क्या सेना अपनी सेकुलर पहचान बनाए रखने की योजना बदल रही है? हम सब जानते हैं कि आरएसएस के प्रबंधन वाले संस्थानों ने सिविल सेवाओं, खास तौर से आईएएस और आईपीएस में किस तरह गहरी पैठ बना ली है।
आरएसएस निजी सैन्य स्कूलों की योजना क्यों बना रही है?
हमें चिंता है कि‘टूर ऑफ ड्यूटी’ वाले सैनिकों का प्रवेश सेना में उग्र और सांप्रदायिक तत्वों की घुसपैठ के लिए रास्ता खोलेगी।
भारतीय सैन्य रेजिमेंट की जातीय पहचान बदल जाएगी?
आरएसएस और आरएसएस-संबद्ध स्कूलों के आवेदक इसमें शामिल करने योग्य होंगे?
ये कुछ सवाल पूर्व सैन्य अफसरों ने सोशल मीडिया पर उठाए हैं। लेकिन इन प्रस्तावों को लेकर बेचैनी सिर्फ इन लोगों तक ही नहीं है। अभी सेना में जो कार्यरत अफसर और जवान हैं, उन्हें भी यही संदेह है। एक जनरल ने कहाः सेना में अफसरों की कमी इच्छुक लोगों की कमी के कारण नहीं है। यह उचित इच्छुक लोगों की कमी के कारण है। ब्रिटिश शासन में इसके लिए एक टर्म उपयोग में लाया जाता था- अफसर-जैसे गुण (ऑफिसर्स लाइक क्वालिटी- ओएलक्यू)। सेना ने अफसरों के लिए गुणों वाली जरूरतों पर समझौता नहीं किया है लेकिन ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ प्रोफेशनल फोर्स के तौर पर भारतीय सेना की पहचान को समाप्त कर देगा।
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एक अवकाश प्राप्त कमांडर का कहना है किः सिविल सेवा परीक्षाएं पास करने वालों को सेना में तीन साल तक रखना बेहतर होगा। तीन साल के बाद उनमें से जो उपयुक्त हों, उन्हें सेना में बने रहने या सिविल सेवाओं में वापस जाने का विकल्प चुनने का मौका दिया जा सकता है। इस मुद्दे पर राय जानने के लिए पूछे गए सवाल के जवाब में एक अवकाश प्राप्त मेजर जनरल ने कहाः युद्ध में दूसरे नंबर पर रहने वाला कोई पारितोषिक नहीं होता; और यह प्रस्ताव ड्यूटी से अधिक टूर की तरह होगा। साफ है कि यह प्रस्ताव किसी गहरे षड्यंत्र की तरह लग रहा है। पिछले पचास साल से कॉलेजों में नेशनल कैडेट कॉर्प्स(एनसीसी) के कार्यक्रम चल रहे हैं। इसके लिए एनसीसी निदेशालय है और सेना इसके लिए जेसीओ, एनसीओ और ऑफिसर ट्रेनर्स उपलब्ध कराती है। एनसीसी कैडेट अगर सेना में जाने की योग्यताएं रखते हैं तो उनका कोटा भी रहता आया है।
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लेकिन लगता है कि यह व्यवस्था अब सरकार को अनुकूल नहीं लगती है। वैसे, यह हर व्यक्ति के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती या अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण से अलग प्रावधान है। इजरायल में अफसर नियुक्त नहीं किए जाते और वहां नागरिकों को अपनी इच्छा से सेना में भर्ती होने को कहा जाता है। लेकिन ‘न्यूइंडिया’ में यह दूसरे किस्म की चीज की जा रही है। 18 से 21 साल की उम्र के लोगों के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा- वजीफे के साथ- संभव है और इस पर भारत में विचार-विमर्श किया जा सकता है। सेना में जवानों की कमी नहीं है। इसके लिए इच्छुक भी काफी लोग रहते हैं। नियुक्तियों के लिए होने वाले शिविरों में जिस तरह लोग जुटते हैं, वही इसका प्रमाण है। लेकिन यह भी सब जानते हैं किसेना में अफसरों की कमी है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि खुली अर्थव्यवस्था के बाद लोगों को अधिक अवसर वाले और बेहतर वेतन पर दूसरी नौकरियां मिल रही हैं इसलिए वे सेना में नहीं जाना चाह रहे। लेकिन क्या‘टूर ऑफ ड्यूटी’ इसका उत्तर है?
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नहीं कहा जा सकता कि इस विचार के पीछे कौन है। पर कुछ बयान गौर करने लायक हैं। मीडिया के एक हिस्से में रिपोर्ट थी कि 2018 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि भारतीय सेना को प्रशिक्षित सेना तैयार करने में छह माह लग जाएंगे जबकि जरूरत होने पर आरएसएस इसे तीन दिनों में तैयार कर सकता है। इस पर बवेला बढ़ा तो आरएसएस के मनमोहन वैद्य ने कहा कि भागवत को गलत ढंग से उद्धृत किया गया है- दरअसल, भागवत ने कहा कि अगर ऐसी स्थिति आ जाए और संविधान अनुमति दे, तो सेना आरएसएस स्वयंसेवकों को तीन दिनों में प्रशिक्षण दे सकती है जबकि समाज के शेष लोगों को तैयार करने में सेना को छह माह लगेंगे।
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रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला ने उसी वक्त अपने ब्लॉग में लिखा था कि भागवत की यह बात सही है कि भारतीय सेना किसी युद्ध के लिए बिना तैयारी वाली है। उन्होंने तत्कालीन सेना प्रमुख वीके सिंह की रक्षामंत्री एके एंटोनी को लिखी उस चिट्ठी का जिक्र किया था जिसे ‘सुविधा पूर्वक लीक किया गया था।’ इस चिट्ठी में हथियारों की कमी की बात कही गई थी। शुक्ला ने यह भी लिखा था कि प्रशिक्षण और सतर्कता की भी कमी है जिसे कम प्रचार मिला है। एक और घटनाक्रम पर ध्यान दें। यूपीएससी कोचिंग संस्थानों की कभी भी कमी नहीं रही है लेकिन आरएसएस ने अपने कोचिंग संस्थान शुरू किए।
इनमें पढ़ाने और आरएसएस द्वारा चुने गए उम्मीदवारों को बातचीत करने के लिए अफसरों को आमंत्रित किया गया। इससे हुआ यह कि आरएसएस को सिविल सेवा में रास्ता बनाने, नौकरशाहों से रिश्ता बनाने और इनके बीच जगह बनाने में मदद मिली। अपने सैनिक स्कूल बनाकर आरएसएस यही तरीका अपना रहा है। वैसे, ध्यान रहे कि देश में कम-से-कम 28 सैनिक स्कूल हैं जो रक्षा मंत्रालय की देखरेख में चल रहे हैं। लेकिन आप गूगल सर्च करें, तो पूर्व आरएसएस प्रमुख के नाम पर उनके चित्र के साथ उत्तर प्रदेश में रज्जू भैया सैनिक स्कूल होने की जानकारी मिलेगी। आरएसएस ने अभी पिछले महीने- अप्रैल, से इसे शुरू करने की घोषणा की थी। संभव है, कोरोना संकट के कारण इसे फिलहाल टाल दिया गया हो।
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इंडियन एक्सप्रेस ने सरकार का जो आंतरिक पत्र उद्धृत किया है, उसमें बताया गया है कि यह प्रस्ताव ‘वैसे युवाओं को’ कम समय वाले और स्वैच्छिक ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ से जोड़ने का है जो ‘रक्षा सेवाओं को अपनी स्थायी नौकरी नहीं बनाना चाहते, फिर भी सैन्य प्रोफेशनल के रोमांच और जोखिम का अनुभव करना चाहते हैं। इस नोट में कहा गया है कि यह प्रस्ताव सैन्य बलों में स्थायी सेवा/नौकरी के विचार से हटते हुए तीन साल के लिए ‘इंटर्नशिप’/अस्थायी अनुभव की ओर ले जाना है। अपने देश में बेरोजगारी वास्तविकता है लेकिन राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति का पुनरुत्थान हुआ है। इन सबसे साफ है कि तीनों रक्षा सेवाओं के प्रमुख विपिन रावत का ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ का विचार सेना की आर्थिकी और मजबूती से अधिक राजनीति से प्रेरित है।
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