रांची की मारिया गोरोती खलको को भाला फेंकने (जैवेलिन थ्रो) के खेल से इस कदर मोहब्बत थी कि वह गृहस्थी बसाना भूल गयीं। 70 के दशक में उन्होंने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की दर्जन भर प्रतियोगिताओं में गोल्ड-सिल्वर मेडल्स पर निशाना साधा। इसके बाद उन्होंने जिंदगी के करीब 30 साल जैवलिन थ्रो के लिए एथलीट्स तैयार करने में खपा दिये। आज उम्र के चौथे पड़ाव पर वह फेफड़े की बीमारी से इस कदर बेदम हैं कि बगैर सहारे के बिस्तर से उठ नहीं पातीं। सबसे तकलीफदेह स्थिति तो यह कि अपने दौर की इस धाकड़ एथलीट के पास पास दवा से लेकर भोजन तक के लिए पैसे नहीं हैं। मारिया रांची के नामकुम में अपनी बहन के घर पर रहती हैं। उनकी बहन की माली हालत भी अच्छी नहीं है। उन्हें ओल्ड एज पेंशन तक नहीं मिलती। बीते डेढ़-दो महीनों में मारिया बेहद कमजोर हो गयी हैं। जिन बाजुओं ने खेल के मैदान में कभी खूब दम दिखाया था, उनमें अब इतनी भी ताकत नहीं कि पानी का गिलास तक खुद से उठा सकें।
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आईएएनएस ने बीते फरवरी में उनकी बीमारी और खराब माली हालत पर रिपोर्ट प्रकाशित की थी, तब राज्य के खेल विभाग ने उन्हें 25 हजार रुपये की सहायता दी थी। इसके पहले भी एक बार राज्य सरकार के खेल विभाग ने खिलाड़ी कल्याण कोष से एक लाख रुपये की मदद दी थी, लेकिन महंगी दवाइयों और इलाज के दौर में यह राशि जल्द ही खत्म हो गयी।64 साल की मारिया को ओल्ड एज पेंशन तक नहीं मिलती। ड़ॉक्टरों ने दूध, अंडा और पौष्टिक आहार लेने की सलाह दी है, लेकिन जब पेट भरने का इंतजाम भी बहुत मुश्किल से हो रहा है तो पौष्टिक आहार कहां से आये? हर माह 4000 रुपये से अधिक की जरूरत केवल दवाओं की होती है। बीमारी शुरू होने के बाद से अब तक 1 लाख से भी अधिक का कर्ज उनके माथे चढ़ चुका है।
मारिया पर एथलीट बनने का जुनून बचपन से ही सवार था। 1974 में वह जब आठवीं क्लास की छात्रा थीं, तब नेशनल लेवल के जेवलिन मीट में गोल्ड मेडल हासिल किया था। ऑल इंडिया रूरल समिट में भी उन्होंने जेवलिन थ्रो में गोल्ड मेडल जीता था। 1975 में मणिपुर में आयोजित नेशनल स्कूल कंपीटिशन में गोल्ड मेडल हासिल किया।1975 -76 में जालंधर में अंतरराष्ट्रीय जेवलिन मीट का आयोजन हुआ तो वहां भी मारिया के हिस्से हमेशा की तरह गोल्ड आया। 1976-77 में भी उन्होंने कई नेशनल-रिजनल प्रतियोगिताओं में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।
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80 के दशक में वह जेवलिन थ्रो की कोच की भूमिका में आ गईं। 1988 से 2018 तक उन्होंने झारखंड के लातेहार जिले के महुआडांड़ स्थित सरकारी ट्रेनिंग सेंटर में मात्र आठ-दस हजार के वेतन परकोच के रूप में सेवाएं दीं। नौकरी कांट्रैक्ट वाली थी, इसलिए रिटायरमेंट के बाद भी उनके हाथ खाली रहे। मारिया से भाला फेंकने के गुर सीख चुकीं याशिका कुजूर, एंब्रेसिया कुजूर, प्रतिमा खलखो, रीमा लकड़ा जैसी एथलीट ने देश-विदेश की कई प्रतियोगिताओं में मेडल जीते हैं।
झारखंड ग्रैपलिंग संघ के प्रमुख प्रवीण सिंह कहते हैं कि सरकार की घोषणाओं के बावजूद पूर्व खिलाड़ियों की मदद के लिए कोई ठोस योजना नहीं बन पायी। बनी भी तो धरातल पर उतर नहीं पायी। मीडिया में खबरें छपती हैं तो खिलाड़ियों को कई बार थोड़ी-बहुत मदद मिल जाती है।
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