धीरे-धीरे ऐसे कई समर्थ कवि सामने हैं जिनके लिए फेसबुक उनकी रचनाशीलता का मायका रहा है। दो-तीन वर्ष पहले ज्ञानपीठ का नवलेखन सम्मान प्राप्त करने वाली बाबुषा कोहली हों या वहीं से प्रकाशित सुजाता और रश्मि भारद्वाज- इन सबकी पहली पहचान फेसबुक पर बनी। शायक आलोक और वीरू सोनकर जैसे कवि फेसबुक से उभरे। शुभमश्री की कविताएं पत्रिकाओं से ज्यादा सोशल मीडिया पर दिखाई पड़ीं। फेसबुक पर साहित्य के सबसे तीखे विवाद उभरे और सबसे चर्चित खेल भी हुए।
अंबर रंजना पांडेय ने पहले दौपदी सिंघार और बाद में तोताबाला ठाकुर बनकर जो कविताएं लिखीं उन्होंने सबका ध्यान खींचा और यह प्रश्न भी उछला कि आखिर कविता के नाम पर यह खेल कविता ही है या कविता का प्रारूप। या फिर कविता अंततः प्रारूप नहीं होती है तो क्या होती है। गौतम राजर्षि जैसे शायर यहीं उभरे और बाद में पत्रिकाओं ने उनके स्तंभ शुरू किए। आर चेतन क्रांति और अविनाश मिश्र की बीच-बीच में आवाजाही ने इस परिदृश्य को कुछ सुंदर और सार्थक ही बनाया। कथाकार शशिभूषण द्विवेदी ने अपनी कहानियां भले इस पर न डाली हों, लेकिन वे तमाम साहित्यिक बहसों में जरूरी हस्तक्षेप करते रहे, कुछ रचनात्मक टिप्पणियां भी लिखते रहे और जरूरत पड़ने पर दूसरों को सख्ती से फटकारते भी रहे। ‘जानकी पुल’ की मार्फत प्रभात रंजन और ‘समालोचन’ की मार्फत अरुणदेव इस पूरी प्रक्रिया में तरह-तरह से योगदान करते नजर आए।
लेखकों और कवियों की यह सूची बहुत लंबी है। सोशल मीडिया पर चली बहसों, निजी आक्षेपों, उठा-पटक, साजिशों, साहित्यिक वाद-विवाद और प्रतिवादों ने इस प्रक्रिया में नए पृष्ठ जोड़े हैं। कुछ कुंठाएं भी नजर आईं और कुछ रचनात्मकता भी सबको मुग्ध करती दिखी। लेकिन ज्यादा जरूरी समझना है कि इस पूरी प्रक्रिया ने साहित्य या कविता का कितना भला किया और उसकी राह कितनी अवरुद्ध की।
इसमें शक नहीं कि सोशल मीडिया की मार्फत एक कच्ची-असंपादित रचनाशीलता का लगभग विस्फोट हुआ है। फेसबुक, वाट्सऐप और ब्लॉग की दुनिया नई कविताओं और नये कवियों से पटी पड़ी है। अपने आप में यह बहुत अच्छी बात है कि किसी समाज में इतने सारे लोग कविता लिखना चाहें। इससे पता चलता है कि जब अभिव्यक्ति लगातार अर्थहीन और असंभव बनाई जा रही हो तब भी खुद को व्यक्त करने की बेचैनी कितनी ज्यादा है। इस अच्छाई का एक पक्ष यह भी है कि इस प्रक्रिया ने बहुत सारे ऐसे लेखक-कवि दिये जिनके पास बात कहने का एक नया तरीका है। पारंपरिक लेखन से नीडर और वैचारिक चौखटों से बेपरवाह। कुछ की भाषा इतनी अच्छी और चमकदार है कि उनसे ईर्ष्या हो सकती है।
दूसरी बात यह कि यह पूरी रचनाशीलता अपने समय के प्रति बेहद सजग है, बल्कि कहें तो अतिसजग है। सोशल मीडिया से हासिल तकनीकी सुविधा ने जितनी सारी सूचनाएं उंडेल दी है, वे सब रचना की कच्ची सामग्री बन रही हैं। कई बार तो कच्ची ही पेश कर दी जा रही हैं। हम याद कर सकते हैं कि पिछले दिनों रोहित वेमुला से लेकर जुनैद तक की मौत सोशल मीडिया में बड़ी बेचैनी का सबब रही और इन पर केंद्रित कविताएं भी लिखी गईं। निस्संदेह इनमें बहुत सारी कविताओं में बहुत सपाट विचार थे और कई कविताओं में लिजलिजी भावुकता थी। लेकिन फिर भी ऐसी कई कविताएं सामने आईं जिनमें माहौल की भयावहता अपने ढंग से दिखती रही।
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लेकिन इस प्रक्रिया के कुछ चिंताजनक पहलू भी हैं। इस भागते समय में घटनाएं इतनी तेजी से घट रही हैं और रचनाएं इतनी जल्दी में लिखी जा रही हैं कि बहुत सारा लेखन बिल्कुल प्रारंभिक प्रतिक्रिया रह जा रहा है। ये लेखन घटना के साथ ही दो दिन के भीतर ओझल भी हो जा रहा है।
बेशक, विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को तीव्र भावनाओं का स्वतःस्फूर्त प्रवाह बताया था। लेकिन हम जानते हैं कि इस पहली प्रतिक्रिया से बहुत प्राथमिक स्तर की कविता बनती है। इस पहली प्रतिक्रिया को रोकना पड़ता है। उस पर ठहर कर सोचना पड़ता है और उसे अभिव्यक्ति के लायक बनाने के तरीके खोजने होते हैं। ठीक है कि ये तीनों अलग-अलग चरण में नहीं होते, एक साथ चलते रहते हैं। लेकिन घटना के रचना में तब्दील होने की जो रासायनिक प्रक्रिया है, वह इस सोशल मीडिया की रचनाशीलता में ज्यादातर अनुपस्थित दिखाई पड़ती है।
इस संपादकविहीन समय में उसको सही राय लेने या संपादन का भी अवसर नहीं मिलता। इसका एक असर यह भी हुआ है कि सूचना के स्तर पर जो सरोकार है, उसे किसी विचारशीलता में ढलने का अवकाश नहीं मिलता। अंततः यह कवायद किसी बौद्धिक लक्ष्य तक नहीं पहुंचती।
दूसरी बात यह है कि अचानक इतनी सारी रचनाएं सोशल मीडिया पर दिखने लगी हैं कि अच्छे और बुरे का आस्वाद जैसे हम खो बैठे हैं। अच्छी और बुरी कविता का फर्क बहुत मामूली होता है। जैसे क्रिकेट में एक खराब गेंद और अच्छी गेंद का फर्क होता है, एक पर चौका लग जाता है और दूसरी पर विकेट मिल जाता है। लेकिन इस फर्क का एहसास सोशल मीडिया ने मिटा दिया है। वहां इतनी बड़ी तादाद में त्वरित प्रतिक्रिया देने वाले मित्र बैठे हुए हैं कि किसी भी लेखक को अपनी हर रचना के श्रेष्ठ होने का भ्रम हो सकता है।
तीसरी बात यह भी हुई है कि इस नए लेखन की हड़बड़ी में पुराने को देखने का अवकाश नहीं है। यह सच है कि परंपरा का अध्ययन रचना के लिए हमेशा अनिवार्य नहीं होता, लेकिन परंपरा में जो कुछ मूल्यवान है उसकी समझ रचनाशीलता के विस्तार में सहायक होती है। फेसबुक पर यह दिखाई पड़ता है कि बहुत कम लोगों में इस परंपरा की समझ है और बहुत ज़्यादा लोग पहले से भी बुरी रचनाएं लिख रहे हैं, या फिर उनके ही प्रतीकों और बिंबों को दुहरा रहे हैं।
हालांकि इस टिप्पणी का मकसद सोशल मीडिया के लेखन को पारंपरिक साहित्यिक लेखन से कमतर बताना नहीं है। उस संसार की अपनी जटिलताएं और सीमाएं रही हैं। हिंदी पत्र-पत्रिकाएं भी कई बार कूड़े का ढेर ही नजर आती हैं जिनमें कभी-कभार कोई नया मोती मिलता है। सच तो यह है कि दोनों दुनियाओं में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। अब तो ये दोनों दुनियाएं आपस में मिल भी रही हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में सोशल मीडिया की सामग्री के लिए अलग से जगह है। ज़्यादातर पत्रिकाएं अब ऑनलाइन सुलभ हैं और एक ही लेखक दोनों जगह दिख रहा है। यह दूरी और घटे, यह जरूरी है। उससे भी जरूरी यह है कि सतहीपन को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्ति को हम सोशल मीडिया पर भी पहचान पाने की क्षमता रखें और पारंपरिक माध्यमों में भी।
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