फेकू...यह शब्द अभी तक किसी और के लिए इस्तेमाल होता था, लेकिन अब से यह शब्द गले की नसें खिंच आने तक चिल्लाने वाले मशहूर पत्रकार के लिए इस्तेमाल हो रहा है। इतना ही नहीं, इस पत्रकार की पूरी की पूरी पत्रकारिता को अब फेकूगिरी कहा जा रहा है। इस पत्रकार को ये उपाधि किसी और ने नहीं, बल्कि उसके अपने पूर्व संपादक, स्वयं जाने माने पत्रकार, एडिटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्ष और लेखक, पद्मश्री से सम्मानित राजदीप सरदेसाई ने दी है। और जिस पत्रकार को फेकू और उसकी पत्रकारिता को फेकूगिरी से सुशोभित किया गया है वह हैं देश की तरफ से किसी से भी कोई भी सवाल पूछने वाले अर्णब गोस्वामी।
आखिर राजदीप सरदेसाई ने अपने ही पूर्व सहयोगी और रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ को फेकू क्यों कहा। यूं तो पुरानी से पुरानी खबरों को नए हैशटैग के साथ कोलाहल की चाशनी में डुबोकर और दुर्वासा ऋषि की तरह भृकुटी तानकर सत्ता विरोधी आवाजों को शत्रुघ्न सिन्हा स्टाइल में खामोश कराने वाले अर्णब गोस्वामी अपने रिपब्लिक पर ज्यादातर ऐसी ही खबरें दिखाते रहे हैं जिन्हें फेकूगिरी की श्रेणी में रखा जा सकता है। कुटिल मुस्कान के साथ अनदेखे अनजाने कागज़ों की सरसराहट के साथ दूसरों की पोल पट्टी खोलने और किसी पुरानी तस्वीर या दृश्यों पर लाल रंग के गोले लगाकर जवाब तलब करने की उनकी अदा मंगलवार को दिन भर कैसी रही होगी, इसकी कल्पना से ही पेट में बल पड़ने लगे हैं।
चलिए पूरा मामला समझाते हैं। आदत के मुताबिक मंगलवार सुबह राजदीप सरदेसाई ने करीब सवा 8 बजे ट्वीट कर सुप्रभात कहा और विचार व्यक्त किया कि जब आप वादा करते हैं, तो इससे उम्मीद पैदा होती है, और जब वादा पूरा करते हैं तो इससे विश्वास बढ़ता है।
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जैसा होता है, वैसा ही हुआ, मिली जुली प्रतिक्रियाएं आईं। कुछ अच्छी तो कुछ मजेदार और कुछ चुभती हुई। एक ने तो उलटा ज्ञान ही पिला दिया:
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पता नहीं, ये इस ज्ञान का असर था या कुछ और कि चंद ही मिनटों में राजदीप सरदेसाई ने एक वीडियो शेयर किया और सीधे-सीधे अर्णब गोस्वामी को झुट्ठा करार देते हुए अपने 7.24 मिलियन यानी करीब साढ़े 72 लाख फॉलोअर्स को बताया कि वीडियो में अर्णब जिस घटना का जिक्र कर रहे हैं, वह उनके साथ कभी घटित ही नहीं हुई, और सच्चाई तो यह है कि अर्णब तो गुजरात दंगों की कवरेज के लिए गए ही नहीं थे।
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बस यह देखते ही टूट पड़े सोशल मीडिया कारसेवक...कुछ ने तो यहां बोल दिया कि राजदीप तो अर्णब से जलते हैं, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। कुछ ने सीधे सवाल पूछा तो फिर अर्णब किसकी कहानी अपनी बताकर सुना रहे थे।इस पर राजदीप ने बताया कि यह तो उनकी ही कहानी है, और उन्होंने अपनी किताब की तड़ से मार्केटिंग भी कर दी।
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इसके साथ ही राजदीप ने टिप्पणी भी कर दी, कि वीडियो असम का है और तब का है जब कांग्रेस सत्ता में थी, लेकिन “सत्य के अवसान के बाद सबकुछ चलता है”
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इस बीच जब एनडीटीवी एक पत्रकार ने कुछ और याद दिलाया तो राजदीप को भी कुछ और याद आ गया और उन्होंने कहा, हां यह घटना उनके साथ हुई थी और साथ में और कौन कौन था:
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राजदीप सरदेसाई ने अर्णब द्वारा ग्राफिक्स डिटेल में बताए गये घटनाक्रम को भी विस्तार दिया और उस जगह का नाम बताया कि ये सब कहां हुआ था...
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इस बीच 2002 दंगों के दौरान गुजरात में एनडीटीवी के संवाददाता रहे संजीव सिंह भी मैदान में कूदे और उन्होंने भी राजदीप की बात को सही ठहराया:
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एक और पत्रकार नलिन मेहता भी मैदान में कूदे और उन्होंने राजदीप के पक्ष पर सच्चाई की मोहर लगाई
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रोचक रूप से इस पूरे दौरान राष्ट्र के तथाकथिक प्रहरी अर्णब गोस्वामी की तरफ से कान फाड़ू सन्नाट रहा। और तो और सोशल मीडिया कारसेवक भी थक-हार कर शांत हो गए। लेकिन दिन भर के सन्नाटे के बाद शाम करीब 8 बजे नीली चिड़िया इसी मुद्दे पर फिर चहकी और किसी टाइम्स नाउ में काम करने वाले एक पत्रकार ने nation को know कराया कि अर्णब का यह वीडियो यू ट्यूब से गायब हो चुका है। उन्होंने इसे किसी की जीत भी करार दिया:
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लेकिन राजदीप सरदेसाई के अंदर अब तक कंफ्यूशियस की आत्मा प्रविष्ट हो चुकी थी, उनके पिंजरे की नीली चिड़िया ने पर फरफराए और बोली, न कोई जीतता है, न कोई हारता है, जो होना था हो गया, जो कहना था कह दिया...चलो बढ़ें अगली खबर की तरफ..
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लेकिन इधर के भक्त अभी थके नहीं थे शायद। एक ने चिहुंकाया...अरे काहे की हार जीत, लगाओ जरा सर्राटे से। चेताया भी कि बाबू अगर उनकी जगह तुम और तुम्हारी तरह वह होते, तो तुम्हारी तो वाट लग गयी होती और उत्तर कोरिया के किम की आत्मा को अपने अंदर बिठाकर अर्णब की तरफ वालों ने तुम पर न्यूक्लियर बम फोड़ दिया होता।
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लेकिन राजदीप, अब तक वक्फ बोर्ड की जमीनों की लूट के खुलासे में रम चुके थे शायद, इसीलिए उन्होंने फिर से वही दार्शनिक अंदाज़ अपनाया और कहा कि गलतियां तो हम सबसे होती हैं। यह मामला अब यहीं बंद:
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लेकिन एक बात कहना जरूरी है। वह यह कि अर्णब गोस्वामी आज भले ही सबसे ज्यादा देखे जाने वाले टीवी एंकर हैं, लेकिन उनकी पहचान न तो उनकी किसी मुश्किल हालात में रिपोर्टिंग से बनी है और न ही किसी ऐसे लेख या किताब से जिसकी चर्चा चारों तरफ हुई हो। दूसरी तरफ राजदीप सरदेसाई हैं, जिनकी टीवी एंकर के तौर पर पहचान उनके व्यक्तित्व का मात्र एक रूप है, जबकि उनकी असली पहचान मुश्किल हालात में रिपोर्टिंग, तीखे विचारों के लेख, सटीक और चिढ़ा देने वाले इंटरव्यू और घटनाओं को सिलसिलेवार तरीके से पेश करने वाले लेखक के तौर पर भी है। इसके अलावा राजदीप सरदेसाई एक ऐसे संपादक भी रहे हैं जिसने पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी को सिखाया-समझाया है। ऐसे में किसी के लेख या शब्दों की चोरी के बजाय जब “अनुभव ही चोरी” (बल्कि इसे डकैती कहना चाहिए) होता है तो ऐसी प्रतिक्रिया अस्वाभाविक नहीं लगती।
अस्वाभाविक जो लगा या लग रहा है, वह यह कि पत्रकारिता में ईमानदारी का झंडा बुलंद करने का दावा करने वाले अर्णब गोस्वामी इस पूरे मामले पर चुप क्यों रहे?
बहरहाल इस मामले को राजदीप ने खुद ही बंद कर दिया तो हमारी तरफ से भी यह मामला यहीं बंद। नहीं तो वही बात हो जाएगी... मुद्दई सुस्त....गवाह चुस्त...शुभरात्रि
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