2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री (अब दिवंगत) शीला दीक्षित ने दिल्ली नगर निगम का तीन हिस्सों में विभाजन किया था, तो उनके दिमाग में दिल्ली के हित भी थे। तब कहा गया था कि दिल्ली आबादी के लिहाज से बढ़ रही है और उस हिसाब से सफाई, देखरेख, ट्रैफिक आदि समस्याएं बढ़ रही हैं इसलिए निगम का विभाजन बहुत जरूरी है। आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि विभाजन से जन्म लेने वाली समस्याओं के समाधान के लिए निगम को दोबारा एक तो किया गया है लेकिन क्या वाकई यह समस्या का समाधान है या वोट की राजनीति से प्रेरित है। हो सकता है कि शीला दीक्षित ने विभाजन के वक्त अपने राजनीतिक लाभ को दिमाग में रखा होगा लेकिन इसमें शक नहीं कि उन्होंने दिल्ली के लोगों के हितों को नजरंदाज नहीं किया था।
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निगम चुनाव पर पूरे मुल्क की नजर इसलिए भी है कि दिल्ली में होने वाली किसी भी राजनीतिक गतिविधि का असर पूरे देश में देखने को मिलता है। वैसे भी, बीजेपी और आम आदमी पार्टी- दोनों ही 24 घंटे 365 दिन चुनावी राजनीति के मोड में रहती हैं बल्कि इस मामले में दोनों एक-दूसरे से होड़ करती रहती हैं। बीजेपी की जननी जनसंघ ने सबसे पहला चुनाव दिल्ली नगर निगम का ही जीता था और उसके बाद देश की राजनीति में एक नए दल के तौर पर कदम रखा था। वरिष्ठ पत्रकार दिलबर गोठी कहते भी हैं कि ’1958 का 80 सदस्यों वाला नगर निगम कभी तीन हिस्सों में बंटा और अब फिर एक हो गया है। सदस्यों की संख्या 272 तक बढ़ते हुए अब घटकर 250 पर आ गई है।’ ऐसे में यह चुनाव दिलचस्प हो गया है।
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आम आदमी पार्टी ने साल 2013 में दिल्ली की सत्ता संभाली और तब से दिल्ली की राजनीति में एक बड़ी तब्दीली आई है। वैसे, दिल्ली मुख्य तौर पर दो राजनीतिक दलों- कांग्रेस तथा बीजेपी का गढ़ मन जाता था लेकिन आम आदमी पार्टी अब महत्वपूर्ण तीसरी खिलाड़ी है। उसकी आकांक्षा पूरे देश में अपना दबदबा बनाने की है। पंजाब में भी उसकी सरकार है। दिल्ली में चाहे वह संसद की कोई सीट जीतने में नाकाम रही हो और दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के चुनाव में कोई सीट न जीत पाई हो लेकिन वह कम-से-कम निगम पर कब्जा करना चाहती है जबकि बीजेपी निगम से अपनी सत्ता जाने नहीं देना चाहती। दिल्ली की सत्ता में आने के बावजूद आम आदमी पार्टी 2017 में बीजेपी को मात नहीं दे पाई थी। बीजेपी निगम पर पिछले 15 वर्ष से काबिज है।
लेकिन इस बार परिस्थितियां थोड़ी अलग हैं। बीजेपी को भी साफ नजर आ रहा है कि लोगों में उसके प्रति गुस्सा है। अगर यहां निगम की सत्ता भी बदली, तो इसका संदेश पूरे देश में जाएगा। शायद इसलिए भी उसने चुनाव से पहले तीन निगमों को एक करने की कवायद शुरू की और फिर वार्डों की दोबारा हदबंदी की प्रक्रिया पूरी की। जैसा कि होता है, केन्द्र में सत्ताधारी पक्ष ने कोशिश कर अपने हिसाब से वार्डों का परिसीमन करा लिया। कहा यही जा रहा है कि वार्डों का गठन इस तरह किया गया है जिससे बीजेपी का राजनीतिक नुकसान कम-से-कम हो।
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प्रचार कम-से-कम सोशल मीडिया पर तो पूरे शबाब पर है। तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप और अपने-अपने दावे-वादे वाले वीडियो लगभग हर व्यक्ति के फोन-वाट्सएप पर हैं। चूंकि केन्द्र और निगम में बीजेपी तथा दिल्ली में आम आदमी पार्टी सत्ता में है इसलिए उनके कामकाज के परीक्षण का यह मौका है और इसलिए अपने बचाव में दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर ज्यादा से ज्यादा उंगली उठा रहे हैं। आम आदमी पार्टी इन चुनावों में जहां अपने स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक के ’बेहतर’ होने को तो शो केस कर ही रही है, वहीं कूड़े के पहाड़ और निगम के कर्मचारियों की तनख्वाहों को मुद्दा बना रही है। दूसरी तरफ, बीजेपी वही पुराने और आजमाए हुए तरीके- मोदी के चेहरे को आगे कर रही है। वह नहीं चाहती कि कूड़े, नगर निगम के स्कूलों, अस्पतालों, गलियों-कूचों के रखरखाव, प्रॉपर्टी टैक्स, पार्क या पार्किंग वगैरह पर ज्यादा बात हो क्योंकि ये उसकी कमजोर नसें हैं। इसीलिए वह आम आदमी पार्टी के भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाने का हरसंभव प्रयास कर रही है। आम आदमी पार्टी के टिकट बेचने की खबर और मंत्री सत्येंद्र जैन की जेल से जारी वीडियो को उसने मुद्दा बनाने का पूरा प्रयास किया है। उधर, कांग्रेस विकास को ही मुख्य मुद्दा बनाने की कोशिश में है। शीला दीक्षित के कामकाज को वोटरों के बीच रखकर वह उन दिनों की यादें उभार रही है जब दिल्ली का वास्तविक विकास हो रहा था। वह प्रॉपर्टी टैक्स माफ करने की बात तो कर ही रही है, उसने दिल्ली में बिजली में भ्रष्टाचार से होने वाले नुकसान को मुद्दा बनाया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता और दिल्ली के पूर्व बिजली मंत्री अजय माकन का कहना है कि ’केजरीवाल सरकार का बिजली मॉडल बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का मॉडल है क्योंकि दिल्ली में बिजली के निजीकरण बिजली की चोरी आई कमी का फायदा लोगों को न मिलकर बिजली की निजी कंपनियों को दिया जा रहा है। साथ में 30 प्रतिशत फर्जी सब्सिडी ग्राहक हैं जिनका पैसे का कोई हिसाब नहीं दिया जा रहा। आखिर, दिल्ली में बिजली की चोरी सबसे कम होने के बावजूद इसके रेट सबसे ज्यादा क्यों हैं? ज्यादा रेट होने की वजह से दिल्ली में मैन्युफैक्चरिंग यूनिटें बंद हुई हैं और इसी कारण दिल्ली में बेरोजगारी जबरदस्त बढ़ी है।’
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इन चुनावों में निगम के कर्मचारियों का वेतन बड़ा मुद्दा है। दरअसल, अनियमित वेतन भुगतान की वजह से समय-समय पर निगम की सेवाएं कई दिनों तक ठप भी रहती रही हैं और इनका घाटा अंततः आम लोगों को भुगतना पड़ता है। यह बात ध्यान में रखना जरूरी है कि इस मसले के हल के लिए केन्द्र सरकार की सहमति जरूरी है और दिल्ली सरकार के पास अब इस संबंध में कोई अधिकार नहीं है। दिल्ली विधानसभा के पूर्व स्पीकर एस के शर्मा का कहना है कि ’पहले केन्द्र सरकार दिल्ली सरकार को निगम के कामकाज के लिए फंड देती थी लेकिन पिछले कुछ वर्षां में दिल्ली सरकार की राजनीति की वजह से कई बार कूड़े वालों की हड़ताल हुई और दिल्ली वालों को यह सब भुगतना पड़ा। इसलिए निगम को एक किया गया है और उसमें केन्द्र ने पैसे सीधे निगम को देना का फैसला किया है। अब इस में दिल्ली सरकार का रोल समाप्त कर दिया गया है।’
वैसे, अब तक जो स्थिति बनी है, उससे तो इन चुनावों में जनता के मुद्दे कम, राजनीति ज्यादा नजर आ रही है। तीनों निगमों को एक करने से पहले जो होम वर्क किया जाना चाहिए था, वह तो हुआ नहीं। अगर पूर्वी दिल्ली निगम की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, तो उसके उपाय किए जाने चाहिए थे। बढ़ती आबादी और दिल्ली पर बढ़ते दबाव पर बात भी नहीं हो रही। मतलब, सब सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं।
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