‘बीसीसीआई को लगता है कि वह अपने आप में एक कानून है। अपने फैसले कैसे लागू करने हैं, हम जानते हैं’
- भारत के प्रधान न्यायाधीश, टी.एस. ठाकुर, 2016
‘भारतीय क्रिकेट क्यों फल-फूल रहा है? अदालत के हस्तक्षेप के कारण नहीं बल्कि इसे चलाने वाले निकाय के कारण’
-न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की सुप्रीम कोर्ट की पीठ, 2022
सुप्रीम कोर्ट ने 14 सितंबर को दुनिया की सबसे अमीर और भारत की सबसे ताकतवर खेल संस्था- भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) में छह साल पहले 2016 में अपनी ही पहल पर शुरू हुए सुधारों को पटरी से उतार दिया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने जिस तरह बीसीसीआई को अपना संविधान बदलने और प्रशासकों के लिए ‘कूलिंग ऑफ’ अवधि में ढील देने की अनुमति दे दी, उससे तो ऐसी ही धारणा बन रही है। इसने बीसीसीआई अध्यक्ष सौरव गांगुली और सचिव जय शाह जिनका कार्यकाल सितंबर, 2020 में खत्म हो गया था, के लंबे कार्य काल का रास्ता साफ कर दिया।
बीसीसीआई ने जितनी भी मांगें कीं, उन्हें मंजूर कर लिया गया- बस एक के सिवा जिसमें खेल निकाय ने अदालत को बताए बिना अपने संविधान में संशोधन की अनुमति मांगी थी।
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2014 में आईपीएल मैच फिक्सिंग कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई में चल रही गड़बड़ियों को दूर करने के लिए उसके कामकाज मेें हस्तक्षेप किया था। सबसे पहले उसने मुकुल मुद्गल समिति का गठन किया और फिर बीसीसीआई में गड़बड़ियों को दूर करने के उपाय सुझाने के लिए लोढ़ा समिति बनाई। लोढ़ा पैनल ने अपनी रिपोर्ट में खुले शब्दों में कहा कि ‘क्रिकेट के सबसे अमीर और यकीनन सबसे ताकतवर राष्ट्रीय निकाय की बागडोर अब भी विवादों में घिरी है। व्यक्ति-केन्द्रित संविधान और पुराने सत्ता केन्द्र जो बरसों से अपरिवर्तित रहे हैं, बीसीसीआई अपने तय रास्ते से भटक गया है’।
बीसीसीआई में सुधारों को पटरी से उतर जाने के मामले में समाचारपत्र इंडियन एक्सप्रेस को दिए साक्षात्कार में न्यायमूर्ति लोढ़ा ने कहा: ‘प्रशासकों के लिए ‘कूलिंग ऑफ’ क्लॉज बर्फ के पहाड़ की तरह था जिसे बदलना उनके लिए बहुत मुश्किल था, इसलिए उन्होंने ने बस मौसम के बदलने का इंतजार किया। 2016, 2018 से लेकर 2022 तक ऐसा ही हो रहा है।’
लोढ़ा समिति की सिफारिशों के आधार पर 2016 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में अपेक्षा थी कि पदाधिकारी हर तीन साल के कार्यकाल के बाद ब्रेक लें। इसके बाद इसे छह साल किया गया (राज्य के संघ, राष्ट्रीय या दोनों के कार्यकाल को मिलाकर)। अब, वे 12 साल तक लगातार राज्य निकाय और बीसीसीआई में एक साथ रह सकते हैं।
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अदालत का यह आदेश सौरव गांगुली और जय शाह को 2025 तक पद पर बने रहने में सक्षम बनाएगा। हालांकि, कोर्ट के इस आदेश के बाद अब नजर अगले महीने होने वाली बीसीसीआई की सालाना आम बैठक पर है कि उसमें क्या होता है। चर्चा यह है कि नवंबर में ग्रेग बार्कले का कार्यकाल समाप्त होने के बाद बीसीसीआई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के अगले अध्यक्ष के रूप में गांगुली के नाम का प्रस्ताव कर सकती है जबकि शाह के सबसे कम उम्र के बीसीसीआई अध्यक्ष के रूप में पदभार संभालने की संभावना है।
उसी इंटरव्यू में जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि ‘कूलिंग-ऑफ अवधि के बारे में हमारा विचार दो कारकों पर आधारित था- यह एकाधिकार को रोकेगा और इससे प्रशासन में नया खून आएगा। सरकारी संरचना में एकाधिकार के बनने से रोकने के लिहाज से कूलिंग-ऑफ एक महत्वपूर्ण अंग है... अगर आप लंबा कार्यकाल देंगे तो कुछ लोगों के पक्ष में एकाधिकार का निर्माण होगा’।
जिस तरह से सिफारिशों को हल्का किया गया है, यह विश्वास करना मुश्किल है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही 2017 में बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर जो अब केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण और खेल मंत्री हैं और सचिव अजय शिर्के को लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू नहीं करने के लिए हटा दिया था। न्यायमूर्ति लोढ़ा के शब्दों में राज्यों के संघ अब भी ‘शक्ति केन्द्र’ बने हुए हैं। वहां राजनीतिक दबदबे और पारिवारिक संबंधों का राज चल रहा है।
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कुछ राज्य निकायों के अधिकारियों की सूची पर नजर डालते सारी कहानी अपने आप सामने आ जाती है। बंगाल को लें। बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया के बेटे अभिषेक डालमिया वहां अध्यक्ष हैं और सौरव गांगुली के बड़े भाई स्नेहासिस गांगुली सचिव। बीसीसीआई और आईसीसी के पूर्व प्रमुख शशांक मनोहर के बेटे अद्वैत मनोहर विदर्भ क्रिकेट संघ के अध्यक्ष हैं।
सौराष्ट्र में बीसीसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष और आईपीएल अध्यक्ष चिरायु अमीन के बेटे प्रणव अमीन अध्यक्ष हैं। बीसीसीआई के पूर्व सचिव निरंजन शाह के बेटे जयदेव शाह उपाधयक्ष हैं जबकि निरंजन शाह के भतीजे हिनमांशु शाह सचिव। पूर्व-बीसीसीआई सचिव जयवंत लेले के पुत्र अजीत लेले बड़ौदा में एसोसिएशन के सचिव हैं और पूर्व-बीसीसीआई और आईसीसी अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन की बेटी रूपा गुरुनाथ पिछले साल तक तमिलनाडु में अध्यक्ष थीं।
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सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई को चलाने के लिए चार सदस्यीय प्रशासक समिति (सीओए) बनाई थी जिसमें भारत के पूर्व नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय, उद्योगपति विक्रम लिमये, क्रिकेट और सामाजिक इतिहासकार रामचंद्र गुहा और अनुभवी महिला क्रिकेटर डायना एडुल्जी थे। हालांकि लिमये ने व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं का हवाला देते हुए पद छोड़ दिया जबकि गुहा भी भारतीय क्रिकेट में प्रचलित ‘सुपरस्टार संस्कृति’ का हवाला देते हुए अलग हो गए। उनका इशारा तत्कालीन कप्तान विराट कोहली के कारण मुख्य कोच अनिल कुंबले को हटाए जाने की ओर था जो उनकी तरह ही बेंगलुरू के थे।
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सीओए के 33 महीने के कार्यकाल की कुछ अच्छी बातें भी रहीं जैसे, आईपीएल टीमों के स्वामित्व पैटर्न में बदलाव, शीर्ष परिषद का गठन लेकिन राय और एडुल्जी के बीच दरार की मीडिया रिपोर्टों के साथ ही यह धीरे-धीरे अस्थिर हो गया और सीईओ राहुल जौहरी वस्तुतः प्रमुख हो गए। जौहरी के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले में सीओए का जैसा रवैया रहा, वह भी निराशाजनक था।
ऐसा लगता है कि अदालत इस नतीजे पर पहुंच गई है कि क्रिकेट का प्रशासन नेताओं, उद्योगपतियों और उनके गुर्गगों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाए। इसलिए बीसीसीआई में ढाक के तीन पात वाली बात हो गई है। यही बीसीसीआई चाहता था और अब कोई शिकायत भी नहीं कर रहा!
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