उनकी आखिरी इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह गृह में किया जाए। अपनी मृत्यु से चंद रोज पहले ही एस पॉल ने अपनी पत्नी से कहा था, “लकड़ियों का जलना मुझे अच्छा नहीं लगता।” वह अपनी अस्थियों का भी गंगा में विसर्जन नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा था कि उनकी अस्थियों को शांति वन में उन पेड़ों की जड़ों में डाल देना जो उन्होंने दिल्ली मे रहते हुए वहां घूमने के दौरान लगाए थे।
एस पॉल की पहली तस्वीर मैंने इंडियन एक्सप्रेस में देखी थी। इस तस्वीर में गुलजारी लाल नंदा गौ-हत्या के खिलाफ हो रहे एक प्रदर्शन के देखते हुए नजर आते हैं। ये नवंबर 1966 की बात है, उस समय मैं खालसा कॉलेज में अंडर ग्रेजुएट छात्र था।
एस पॉल का जन्म पाकिस्तान के झांग में 19 अगस्त 1929 को हुआ था और अपने 88वें जन्मदिन से दो दिन पहले 16 अगस्त 2017 को उनका निधन हो गया। उन्होंने फोटोग्राफी खुद से ही और अपनी लगन से सीखी थी। 1962 में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में काम करना शुरु किया और वहीं से 1989 में रिटायर हुए।
मुझे उस तस्वीर के बारे में कॉलेज में हुयी एक बातचीत याद है, क्योंकि मेरी इच्छा भी फोटोग्राफर बनने की थी। मैं इस तस्वीर को खींचने वाले से मिलना चाहता था। और आखिरकार 1972 में मेरी उनसे मुलाकात हुयी। इसके बाद यह गुरु-चेले का रिश्ता बन गया। मैं सिर्फ 22 साल का था तब। मैंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ी और उनके नक्शे कदम पर चलना शुरु कर दिया।
मैं अक्सर उनके साथ उनके दफ्तर जाता, उनका बैग उठाता और वह वहां से चिड़ियाघर जाते। उनका चिड़ियाघर आना-जाना इतना जल्दी जल्दी होता था कि वहां के जानवर भी उन्हें पहचानने लगे थे। फिर वह दिल्ली में इधर-उधर घूमकर तस्वीरे उतारते रहते। दोपहर 2 बजे के आसपास वह पहाड़गंज के एक स्कूल से अपनी पत्नी को लेने जाते।
मैं शाम होते होते फिर से उनके घर जा पहुंचता और फिर हमारा डार्क रूम का काम शुरु होता। डार्क रुम में तस्वीरों के तैयार किया जाता और उसके प्रिंट बनाए जाते। मैं अक्सर डार्क रूम में ही सो जाता था। उन दिनों मैं हफ्ते में दो-तीन बार ही अपने घर जाता था। 1973 में मैंने नेशनल हेराल्ड में नौकरी शुरु की, तब तक मेरी जिंदगी का सिलसिला इसी तरह चलता रहा।
Published: 18 Aug 2017, 1:20 PM IST
फोटोग्राफी का उनका अनुशासन बहुत ही अनोखा था और जिसका पालन वह धर्म की तरह करते थे। एस पॉल रोज नयी तस्वीरें खींचते, उन्हें प्रोसेस करते, प्रिंट निकालते और अगले दिन भेज देते। रिटायर होने के बाद भी उनका ये रूटीन जारी रहा। मुझे किसी ने बताया कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही उन्होंने कुछ तस्वीरें खींची थीं। बीमारी के आलम में भी वह अपनी बालकनी में लेटे-लेटे तस्वीरें खींचते थे।
एक बार मैं इंडियन एक्सप्रेस के लिए लखनऊ की बाढ़ कवर करने के लिए एस पॉल के साथ गया। वापस आकर मैंने नादानी में इस लालच के साथ अपनी कुछ तस्वीरें दूसरे अखबार को दे दीं कि मेरे नाम से अखबार में तस्वीरें छपेंगी। लेकिन संयोग ये हुआ कि इंडियन एक्सप्रेस ने भी वही तस्वीरें छाप दीं। इस बात पर एस पॉल पहली बार मुझसे बेहद नाराज हुए। उन्होंने मेरा कैमरा ले लिया और मुझसे 10 दिन तक बात नहीं की। आखिरकार उन्होंने मुझे माफ कर दिया, लेकिन मुझे सख्त ताकीद की कि आगे से कभी ऐसा न हो।
फोटोग्राफी को लेकर उनका जुनून और समर्पण और अपनी जरूरत के हिसाब से फोटोग्राफ उपकरणों में बदलाव करने की उनकी कला की दूसरी मिसाल मैंने आज तक नहीं देखी। वह कैमरे की बॉडी और लेंस जहां से भी मिलते और उनसे कुछ नया ही बना डालते थे। वह ऐसे जादूगर थे जिनकी तस्वीरें बोला करती थीं। युवा फोटोग्राफरों को सिखाने में उन्हें मजा भी आता था। उनके पास नए और युवा फोटोग्राफरों की अक्सर जमावड़ा भी दिखता था और वह सबको सिखाते थे। इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था कि किसी को वह पहले से जानते हैं या नहीं।
अपने पीछे वह अपनी पत्नी, दो बेटों और तीन बेटियों को छोड़ गए हैं। उनके बेटे नीरज और धीरज पॉल दोनों ही फोटोग्राफर हैं। उनके भाई रघु राय भी जाने माने फोटोग्राफर हैं।
Published: 18 Aug 2017, 1:20 PM IST
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Published: 18 Aug 2017, 1:20 PM IST