प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात कही है। इसे वह भिन्न ढंग से पहले भी कह चुके हैं।
2014 में केंद्र में पहली बार अपनी सरकार का गठन करने के बाद उन्होंने मेक इन इंडिया कार्यक्रम की घोषणा की थी। उनकी इस दृष्टि को खूब वाहवाही मिली थी और काफी मीडिया कवरेज भी मिला था। उद्योगपतियों में इसकी प्रशंसा करने की होड़ लगी थी और उनलोगों ने बड़े-बड़े निवेश के वायदे किए थे जिनमें से कुछ ही अगले पांच साल में जमीन पर उतर पाए। योजनाओं पर सतर्क निगाह रखने वाले कुछ लोगों ने तब ही कहा था कि मोदी ने जो भी घोषणाएं की हैं, वे, दरअसल, यूपीए सरकार की 2011 की नई निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) नीति है जिन्हें नए प्रोडक्ट के तौर पर मुलम्मा चढ़ाकर पेश कर दिया गया है।
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यह संभवतः समझने योग्य था कि प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तौर पर पुरानी यूपीए योजना को सिर्फ रीपैकज क्यों किया। नई सरकार ने तुरंत कार्यभार संभाला ही था और वह इतनी जल्दी नई योजना तैयार नहीं कर सकती थी। इसलिए वह घोषणा कर, आकर्षक नारा गढ़कर काम चला रही थी। लेकिन उसे बाद में ऐसी योजना विकसित करने के लिए अपना दिमाग लगाना था जो महत्वपूर्ण पहलुओं के साथ निबटे। लेकिन तथ्य यह है कि अपने लक्ष्यों के अनुरूप नई अद्यतन योजनाएं लाने की जगह छह साल में यूपीए युग के औद्योगिक और निर्माण नीतियों को ही कई मर्तबा कलई चढ़ाकर पेश कर दिया गया है।
भारत की पहली उद्योग नीति 1991 में तैयार की गई थी। उस वक्त की सरकार ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी। 1991 में पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व वाली सरकार ने बिल्कुल नए किस्म की आर्थिक नीति की शुरुआत की थी जिसने बदनाम लाइसेंस राज की समाप्ति और सभी सेक्टरों को खोलने की परिकल्पना की थी। उद्योग नीति ने इसकी ही विस्तृत संरचना रखी थी। बाद में बनी सरकारों ने, कुल मिलाकर, उन्हीं आर्थिक सुधारों की संरचना को आगे बढ़ाया और विभिन्न सेक्टरों को खोला। चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार हो या डाॅ. मनमोहन सिंह की दोनों यूपीए सरकारें हों, 1991 की उद्योग नीति ने अर्थव्यवस्था के सुधार की कदम-दरकदम संरचना ही उपलब्ध कराई।
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लीमैन ब्रदर्स के धाराशायी होने और सबप्राइम मोर्टगेज संकट के कारण वैश्विक वित्तीय मंदी से जूझते हुए यूपीए सरकार ने 2011 में उद्योग और निर्माण में भी ऐसी ’जिंदादिली’ फिर से कायम करने के रास्ते खोजने शुरू किए जिसने आर्थिक सुधारों के बाद सेवाओं को दूसरा हथियार बनाने में महत्वपूर्ण भमिू का निभाई। सेवाओं ने अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास लाया, पर यूपीए 2 टीम जानती थी कि इसने निर्माण की गति खो दी है। चीन ने सस्ते श्रम और दुनिया भर के खयाल से काफी उच्च स्तर के प्रभावी निर्माण की बदौलत अपने विकास का फैलाव कर लिया है और योजनाकारों ने महसूस किया कि भारत की निर्माण कमजोरियों को दूर किए जाने की जरूरत है। निर्माण बढ़ाना रोजगार के लिए भी फायदेमंद होगा।
2011 की नई निर्माण नीति (एनएमपी) में 2022 तक भारत के जीडीपी में 25 प्रतिशत निर्माण हिस्सेदारी जोड़ने की बड़ी दृष्टि थी। निर्माण का हिस्सा लगभग 15-16 प्रतिशत था। इस नई नीति ने परिकल्पना की कि भारत निर्माण अर्थव्यवस्थाओं को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए बड़े राष्ट्रीय निवेश और निर्माण जोन बनाएगा। इसने 2022 तक दस करोड़ रोजगार तैयार करने की बात की।
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प्रधानमंत्री मोदी का मेक इन इंडिया वस्तुतः नए बोतल में पुरानी शराब थी। उसमें भी उसी किस्म के महत्वाकांक्षी लक्ष्य थे- 2022 तक निर्माण क्षेत्र से जीडीपी की 25 प्रतिशत हिस्सेदारी और इनके जरिये दस करोड़ नई नौकरियां। मोदी ने इसे लेकर भले ही काफी नगाड़े बजाए, पहली बार की घोषणा के बाद से इसने भारत की निर्माण क्षमताओं में किसी किस्म का अंतर पैदा नहीं किया। योजना में काफी बदलाव, सुधार, संशोधन और स्पष्टीकरण भी कई बार हुए लेकिन यह समझने का वास्तविक प्रयास कभी नहीं हुआ कि निर्माण की हिस्सेदारी अब भी भारत की जीडीपी में 17-18 प्रतिशत ही क्यों है और नए रोजगार अब भी क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं। कुछ मामलों में तो, चीन के कारखानों पर भारत की निर्भरता बढ़ ही गई क्योंकि भारत के निर्माता वहीं से सामान मंगाने को वरीयता देते हैं और देश में सिर्फ इसे असेंबल करने से अधिक कुछ नहीं करते। कुछ क्षेत्रों में, भारत ने निर्माण जारी रखा हुआ है- मोबाइल हैंडसेट्स और उपभोक्ता सामान को असेंबल करने और एफएमसीजी में भी। वैसे, कई विशेषज्ञों ने कई मर्तबा ध्यान दिलाया है कि कई सामानों के निर्माण में वियतनाम और बांग्लादेश भारत से अधिक प्रतिद्वंद्वी बन गए हैं।
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आखिरकार, दुनिया के निर्माण नक्शे में अपना वजूद बढ़ाने से भारत को किन बातों ने रोक रखा है? उद्योगपतियों के साथ-साथ कई अर्थशास्त्री भी कहते हैं कि एक कारण तो यह है कि भारत ने विशिष्ट उद्योगों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया है और इसलिए उसे उचित अंदाजा ही नहीं है कि किन्हीं खास उद्योगों में किस तरह ग्लोबल हब बना जाए। इसका परिणाम यह है कि संसाधन विभिन्न उद्योगों में तितर-बितर हो रहे हैं और किसी सेक्टर पर खास ध्यान नहीं जा रहा या ऐसी योजनाएं नहीं बन रहीं जो उन्हें प्रतिस्पर्धी बना सके।
अधिक-से-अधिक नौकरियां पैदा करना या बड़े स्तर के वैश्विक प्रतिस्पर्धी वाले उद्योग तैयार करना- इनमें से क्या महत्वपूर्ण है, इस पर लगातार वाद-विवाद होता रहता है। एक वक्त ऐसा था जब निर्माण का अपने आप मतलब होता था- बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर मिलना। लेकिन बाद में, टेक्नोलाॅजी क्रांति की वजह से बहुत कुछ बदल गया। वैश्विक बाजार को ध्यान में रखने वाले बड़े कारखाने अब रोबोटिक्स और ऑटोमेशन पर काफी निर्भर हैं और कम वेतन वाले मजदूरों पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश करते हैं। दूसरी तरफ, लघु और मध्यम स्तर के उद्योग काफी सारी नौकरियां देते हैं, हालांकि जरूरी नहीं है कि वे अच्छे पैसे दें ही।
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यह तथ्य है कि राष्ट्रीय निवेश और निर्माण जोन न तो कभी बने और न एक्सपोर्ट प्रासेसिंग जोन-जैसी उससे संबंधित चीज बनी। बड़े टैक्स सुधार के तौर पर जीएसटी ने निर्माण निवेशों में निरुत्साहित करने वाली भमिू का ही निभाई। जीएसटी व्यवस्था से पहले राज्यों के पास निवेश को आकर्षित करने के लिए टैक्स में छूट देने-जैसे अधिकार थे जो अब संभव नहीं है। कई अन्य समस्याएं भी हैं। उदाहरण के लिए, अधिकांश उद्योगों में कम्पोनेंट निर्माताओं के हित कई दफा अंतिम उत्पादकों के हितों से टकराते हैं। बड़े, संगठित और समन्वित उद्योगों के हित कई बार अपेक्षाकृत छोटे उत्पादकों से अलग होते हैं। एक की सुरक्षा के लिए आयात शुल्क का उपयोग करने की कोशिश कई बार उसी उद्योग के अन्य लोगों के लिए गैरप्रतिस्पर्धी हो जाते हैं।
सरकार ने समय-समय पर एक या दूसरी समस्या दूर करने की कोशिश की है। इसने ऊर्जा उत्पादन, सड़क और बंदरगाह-जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में काफी प्रगति की है लेकिन भमिू और श्रम के मामले में यह विफल रही है। ये दोनों राज्यों के दायरे में हैं। उनमें वास्तविक सुधार के लिए इसे उसी तरह राज्यों के साथ बातचीत करनी होगी जिस तरह उसने जीएसटी के मामले में किया था। लेकिन राजनीति ने केंद्र-राज्य संबंधों को कई दफा प्रभावित किया है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे तरजीह देने वाली बात चुननी होगी- बड़े स्तर वाले बनाम एसएमई, पूर्ण, मूल्य-संकलित उत्पाद या निम्न मूल्य मध्यवर्ती संस्थाएं। घरेलू स्रोत अधिक महत्वपूर्ण हैं या प्राथमिक लक्ष्य मूल्य-संकलित उत्पाद है। घरेलू उद्यमियों को बढ़ावा देना है या विदेशी निवेश को अनुमति देनी है।
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