लीजिये, अन्ततः लालकृष्ण आडवाणी की भारतीय राजनीति से छुट्टी हो गई। होली की सांध्य आडवाणी के लिए अशुभ साबित हुई, क्योंकि उस शाम जब बीजेपी की 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की सूची सामने आई तो उसमें गुजरात के गांधी नगर से लालकृष्ण आडवाणी की जगह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का नाम था। यह वही गांधी नगर सीट है जिसका प्रतिनिधित्व पिछले 18 वर्षों से (कुल जोड़ें तो 21 साल से) आडवाणी कर रहे थे। लेकिन आडवाणी अब वहां पूर्व हो चुके हैं।
आडवाणी जी की गांधीनगर से छुट्टी पर कम से कम मीडिया जगत में कोई बड़ा आश्चर्य भी नहीं हुआ, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से सत्ता के गलियारों में यह चर्चा थी कि कभी के उनके राजनीतिक शिष्य नरेंद्र मोदी ने यह तय कर लिया है कि अब वह अपने ‘मार्ग दर्शक’ को अलविदा कह ही देगें। खबरों में हालांकि कहा जा रहा है कि आडवाणी अपनी बेटी प्रतिभा को टिकट दिलवाने की कोशिश में थे।
यह सत्ता की राजनीति की विडंबना ही है कि वह आडवाणी जिन्होंने बीजेपी में एक दो नहीं हजारों को टिकट देकर उनका राजनीतिक जीवन बनाया, वहीं आडवाणी स्वयं अपनी बेटी प्रतिभा को टिकट नहीं दिलवा सके। अरे, और तो और, स्वयं नरेंद्र मोदी का भविष्य बनाने वाले भी आडवाणी ही हैं।
सन् 1990 के दशक में जब लाल कृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकले तो उस समय उन्होंने मोदी को अपने रथ का सारथी बनाया। उस समय तक नरेंद्र मोदी का नाम दिल्ली में बीजेपी तक में किसी ने नहीं सुना था। बस वह दिन और आज का दिन, मोदी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाने तक आडवाणी जी मोदी की छत्रछाया करते रहे। यह किस्सा भी प्रख्यात है कि सन् 2002 में गुजरात दंगों के बाद जब उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहा तो आडवाणी मोदी की ढाल बन गए थे।
पर वाह रे मोदी वाह, इस सबकाा सिला गुरू आडवाणी को यह दिया कि उनका राजनीतिक जीवन ही समाप्त कर दिया। यूं तो न ही आडवाणी और न ही बीजेपी की तरफ से कोई संकेत मिला है कि आडवाणी अब ‘टायर्ड और रिटार्यड’ हैं। लेकिन यह साफ है कि 91 वर्षीय आडवाणी के राजनीतिक जीवन का पटाक्षेप हो गया है।
वैसे आडवाणी का पतन उसी समय शुरु हो गया था जब उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को ‘सेकुलर’ कहा था। इस बयान से तो संघ परिवार में खलबली मच गई थी। जल्द ही स्पष्ट हो गया कि विचलित संघ अब आडवाणी को बाहर का रास्ता दिखाएगा। और हुआ भी वही। पाकिस्तान यात्रा के बाद आडवाणी को जल्द ही बीजेपी अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा था।
लेकिन, आडवाणी यूं हार मानकर चुप बैठने वाले थे। जिस बीजेपी संगठन को सींचकर उन्होंने एक बरगद बनाया था उस पर उनकी गिरफ्त ऐसी थी कि संघ किसी को भी अध्यक्ष बनाए चलती आडवाणी की ही थी। अन्ततः सन् 2009 लोकसभा चुनाव में वह पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हुए। लेकिन चुनावी नतीजों के बाद वह हाथ मलते रह गए।
संघ अध्यक्ष मोहन भागवत ने कदापि उनको सबक देने की ठान ली। भागवत ने नितिन गडकरी को बीजेपी अध्यक्ष बनाकर भेजा। उन्होंने मंझे आडवाणी को नौ नौ आंसू रूलाया। अन्ततः जब संघ ने गडकरी को बीजेपी अध्यक्ष के लिए दोबारा नियुक्त किया तो एकाएक ‘पूर्ति घोटाले’ का शोर मच गया। और इस घोटाले से गडकरी का नाम जुड़ा था। गडकरी ने अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और संघ भी चुप होकर पीछे हट गया।
लेकिन शायद आडवाणी ने संघ के साथ अपने रिश्तों में सीमापार कर ली थी। निस्संदेह सर संघ चालक मोहन भागवत ने आडवाणी से हिसाब चुकता करने की ठान ली थी। यह जगजाहिर है कि संघ सत्ता राजनीति में स्वयं हस्तक्षेप नहीं करता है। वह अपना काम अपने मोहरों से करवाता है। सन् 2014 में भागवत को मोदी के रूप में एक मोहरा मिल भी गया। पहले तो आडवाणी की जगह मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने। फिर चुनाव जीत मोदी ने आडवाणी को मार्गदर्शक घोषित कर मानो यह ऐलान कर दिया कि गुरू अब किसी काम के नहीं बचे।
फिर 2019 लोकसभा चुनाव के घोषित होते ही चेले मोदी ने कभी उपप्रधानमंत्री रहे गुरू आडवाणी के राजनीतिक जीवनकाल पर ताला लगा दिया।
यह है बीजेपी का चरित्र जहां चेला कब गुरू की पीठ में छुरा घोंपे सत्ता पर कब्जा कर लें कहना मुश्किल है। आडवाणी जी स्वयं मौन हैं और राजनीति से वनवास की घोषणा की कोई बात नहीं कर रहे। परन्तु नरेंद्र लेकिन हकीकत यही है कि मोदी ने आडवाणी को वनवास दे दिया है।
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