निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी समाय
बिनु पानी, बिनु सावुना, निर्मल करे सुभाए
सभ्यताओं की असाधारण समझ से भरा हुआ 14वीं सदी के संत-कवि कबीर का यह दोहा अभिव्यक्ति की आज़ादी को ज़्यादा आधुनिक मायनों के साथ सामने रखता है. फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्तेयर ने असहमतों के बोलने की आज़ादी का पुरज़ोर समर्थन किया था, उन्होंने हर नागरिक के लिए यह आज़ादी चाही थी. कबीर इसके भी आगे जाते हुए कहते हैं कि अपनी समझ को साफ़ रखने के लिए हर मनुष्य को अपने साथ एक आलोचक रखना चाहिए.
भारतीय सभ्यता की इस समझ से वे लोग नावाकिफ़ हैं जो फिलहाल हिन्दुस्तान पर राज कर रहे हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि जनहित में काम करने वाली हुकूमतों के भीतर भी मनमाने तरीके से काम करने और बिना किसी सवाल और जवाबदेही के सत्ता का इस्तेमाल करने की घनघोर इच्छा रहती है. अभिव्यक्ति की आज़ादी से भी उनका छत्तीस का आंकड़ा रहता है. शासकों और प्रतिक्रियावादी सामाजिक ताक़तों ने कमज़ोर या दंभ से भरे मौक़ों पर अपना यह बदसूरत और दमनकारी चेहरा दिखाया है. अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने से आगे जाकर इन अधिकारों का इस्तेमाल करने वाले लोगों को मार देने में इन हुकूमतों को ज़्यादा वक़्त नहीं लगता और उन लोगों को खत्म करने में भी जो शायद इन अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते हैं. यह किसी के साथ भी हो सकता है.
यह सबकुछ बारी-बारी से होता है, ताकि उन लोगों को रोका जा सके जो अपने उपर हुए अत्यचारों को लेकर एक साझा अभियान चलाना चाहते हैं. इसकी शुरूआत उन लोगों से होती है जो सांस्कृतिक रूप से थोड़ा अलग नज़र आते हैं और जो इस वजह से राष्ट्र के उस विचार से सहमत नहीं हो पाते जिसे खोखली और संकुचित सरकारें आगे बढ़ाना चाहती हैं. अल्पसंख्यकों को राष्ट्र के दुश्मन के तौर पर दिखाने के लिए वे उनके अलग होने का संदेह पैदा करते हैं और बहुसंख्यक समुदाय के भीतर अपने जनाधार को मजबूत करते हैं. दुश्मनों की सूची लंबी होती चली जाती है और आख़िर में उसमें सारे लोग आ जाते हैं. लूथरन पास्टर मार्टिन निमोलर ने अपनी एक कविता में इस प्रक्रिया को नाज़ी जर्मनी के संदर्भ में खूबसूरती से दिखाया है (पहले वे आए सोशलिस्टों के लिए आए और मैं चुप रहा क्योंकि मैं सोशलिस्ट नहीं था). यह कविता इतनी लोकप्रिय है कि इसे यहां पूरा छापने की ज़रूरत नहीं.
अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति का अधिकार लोकतंत्र और मानव सभ्यता के विकास के लिए बहुत ज़रूरी है. यूरोपीय पुनर्जागरण और अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के ज़माने से ही इसके लिए बहुत कठिन संघर्ष हुआ है. कभी-कभी इन अधिकारों के बड़े समर्थक भी इन्हें बचाने के नाम पर पेचीदे तर्कों के सहारे इनके ख़िलाफ़ चले गए. वाजदा द्वारा बनाई गई 1983 की त्रासद फांसीसी फ़िल्म ‘डॉन्टन’ के अंतिम मार्मिक दृश्य में रोब्सपियरे के शासन के आंतक की क्रूरता उस तक पहुंच जाती है. उसने अपनी ही फ्रांसीसी क्रांति तक तो धोखा दे दिया. उसकी साज़िश की वजह से उसके कॉमरेड और क्रांति के सह-नायक डॉन्टन का सिर काट दिया जाता है और रोब्सपियरे के आदेश पर ही उसकी रखैल/प्रेमिका के अच्छे आचरण वाला भतीजा ‘मनुष्य और नागरिक के अधिकार की घोषणा’ को साफग़ोई के साथ उच्चारित करता है. दहशत और शर्म का ऐसा कोई पल हमारे शासकों के लिए नहीं आता, जब वे अलग तरह की जीवनशैलियों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ जान लेने वाली भीड़ को लगा देते हैं. यह वही लोग हैं जो 1975-76 के आपातकाल के दौरान बुनियादी अधिकारों के स्थगन को लेकर अपनी लड़ाई का बखान करते नहीं थकते.
पिछली सदी में, ताकतवर यूरोप और तीसरी दुनिया के देशों को एकाधिकारवादी और सर्वसत्तावादी शासनों की दहशत को झेलना पड़ा. अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में जुटे भारत के राष्ट्रीय नेताओं महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ अम्बेडकर और सरदार पटेल और टैगोर जैसे जन बुद्धिजीवी इन अनुभवों को लेकर काफी चौकन्ने थे. इसलिए, उन्होंने अहिंसा और अभिव्यक्ति की आज़ादी में अपनी आस्था जताई. अपनी आंदोलनात्मक गतिविधियों के अलावा तिलक, गांधी, नेहरू ने ख़बरों और विचारों को केन्द्र में रखकर प्रकाशनों की स्थापना की और इसकी वजह से या तो उन्हें जेल जाना पड़ा या फिर उनके प्रकाशनों को प्रतिबंधित कर दिया गया. जैसा कि शायर अकबर इलाहाबादी कहते हैं, ‘जब तोप मुकाबिल हो अख़बार निकालिए’. यही समझ और विरासत पंडित नेहरू द्वारा शुरू किए गए प्रकाशन नेशनल हेराल्ड को हासिल है.
मौजूदा हुकूमत द्वारा गढ़े हुए मुक़दमों, संस्थाओं का फंड रोकने, ब्लैकमेल और मालिकों पर दबाव बनाकर न झुकने वाले संपादकों को निकालने की कोशिशों के जरिये असहमतों की आवाज़ और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचला जा रहा है. लेकिन इससे ज़्यादा आश्चर्य की बात यह है कि मीडिया के एक बड़े हिस्से और जनता, ख़ासतौर पर शिक्षित मध्यवर्ग, में इस हुकूमत को सक्रिय समर्थन हासिल है.
इस समझने के लिए हमें फिर से दुनिया के अनुभव पर निग़ाह डालनी होगी. हमलावर नाज़ियों और फासीवादियों द्वारा विध्वंस को अंज़ाम देने के बाद, और पूर्वी यूरोप में स्तालिन के अंतहीन सर्वसत्तावादी ख़तरों को भांपते हुए, दो किताबों ने अपनी छाप छोड़ी- जार्ज ऑरवेल की 1984 और एल्डस हक्सले की ब्रेव न्यू वर्ल्ड. 1984 जहां जबरदस्ती अपने पाले में लाए गए लोगों के भविष्य की भयानक तस्वीर पेश करता है, वहीं नाज़ियों के आतंक के फैलने से पहले 1932 में आई ब्रेव न्यू वर्ल्ड एक ऐसे आतंकी राज का चेहरा सामने लाता है, जिसमें तकनीकी चालाकी से संचालित मनुष्यों की नस्ल अपने शोषण के लिए अपनी मर्ज़ी से हामी भरती है.
हक्सले अपने समय के वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से परिचित थे और यह भी समझते थे कि भविष्य में उसकी दिशा क्या होगी. उन्होंने ब्रेव न्यू वर्ल्ड के प्रकाशन के 30 साल बाद 1962 में दिए गए अपने कुछ सार्वजनिक व्याख्यानों में अपनी बेहद उम्दा समझ को साझा किया था. इसे उन्होंने सर्वश्रेष्ठ क्रांति का नाम दिया. यहां क्रांति शब्द का इस्तेमाल स्वप्न नहीं, बल्कि आतंकी राज के मायनों में हुआ है. इनमें से एक भाषण 20 मार्च 1962 को अमेरिका के बर्कले लैंग्वेज़ सेंटर में हुआ था, जिसकी रिकार्डिंग बर्कले आर्काइव्स में उपलब्ध है. यहां व्यक्त उनके विचार उनके ही शब्दों में ज्यादा सार्थक नज़र आते हैं:
Published: 08 Aug 2017, 5:34 PM IST
अगली पीढ़ी या उसके बाद, एक ऐसा औषधीय तरीका अपनाया जाएगा जिससे लोग अपनी ग़ुलामी से प्यार करने लगेंगे, बिना आंसुओं के एक तानाशाही स्थापित की जाएगी, कहना चाहिए कि पूरे समाज के लिए एक दुखविहीन अत्याचार स्थल बनाया जाएगा, जहां लोगों की आज़ादी दरअसल उनसे छीनी जाएगी, लेकिन वे उसका आनंद लेंगे, क्योंकि प्रचार या दिमागी भ्रम के ज़रिये उनके भीतर बग़ावत करने की इच्छा को ही ख़त्म कर दिया जाएगा, या औषधीय तरीकों से दिमागी भ्रम को बढ़ा दिया जाएगा.
क्या यही चीज़ हम आज विकसित पश्चिम देशों समेत भारत में देख रहे हैं? हक्सले ने भविष्य की तकनीक के ख़तरनाक इस्तेमाल को लेकर चेतावनी दी थी, ख़ासतौर पर प्रचार और दिमागी भ्रम को फैलाने के लिए संचार तकनीकों के बारे में उनका यह विचार था. भारत में हमने इसे विध्वंसक स्तर पर इस्तेमाल होते हुए देखा है।
हमें भारत में औषधीय तरीकों के इस्तेमाल के बारे में कोई जानकारी नहीं है. लेकिन इस संदर्भ में आरएसएस द्वारा कथित गर्भ विज्ञान संस्कार के ज़रिये श्रेष्ठ मानव की रचना की कथित कोशिश एक ख़ास विचारधारात्मक कल्पना है जो अपने सारे बकवास के बावजूद एक अनिष्ट मोड़ ले रही है. तकनीक के इस भयावह इस्तेमाल से मुक़ाबला करने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन और मानव सभ्यता के उम्दा मूल्यों पर आधारित एक तकनीकबद्ध कल्पना की हमें ज़रूरत है. नेशनल हेराल्ड में हम यही करने की कोशिश करेंगे।
Published: 08 Aug 2017, 5:34 PM IST
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Published: 08 Aug 2017, 5:34 PM IST