IST

इस राज में हिंदी की वकालत करने वाले तो मिल जाएँगे, किसानों और खेतिहर मजदूरों के मुद्दे उठाने वाला कोई नजर नहीं आता। इन्हें चिंता ही नहीं कि कृषि से जीविका कमाने वाले 22 फीसदी परिवारों की औसत मासिक आमदनी 12 हजार के आसपास ही है। इन्हें इसकी भी चिंता नहीं कि खेतों में मजदूरी कर रोजगार कमाने वाले 7 फीसदी घरों की औसत मासिक आमदनी 9 हजार रुपए के करीब है।

याद करो बीजेपी का चुनावी घोषणापत्र। याद करो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 15 अगस्त 2014 को दिया गया भाषण और उसमें किए गए वादे। इनकी सरकार के कुछ वादे याद करो।( मैंने इस लेख के शुरु में कुछ वादों का जिक्र किया है।) हर एक वादा हिंदुत्व की छाया के नीचे कहीं खो गया है। अब कोई भी अच्छे दिनों की बात ही नहीं करता, और विकास तो शुरु होने से पहले ही गर्त में चला गया।

(लेखक वकील, राज्यसभा सदस्य और पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री हैं)

Published: 08 Aug 2017, 7:24 PM IST

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Published: 08 Aug 2017, 7:24 PM IST

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